न्याजिया बेगम
Pandit Bhimsen Joshi death anniversary: फनकार यूं ही नहीं बन जाते हैं बरसो बीत जाते हैं ये समझने में ..कि आखिर इस दिल को लगन किसकी है वो क्या शय है जिसकी कशिश में दिल खिंचा चला जा रहा है ,ये उन्स क्या है जिसका ख़ुमार तो है पर अक्स साफ नहीं है ,ये बेचैनी क्या है क्यों किसी रौ में बह जाने में दिल सुकून पाता है, इन सवालों के जवाब में ये एहसास होता है कि शायद कुछ खास दिया है ऊपर वाले ने मुझ में और अब ,इस सुकून और लुत्फ की राह में थोड़ी मेहनत करनी चाहिए फिर अपने हुनर को तराशने की कोशिश करने में हम जुट जाते हैं।
ऐसा ही कुछ हुआ पंडित भीमसेन जोशी जी के साथ जिन्हें बचपन से संगीत इतना आकर्षित करता था कि वो साज़ों की आवाज़ सुनकर उन्हीं की रौ में बहे चले जाते थे ,जहां तक साज़िंदों का कारवां जाता वो पीछे पीछे चले जाते और अक्सर घर से दूर निकल जाते और चलते चलते इतना थक जाते कि कहीं भी रास्ते में सो जाते ,नौबत यहां तक पहुंच जाती कि मासूम बच्चे को ढूंढ के लाने के लिए कभी- कभी पुलिस की मदद लेनी पड़ती आखिर में इस समस्या का हल उनके पिता गुरुराजाचार्य जोशी ने ये निकाला कि, उन्होंने भीमसेन जी की शर्ट पर “शिक्षक जोशी का बेटा” लिख दिया और ये उपाय कारगर भी रहा फिर जो लोग इस छोटे से बच्चे यानी पंडित भीमसेन जी को जहां कहीं बाहर सोते हुए पाते थे, तो वे उन्हें सुरक्षित उनके घर वापस पहुंचा देते थे।
4 फरवरी 1922 को कर्नाटक के धारवाड़ ज़िले के रोन में कन्नड़ देशस्थ माधव ब्राह्मण परिवार में जन्में पंडित भीमसेन, 16 भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उन्होंने बहुत छोटी उम्र में अपनी मां गोदावरीबाई खो दिया था।आप ने बचपन में ही अब्दुल करीम खान की ठुमरी “पिया बिन नहीं आवत चैन” राग झिंझोटी में सुनी थी , जिसने उनके अंदर के कलाकार को झिंझोटी के उनके सामने लाकर खड़ा कर दिया फिर रही सही कसर पंडित सवाई गंधर्व को सुन कर पूरी हो गई, उसके बाद उन्हें मिले धोबी समुदाय, कुर्ताकोटी के चन्नप्पा , जिन्होंने गायक इनायत खान से संगीत सीखा था जिनसे राग भैरव और भीमपलासी सीखने के बाद , ही आपने और सीखने का फैसला लिया और अपने गाने की अनूठी शैली को और विकसित करने में जुट गए ।
फिर सन 1933 में, 11 बरस की उम्र में आप एक गुरु की तलाश में धारवाड़ से बीजापुर रवाना हुए पर जेब में पैसे नहीं थे इसलिए ट्रेन में सफर कर रहे और यात्रियों से पैसे उधार लिए तब कहीं जाकर वो धारवाड़ पहुंचे और यहां पंडित गुरुराव देशपांडे से संगीत सीखना शुरू किया कुछ वक्त बाद पुणे चले गए पर दिल बेचैन ही था तो, इसके बाद ग्वालियर चले आए और प्रसिद्ध सरोद वादक हाफिज़ अली खान की मदद से ग्वालियर के महाराजाओं द्वारा संचालित माधव संगीत विद्यालय में प्रवेश लिया जहां उनकी मुलाक़ात रामपुर घराने के उस्ताद मुश्ताक़ हुसैन खान से हुई फिर उनकी संगत में आपने एक साल से अधिक का समय गुज़ारा ,पर एक बार फिर उनके पिता उन्हें ढूंढने में कामयाब हुए और फिर उन्हें घर ले गए पर वो कितने दिन उन्हें रोक पाते तो एक बार फिर 1936 में धारवाड़ के मूल निवासी सवाई गंधर्व उनके गुरु बनने के लिए तैयार हो गए और भीमसेन जी गुरु- शिष्य परंपरा का निर्वहन करते हुए उनके घर पर रहे । 1941 में 19 साल की उम्र में आपने पहली बार लाइव परफॉर्म दी, उनके पहले एल्बम में मराठी और हिंदी में कुछ भक्ति गीत शामिल थे , इसे 1942 में एचएमवी ने रिलीज़ किया था , 1943 में आप मुंबई चले गए और बतौर रेडियो आर्टिस्ट काम किया।
60 और 70 के दशक में उनकी दमदार आवाज़ और लंबी ताने शास्त्रीय संगीत की दुनियां में अपनी एक अलग पहचान लिए उभरी ,उनकी लय रागों की पकड़ और सरगमों की तिहाई का माद्दा बेमिसाल था, वैसे तो वे शुद्धतावादी गायक थे लेकिन कर्नाटक गायक एम. बालामुरलीकृष्ण के साथ जुगलबंदी की जो उनका एक नया और उम्दा प्रयोग था । वो बड़ी सहजता से शानदार वाक्यांश में अपनी तानों को पिरोते थे अपने आखरी सालों में , उनकी फेहरिस्त में जटिल और गंभीर राग भी शामिल हो गए थे; जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने वालों को मुश्किल भी लगे पर उनकी लयकारी श्रोताओं को बांधे रखती थी उनके पसंदीदा रागों में शुद्ध कल्याण, मियाँ की तोड़ी, पूरिया धनाश्री, मुल्तानी , भीमपलासी , दरबारी , मालकौंस, अभोगी, ललित, यमन, असावरी तोड़ी, मियाँ की मल्हार और रामकली शामिल रहे ।
उनकी गायकी कई संगीतकारों से प्रभावित रही है, जिनमें श्रीमती केसरबाई केरकर , बेगम अख्तर और, उस्ताद अमीर खान का नाम आता है।इसके बावजूद उन्होंने अपने गायन में विभिन्न संगीत शैलियों और घरानों में भी अपनी पसंद के तत्वों का समावेश किया और श्रीमती गंगूबाई हंगल ,व और कुछ लोगों के साथ मिलकर किराना घराने को ऊंचाइयों पर पहुंचाया और उन्हें किराना घराने के योग्य बेटे और बेटी के रूप में गर्व से जाना जाता है। दोनों पुराने धारवाड़ जिले से थे।पंडित भीमसेन जोशी के साथ हारमोनियम पर पंडित पुरूषोत्तम वालावलकर संगत करते थे । इसके अलावा पंडित तुलसीदास बोरकर भी हारमोनियम पर पंडित जी का साथ देते थे , समीक्षक उनके सटीक नोट्स, चक्करदार गति वाले तानों के लिए विशेष प्रशंसा करते ,सांसों पे अदभुत नियंत्रण की मिसाल पेश करते हुए भी वो सरगम की तानों को नहीं उठाते थे और बस अपने ही सृजन से ऐसी रंजक तानें छेड़ते थे कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते थे ।उन्हें ख्याल गायन के साथ साथ भक्ति संगीत में भजन औरअभंग में भी महारथ हासिल था ,भक्ति संगीत में, उनके हिंदी , मराठी और कन्नड़ भजन बेहद पसंद किए गए इसके अलावा उन्होंने मराठी, संतवाणी , कन्नड़ दासवाणी में भी भजन गाए।
1988 में आए ,मिले सुर मेरा तुम्हारा के वीडियो में भी आपको खूब पसंद किया गया , जिसकी शुरुआत ही उनसे होती है इसे बनाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनसे कहा था। ये वीडियो भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के उद्देश्य से बनाया गया था, जो भारतीय संस्कृति की विविधता पर प्रकाश डालता है। जोशी भारतीय गणतंत्र के 50वें वर्ष के अवसर पर एआर रहमान द्वारा निर्मित जन गण मन का भी हिस्सा थे।यही नहीं वो भारत के पहले संगीतकार थे जिनके संगीत कार्यक्रमों का विज्ञापन न्यूयॉर्क शहर में पोस्टरों के ज़रिए किया गया था। आपको बता दें कि पंडित भीमसेन जोशी जी ने कई फिल्मों के लिए भी गीत गाए हैं, जिनमें मन्ना डे के साथ 1956 की फिल्म बसंत बहार , 1964 की मराठी फिल्म “स्वयंवर जले सितेचे” में मशहूर गीत “राम्या ही स्वर्गहुं लंका” और 1966 की कन्नड़ फिल्म संध्या राग ,शामिल हैं, इसमें आपने एम. बालमुरलीकृष्ण के साथ हिंदुस्तानी और कर्नाटक दोनों शैलियों में गाया और गीत “ई परिया सोबागु” तो खूब पसंद किया गया। फिर पंडित जसराज के साथ 1973 की बीरबल माई ब्रदर में गीत गाए फिर आई बंगाली फिल्म तानसेन ,और 1985 की बॉलीवुड फिल्म अनकही जिस के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्वगायक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला और भी कई यादगार गीत है जो उनके चाहने वालों के दिलों के क़रीब हैं ।
संगीत के अलावा,पंडित जी को कारों का भी शौक था और उन्हें ऑटो मैकेनिक्स का भी गहरा ज्ञान था। क़रीब एक साल बीमार रहने के बाद 24 जनवरी 2011 को वो इस संसार को छोड़कर चले गए । उनके जाने के बाद वर्ष 2012 से ,पंडित भीमसेन जोशी लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार महाराष्ट्र सरकार द्वारा शास्त्रीय गायन और वादन के क्षेत्र में लम्बे समय से उत्कृष्ट कार्य करने वाले कलाकार को दिया जाता है। आपकी याद में एक डाक टिकट भारतीय डाक द्वारा हिंदुस्तानी संगीत में उनके योगदान के लिए जारी किया गया, पुरस्कारों की बात करें तो आपको 1972 में पद्म श्री मिला ,1985 में पद्म भूषण ,1998 में संगीत नाटक अकादमी फ़ेलोशिप मिली ,1999 में पद्म विभूषण, 2002 में महाराष्ट्र भूषण ,2005 में कर्नाटक रत्न और 2009 में
भारत रत्न से सम्मानित किया गया । गायकी का ये वो प्रवाह है जो निरंतर संगीत प्रेमियों के मन में बहता रहेगा और शीतलता प्रदान करता रहेगा ।