Shabd Sanchi Special | Padma Shri Poet Dr. Surjit Patar

Padma Shri Poet Dr. Surjit Patar

पंजाब,भारत के उत्तरपश्चिम का ये राज्य अपने साथ रौशनी लेकर आता है.फिर चाहे उसकी अभिव्यक्ति कभी आध्यात्मिक तरीके से उजागर हुई हो,कभी क्रांति के रूप में और कभी इन दोनों को बटोरकर अपनी कविताओं के माध्यम से फूटी और पंजाब के गुरुद्वारों से निकल कर कभी बनारस के घाटों,लखनऊ की मस्जिदों,गोवा के चर्च और हिमांचल की वादियों में घुल गयी.ये पंजाब कभी नानक के दर्शन के रूप में प्रेम का पाठ पढ़ाते हुए रूढ़ियों पर वार करता है,कभी भगत सिंह जैसा नास्तिक होकर भी आस्तिकता का सबसे बड़ा पाठ पढ़ाता है,कभी अमृता प्रीतम के प्रेम का विरह और कभी पाश का विद्रोह और ये सारे नाम अलग अलग समय में पंजाब की मिट्टी में पले बढ़े लेकिन इन सब का सूत्रधार एक था मुक्ति या सत्य। इस पंक्ति में अब एक नाम और जोड़ूँगी-सुरजीत पातर।

कल खबर आयी कि पंजाब के कवि,साहित्यकार,साहित्य अकादमी और पद्म श्री से नवाज़े गए सुरजीत पातर नहीं रहे.उनकी उम्र 79[उन्यासी].वर्ष थी और हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गयी.हाल ही में किसान आंदोलन को लेकर सुरजीत पातर ने अपना पद्म श्री वापस करने का ऐलान भी कर दिया था.पंजाब के बड़े पॉलिटिशियन्स ने उनकी मौत पर दुःख जताया है.स्वाभाविक है ये। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लिखा कि सुरजीत पातर के साथ एक युग का अंत हो गया.और बात सुनने में किसी नेता का स्वाभाविक स्वर लगते हुए नज़रअंदाज़ की जा सकती है लेकिन सिर्फ तब जब आपने इन्हे पढ़ा न हो और विश्वास करें,इसके लिए एक कविता भी काफी होगी।सुरजीत पातर की लेखनी पर आएँगे और विस्तार से उनकी कविताओं और उसके पीछे के भावों की चीर फाड़ भी करेंगे लेकिन उससे पहले कुछ बुनियादी बातें।

इनका जन्म 14 जनवरी साल 1945 में जलंदर के पिंड पीतर कलान में हुआ था.इनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं हवा विच लिखे हर्फ’, ‘हनेरे विच सुलगदी वरनमाला’, ‘पतझड़ दी पाजेब’, ‘लफ्जां दी दरगाह‘ और ‘सुरजमीन’.

अब आते हैं इनकी कविताओं पर.इसके लिए इनकी एक रचना से ही शुरुआत करुँगी।कहते हैं कि

मैं बहुत ग़लत शहर हूँ

मेरे लिए तो बीवी की गलबहियाँ भी कटघरा है

क्लासरूम का लैक्चर-स्टैंड भी

चौराहे की रेलिंग भी

मैं तुम्हारे सवालों का क्या जवाब दूँ

मुझ में से नेहरू भी बोलता है माओ भी

कृष्ण भी बोलता है कामू भी

वॉयस ऑफ़ अमेरिका भी बीबीसी भी

मुझमें से बहुत कुछ बोलता है

नहीं बोलता तो बस मैं नहीं बोलता।

सुरजीत साहब की ये कविता पढ़ कर ऐसा लगता है कि कुछ ऐसा रह जाता है जो उनके विद्रोह को पूरी तरह से बाहर नहीं आने देता।अब ये भीतरी अंतर्द्वंद है या बाहर का भय ये तो वो साथ लेकर चले गए.

इनकी एक और कविता का अंश है

कि,तू ख़ुद तो पानी बने

और उसके सीने में काठ सुलगे

यह तो अच्छा नहीं

मेरे क़रीब आया

एक साफ़ उजला पन्ना

लिखने से डर गया मैं।

इन कविताओं में लुका छिपा सा विद्रोह दिखता है.ऐसा लगता है जैसे अस्तित्व अधर में हो.आदर्शवाद और यथार्थवाद के.ये सुनिए कि

मर रही है मेरी ज़बान

क्यों कि ज़िंदा रहना चाहते हैं

मेरी ज़बान के लोग

ज़िंदा रहना चाहते हैं

मेरी ज़बान के लोग

इस शर्त पे भी

कि ज़बान मरती है तो मर जाए..

कितनी विवशता है इस कविता में और कितना युद्ध लड़ रहे होंगे ये इसको लिखने के पहले,दौरान और शायद बाद में भी.इनकी एक रचना है बुत.उसके कुछ अंश हैं कि

हर एक दुर्घटना व हर प्रीतिमिलन पर

हर एक बदचलनी व हर सच्चरित्र पर

देखकर बिट-बिट

बस मुस्कराएगा

बुत को न आँसू कभी

बुत को न गुस्सा कभी आएगा

अब तो तेरे क़ातिलों को भी तेरे इस बुत पर

बेइंतहा प्यार आएगा

क्योंकि हर झाँकी पर बुत मुस्कराएगा

बुत को न आँसू कभी

बुत को कभी गुस्सा नहीं आएगा।

और ऐसा नहीं था कि ये मात्र एक ही ऑरा,एक ही स्ट्रक्चर पर जीते थे या यूं कहे कि सिर्फ धारा के विपरीत बहते थे.ये इनका चुनाव था.धारा के साथ बहने का भान इन्हे था,ऐसा नहीं था कि श्रृंगार रस कि कविताएं ये नहीं कह सकते थे.पर उससे भी जरुरी इन्हे कुछ और लगा.ये इस तरीके में कुछ पाश से प्रतीत होते हैं.उसके लिए पहले इनकी एक ये कविता सुनिए

वैसे तो मैं भी चंद्रवंशी

सौंदर्यवादी

संध्यामुखी कवि हूँ

वैसे तो मुझे अच्छी लगती है

कमरे की हल्की रोशनी में

उदास पानी की तरह चक्कर लगाते

एल. पी. से आती

यमन कल्याण की धुन

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है

शब्दों और अर्थों की चाबियों से

कभी ब्रह्मांड को बंद करना

कभी खोल देना

क्लास-रूम में बुद्ध की अहिंसा-भावना को

सफ़ेद कपोत की तरह पलोसना

युक्लिप्टस जैसे हुस्नों पर

बादल की तरह रिस-रिस बरसना

वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है

आसमान पे सितारों को जोड़-जोड़कर

तुम्हारा और अपना नाम लिखना

लेकिन जब कभी अचानक,अब यहाँ से सब बदल जाता है,एक फैज़ साहब वाला पुट भी नज़र आता है ऐसे में

लेकिन जब कभी अचानक

बंदूक़ की नली से निकलती आग से

पढ़ने गए हुओं की छाती पर

उनका भविष्य लिखा जाता है

या गहरे बीजे जाते हैं ज्ञान के शर्रे

या सिखाया जाता है ऐसा सबक

कि घर जाकर माँ को सुना भी न सकें

तो मेरा दिल करता है

जंगल में छिपे गुरिल्ले से कहूँ :

ये लो मेरी कविताएँ

जलाकर आग सेंक लो

उस क्षण उसकी बंदूक़ की नली से

निकलती आवाज़ को

ख़ूबसूरत शेर की तरह बार-बार सुनने को जी चाहता है

हिंसा भी इतनी काव्यमय हो सकती है

मैंने कभी सोचा न था

सफ़ेद कपोत लहूलुहान

मेरे उन सफ़ेद पन्नों पर आ गिरता है

जिन पर मैं तुम्हें ख़त लिखने लगा था

ख़त ऐसे भी लिखे जाएँगे

मैंने कभी सोचा न था।

अब पाश की एक कविता है मैं अब विदा लेता हूँ.उसके शुरुआती अंश हैं

मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था
ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था.फिर कविता में आखिर में आता है कि

मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के ख़िलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है

फैज़ कि कविता है मुझ पहले सी मोहब्बत भी इसी सुर में गूंजती है और ये तुलना नहीं।इन कविओं की सत्यता की अभिव्यक्ति का गठजोड़ है

इन सभी कविओं और कविताओं में पता है क्या समानता है?.जिम्मेदारी का बोध.सच बोल कर संघर्ष चुनने या आराम का जीवन जीने के बीच.और ये सब ऐसा बेहद आसानी से कर सकते थे.बस तब शायद इनके पाठक बहुत अधिक और प्रेमी बेहद कम होते।और आज हम ये एपिसोड नहीं कर रहे होते।

सुरजीत साहब की कविताएं उपनिषद,बुद्ध,नानक,कृष्ण,कामू सबकी बात करती हैं.आप चाह कर भी इनको किसी ढांचे या वाद में फिट नहीं कर पाएंगे।और ये भी है कि इन सब संकुचित और स्वार्थी चालबाजियों को छोड़ कर साफ़ ह्रदय और खुली चेतना से जब तक नहीं पढ़ेंगे इनकी कविताएं महज आपको कोई अतुकांत और बेढंगी सी बात लग सकती है.जिसपर हंसकर आप खुद को कूल बोल सकते हैं.अहंकार को संतुष्टि मिलेगी।बाकी जो समझने योग्य हैं उनके लिए सुरजीत साहब कह गए कि

आजकल कहता फिरता हूँ :

सही दुश्मन की तलाश करो

हरेक आलमगीर औरंगज़ेब नहीं होता

जंगल सूख रहे हैं

बाँसुरी पर मल्हार बजाओ

प्रेत बंदूक़ों से नहीं मरते

मेरी हर एक कविता प्रेतों को मारने का मंत्र हैं

मसलन वह भी

जिसमें मुहब्बत कहती है :

मैं दुर्घटनाग्रस्त गाड़ी का अगला स्टेशन हूँ

मैं रेगिस्तान पर बना पुल हूँ

मैं मर चुके बच्चों की तोतली हथेली पर

उम्र की लंबी रेखा हूँ

मैं मर चुकी औरत की रिकार्ड की हुई

हँसी भरी आवाज़ हूँ :

हम कल मिलेंगे।

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