Site icon SHABD SANCHI

EPISODE 68: पद्मश्री बाबूलाल दाहिया के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरण एवं बर्तन

Padma Shri Babulal Dahiya

Padma Shri Babulal Dahiya

कल हमने पानदान ,पीकदान, झांझ – मंजीरा आदि बर्तनों एवं वस्तुओं के सम्बंध में जानकारी दी थी। आज उसी श्रंखला में कुछ अन्य वस्तुओं की जानकारी दे रहे हैं।

घण्टी


यूं तो मंदिर में धातुओं के बड़े – बड़े घण्टे होते हैं जिनके बजने पर दूर -दूर तक आवाज जाती है। पर यह कांसे की घण्टी उनका लघु संस्करण है जो हमारे कृषि आश्रित समाज में बैलों के गले में बांधी जाती थी। प्राचीन समय में जब ट्रैक्टर नही थे तो कार्तिक अगहन के दिन छोटे होने के कारण 7 बजे रात्रि तक तो खेतों में जुताई -बुबाई होती और फिर 2 घण्टे बैलों को पहट चराया जाता।पर वह अंधेरी रात्रि में कहीं दूर न चले जाँय अस्तु गले में घण्टी बांध दी जाती। इन्हें बांध देने से एक तो अंधेरे में उनकी टोह मिलती रहती थी और दूसरी ओर बैलों की खूब सूरती भी बढ़ जाती थी। इसलिए धातु शिल्पी इन्हें बनाकर अपने दुकानों में सजाकर रखते थे।घण्टी की तरह ही पीतल के गलगले भी बनते थे जो चमड़े के पट्टे में गूथ कर बैलों के गले में बांधे जाते थे।
पर अबतो अगर गाँव में एक भी ट्रैक्टर आया तो वह 10 जोड़ी बैलों को घर से निकाल बाहर कर देता है। ऐसी स्थिति में घण्टी और गलगला का चलन से बाहर होता स्वाभाविक है।

गलगला


गलगला पीतल के बने होते थे जिन्हें चर्म पट्टिका में गूथ कर बैलों के गले में बांधा जाता था। इधर उधर चार – चार गलगला होते और बीच में एक छोटी सी घण्टी जिनसे बड़ी मधुर आवाज निकलती थी।
यह अक्सर बैल गाड़ी में जुते बैलों के गले में बांधे जाते थे जो बैलों के सुन्दरता और किसान की सम्पन्नता के प्रतीक भी माने जाते थे। गलगला घुघरू की आकृति के होते थे पर आकर में उससे बहुत बड़े। आज जब घर से बैल ही बाहर हो गए तो गलगला का किसी पुरानी कोठरी के खूटी में स्थान पाना स्वाभाविक है।


झूमड़

यह तांबा एवं पीतल के मिश्रित धातु का बनता है जो जंगल में चरने वाली भैंस के समूह में किसी प्रमुख भैंस के गले में बांध दिया जाता है। इसके बांध देने से घन – घन की आवाज से चरवाहों को भैंसों के समूह की टोह मिलती रहती है कि वह कहां चर रही हैं तो चरवाहों को उन्हें ढूढने में परेशानी नही होती।

घुघरू


हमारे प्रचीन कृषि आश्रित समाज में गांव के शिल्पी य कृषि श्रमिक दिनभर श्रम करते तो रात्रि में एकाध घण्टे उनके मनोरंजन का समय भी होता जिनमें नृत्य संगीत आदि भी शामिल थे। उस नृत्य में पुरुष भी महिलाओं के वस्त्र पहन घुघरू बांध नृत्य करते।


विवाह के समय तो महिलाएं भी उस नृत्य गीत में शामिल होतीं। ऐसे नृत्य में किसी लोक वाद्य के साथ पैर संचालन में घुघरू की महत्वपूर्ण भूमिका होती । पर न तो अब कोई लोकगीत बचे न लोकनृत्य ही। ऐसी स्थिति में कृषि आश्रित समाज में घुघरू अब संग्रहालय की वस्तु ही वन कर रह गई हैं। परन्तु शास्त्रीय नृत्य संगीत में उसका आज भी महत्वपूर्ण स्थान है।

आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे नई जानकारी के साथ।

Exit mobile version