कल हमने कृषि आश्रित समाज के उपयोग में लेजाने वाली धातु शिल्पियों की घण्टी,गलगला, घुघरू आदि वस्तुओं की जानकारी दी थी।आज उसी क्रम में बंचे खुचे अन्य उपकरणों की जानकारी भी प्रस्तुत कर रहे हैं । इसके पश्चात लगभग 70 दिनों से चलने वाला यह धारावाहिक का समाहार हो जाएगा।
इत्र दान
इत्रदान हमारे कृषि आश्रित समाज का पात्र नही है। फिर भी सम्पन्न परिवारों में 60 के दशक में वह प्रचलन में था। परन्तु अब उसी के तरह के स्टील के इत्रदान आ गये हैं अस्तु पुराने चलन से बाहर हैं।
चुनहाई
प्राचीन समय में जब लोग खैर सुपाड़ी खाने के लिए थैली रखते थे तो चूँन तम्बाकू के लिए भी एक जरूरी वस्तु हुआ करती थी। वह थी चुनहाई जिसे धातु शिल्पी गोंठ कर बड़ी ही खूब सूरत बनाते थे। इसमें एक तरफ चूँन निकालने के लिए पतली जंजीर में जुड़ी एक सीक भी रहती जिसका किनारा चपटा सा होता था। पर अब यह चलन से बाहर है।
चून तम्बाकू की डबिया
यह दो खण्ड में लम्बवत पीतल की एक डबिया होती है जिसमें एक खण्ड में चून और दूसरे खण्ड में तम्बाकू रखी जाती है। यह उनके लिए उपयुक्त थी जो मात्र चून तम्बाकू खाते हैं। चलन में अब भी है पर कमी के साथ। क्योकि इसके स्थान में बाजार में पुड़िया में बन्द एक गुटका आ गया है।
फूल की करई
हमारे कृषि आश्रित समाज में बहुत सारी जातियां निवास करती थीं जिनमें कुछ में दारू पीने को सामाजिक मान्यता मिली हुई थी। हो सकता है वह प्राचीन समय में अक्सर हर वर्ष आनेवाली हैजा नामक बीमारी के कारण रहा हो? क्योकि दारू उसकी सर्व सुलभ मुफीत औषधि मानी जाती थी। कुछ सम्पन्न कृषक भी दारू का सेवन करते थे अस्तु धातु शिल्पियों ने उनके लिए दारू पीने का एक उसी प्रकार का बर्तन ही तैयार कर दिया था जैसे मिट्टी शिल्पियों एक कुल्हड़ नुमा बर्तन था जिसे करई कहा जाता था।
पर ऐसा लगता है कि यह उन्ही की मिट्टी की करई की एक धातु अनुकृति है।
सेमईँ बरने का कर
शुरू- शुरू में सेमईँ हाथ से बर कर बनाई और पकाकर खाई जाती थी।पर 60 के दशक में धातु शिल्पियों ने एक ऐसा यन्त्र नुमा उपकरण बना दिया था जिसमें माड़ा हुआ आटा डाल और उसमें लगी मूठ को घुमाकर एक घण्टे में ही बहुत सारी सेमईँ बरी जा सकती थीं। इसे लोग ( सेमईँ बनाने का कर) कहा करते थे।
गुझिया बनाने का साँचा
गुझिया बनाने का धातु शिल्पियों द्वारा निर्मित एक साँचा भी होता है। इसकी बनावट गुझिया की तरह और उसी के बराबर होती है जिसमें आटा और उसका मसाला डाल गुझिया बनाई जा सकती है। यह अभी भी प्रचलन में है।
तावे का दान पत्र
प्राचीन समय में जब कागज का इस तरह प्रचलन नही था और कोई राजे महाराजे यदि ब्राम्हणों को भूमि दान देते थे तो उस दान का उल्लेख तांबे के एक पात्र में होता था। उसमें महाभारत के एक श्लोक का उल्लेख रहता था
जिसमें भीष्म पितामहः युधिष्ठिर से कहते हैं कि
” हे युधिष्ठिर जो राजा बाम्हणों को भूमिदान देता है तो वह 10 हजार वर्ष तक स्वर्ग में बास करते है। पर जो राजा ब्राम्हणों को दान की गई भूमि उनसे छीन लेता है वह उतने ही वर्ष नर्क में बास करता है।”
परन्तु मजे की बात यह है कि पुरातत्व में संग्रहीत वह सभी ताम्र पत्र हमारे विन्ध्य क्षेत्र के उंचेहरा नगर के बने हुए ही होते थे जिनमें उचेहरा का प्राचीन नाम उच्चकल्प भी उत्कीर्ण रहता था।
पर यह यदा कदा मात्र उन ब्राम्हणों के वंशजों के पास ही संरक्षित हो सकते हैं जिन्हें भूमि का दान मिला था।
आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे ।