Pachpan khambhe laal deewarein: उषा प्रियंवदा की गणना हिंदी के उन कथाकारों में होती है जिन्होंने आधुनिक जीवन की ऊब, छटपटाहट, संत्रास और अकेलेपन की स्थिति को अनुभूति के स्तर पर पहचाना और व्यक्त किया है। यही कारण है उनकी रचनाओं में एक ओर आधुनिकता का प्रबल स्वर मिलता है तो दूसरी ओर उनमें चित्रित प्रसंगों तथा संवेदनाओं के साथ हर वर्ग का पाठक तादात्म्य का अनुभव करता है। यहाँ तक की पुराने संस्कार और ख्याल वाले पाठक को भी किसी अटपटेपन का एहसास नहीं होता है।
पचपन खम्भे लाल दीवारें उषा प्रियंवदा का पहला उपन्यास है, जिसमें एक भारतीय नारी की सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक स्थिति से जन्मी मानसिक यंत्रणाओं और घुटन का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है। इस उपन्यास की नायिका है सुषमा जो दिल्ली के एक महिला कॉलेज में इतिहास की प्राध्यापक है और अपनी योग्यताओं के कारण वह कॉलेज छात्रावास की वार्डन भी बन जाती है। मूलतः वह कानपुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार से संबंध रखती है और परिवार के आय का एकमात्र आधार है। वह अपने परिवार की पूरी जिम्मेदारियां भी संभाल रही है। उसके परिवार में उसके पिता, माँ , दो बहनें और एक भाई भी है। उसके परिवार का हर कोई व्यक्ति उससे आर्थिक लाभ व फायदा उठाना चाहता है, यहाँ तक कि उसकी माँ भी, वह सुषमा पर आर्थिक बोझ डालकर सुषमा की छोटी बहन नीरू की शादी भी करवाना चाहती है। लेकिन भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के बाद भी वह सुषमा के विवाह की बात तक नहीं करती है।
सुषमा के अंदर सूनेपन की एक टीस तो है, वह विवाह करके अपना घर-संसार भी बसाना चाहती है, पर सामाजिक और पारिवारिक बंधनों में बंधी सुषमा अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त नहीं कर पाती है और उसका परिवार उसे समझ भी नहीं पा रहा है। फिर उसके जिंदगी में नील आता है जो दिल्ली में ही एक कपंनी में कार्यरत होता है। और उम्र में उससे छोटा भी होता है, इसीलिए शायद उसको पसंद करने के बावजूद भी, घर की जिम्मेदारियों, सामाजिक और नैतिक बंधनों की वजह से सुषमा अपनी खुशियों को नजरअंदाज़ करते हुए उससे दूर ही रहती है। लेकिन नील की लगातार प्रयासों के कारण वह अपनी भावनाओं और एहसास को छुपा नहीं पाती है और वह नील के आगे समर्पण भी कर देती है।
“इधर कुछ दिनों से सुषमा में जो परिवर्तन देखा था, उस पर उसे कोई विश्वास नहीं होता था। पहले अपने बंधनों में छटपटाती, अपने जीवन की एकरसता से उकताई सुषमा की आँखों में अब तारे बस गए थे। अपने नित्यप्रति के काम निबटाते हुए मुख पर आत्मविभोरता रहती थी। अपने में उसके ह्रदय में जैसे एक अलग झरना फुट पड़ा था, जिसके जल से वह सदा सिंचित रहती थी। स्टॉफरूम में भी अगर वह कभी आती तो कम बोलती, उसके होंठ किसी गुप्त हास्य से मुस्कराया करते।
उस समय जब सुषमा खुद को अपने और अपने खुशियों को लिए तैयार कर ही रही होती है कि उसकी माँ और परिवारवाले उसे घर, समाज, परिवार की जिम्मेदारियों जैसी बातें करके उसे भावनात्मक रूप से कमजोर देते हैं और वह नील से अपने रिश्ते को आगे बढ़ने को लेकर, उसके मन में फिर से मानसिक द्वन्द चलने लगता है। उसका परिवार जहाँ उसे भावनात्मक रूप से कमजोर रहा है। वहीं उसके कॉलेज का स्टाफ और छात्राएं भी उसके चरित्र पर सवाल उठाने लगती हैं। सुषमा चारों तरफ से घिरी है, और उसके मन में एक अंतर्द्वंद चल रहा है। उसकी मनोव्यथा को नील, उसकी सहेली मीनाक्षी और उसकी नौकरानी भौंरी के अतिरिक्त कोई समझ नहीं पा रहा है। और अंततः वह नील से विवाह न करने का फैसला करती है। वह अपनी जिम्मेदारियों और अपने परिवार को वरीयता देती है। नील भी सुषमा की तरफ से निराश होकर विदेश जाने का फैसला कर लेता है। कॉलेज कैंपस और हॉस्टल के पचपन खंभे और उनकी लाल रंग से पुती हुईं दीवारें ही अब उसका जीवन है, यह उन परिस्थितियों के प्रतीक हैं जिसमें रहकर सुषमा को ऊब तथा घुटन का तीखा एहसास तो होता है, लेकिन वह उनसे मुक्त नहीं हो पाती है या शायद होना ही नहीं चाहती है। पचपन खंभे और उसकी लाल दीवारें उसकी परिस्थिति हैं, पर वह अपनी परिस्थिति को ही अपनी नियति मान लेती है। हमारे आज के आधुनिक जीवन की यही विडंबना है, हम जो नहीं चाहते हैं विवशतावश हम वही करते हैं। लेखिका ने उपन्यास में इस स्थिति को बड़े कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। लगभग नील को खो चुकी सुषमा को बार-बार नील का ही ख्याल आता है। अपनी जिम्मेदारियों में बँधकर वह नील को इंकार तो कर देती है, पर नील को भूल नहीं पा रही है।
“सुषमा को लगा नील आकर उसके सिरहाने पर खड़ा हो गया है, फिर उसने झुककर, धीरे से उसके बाल छुए हैं। सुषमा चौंककर उठ बैठी चारों तरफ गुप अंधेरा था। उसने काँपते हुए कंठ से पुकारा- “नील”!
बरामदे में सोई हुई भौरीं खाँसी, सुषमा ने पाया वह अपने चारपाई पर उठकर बैठी हुई है और नील कहीं नहीं है। सब ओर सन्नाटा है, भयावह अकेला सन्नाटा। वह अकुलाकर खड़ी हुई और उसने खिड़की पूरी खोल दी। बाहर से प्रकाश की एक फाँक आकर उसके पैरों में लोटने लगी और सुषमा छड़ों का ठंडा स्पर्श अनुभव करती हुई, अनझिप आँखों से बाहर ताकने लगी। रात्रि के वह मौन स्वर उसके चारों ओर मंडरा रहे थे। टहनियों और पत्तों का मन्द स्वर में वार्तालाप, दूर बजते रात के घंटे, चौंककर जागे किसी पक्षी का आर्त्त चीत्कार ! सुषमा को लगा उसके प्राणों और रात की आत्मा में घना साम्य है। वैसे ही कुछ मद्धिम स्वरों की प्रतिध्वनियां गूँजती हैं, मन में कुछ करवट लेता और चुप हो जाता है, ऐसी ही अभेद्य और सर्वग्रासी अन्धकार जीवन में सिमटता आता है।”
लेकिन इस उपन्यास की सबसे खूबसूरत बात है सुषमा के किरदार की स्थिरता। जीवन में तमाम कठिनाइयों और संघर्षों के बाद भी सुषमा में आत्मविश्वास की कोई कमी नहीं होती है, वह हर परिस्थियों का सामना करती है। वह जानती है नील के बाद उसके जीवन में एक बहुत घोर निराशा और सूनापन घर कर जाएगा, लेकिन वह आने वाली जीवन की हर स्थिति और परिस्थिति को वह स्वीकार करने को सहज ही तैयार है। ऊषा प्रियंवदा के उपन्यास ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ को पढ़ते हुए एक उदासीभरा अकेलापन महसूस होता है। छटपटाहट होती है, सामजिक बंधनों के लिए। इस उपन्यास की नायिका सुषमा चाह कर भी उन सामजिक दायरों के बंधन से मुक्त नहीं हो पाती है। उसकी जिंदगी में त्रासदी है, और वह अपने जिंदगी की त्रासदियों को ही अपनी किस्मत मान लेती है।
“कुछ स्मृतियाँ, कुछ स्वप्न, कुछ अस्पुष्ट शब्द श्रमरत छात्र की तरह सुषमा बार-बार उन पृष्ठों को दोहराती है। उन संवेगों की दहलीज में खड़ी होकर अतीत में झांकती है, मन की संकुल गलियों में भटका करती है- हर वाक्य, हर मुद्रा और प्रत्येक स्पर्श के अनेकों संदेशों पर रुकती हुई, ठहरती हुई। और उस समय इस संसार की सीमाएँ दूर-दूर तक हटती जाती हैं और वह अकेली रह जाती है-अपने में सम्पृक्त।”