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हमारे सप्त ग्रामीण शोधकर्ता ऋषि एवं उनकी अनुसन्धान की वस्तुएं: बाबूलाल दाहिया

Traditional Farming, Farming Tips: जब हम राजस्थान या किन्ही अन्य राजाओं के प्राचीन किले या फिर उनके म्यूजियम को देखने जाते हैं तो वहां उनके ढाल,तलवार,भाला बरछी आदि सभी अस्त्र शस्त्र देखने को मिलते हैं।

आज जब बड़े -बड़े टैंक मशीनगन,मिसाइल आदि आधुनिक मारक अस्त्र बन गए हैं तो भला इन ढाल तलवारों की क्या आवश्कता? पर हम कहते हैं कि आवश्यकता है क्योकि वो उन राजाओं के अतीत और बहादुरी का बखान कर रहे हैं जो इन अस्त्रों को चलाकर युद्धों में विजय प्राप्त करते थे।

70 के दशक में हरित क्रांति आने और उससे कृषि की पद्धति बदल जाने के कारण हमारी परम्परागत खेती के भी सैकड़ों उपकरण चलन से बाहर हो गए हैं। क्योकि अगर घर से एक हल भी निकल जाता है तो उसके साथ, जुआं, ढोलिया ओइरा बांसा, हरइली डेंगर खरिया, मुस्का, गड़ाइन आदि अनेक छोटे -बड़े उपकरण भी चलन से बाहर हो जाते हैं।

मनुष्य का स्वभाव रहा है कि विकास के रास्ते पर वो जब आगे बढ़ जाता है तो फिर पीछे नहीं लौटता। उसके इसी आगे बढ़ने की प्रवृत्ति का शिकार हमारे बघेल खण्ड की अनेक दैनिक उपयोग की वस्तुएं एवं बर्तन भी हुए हैं जिनमें सब मिलाकर लगभग दो तीन सौ ऐसी चीजें या उपकरण हैं जो आज चलन से बाहर हैं।

यह जितने उपकरण या वस्तुएं हैं वह किसी फैक्ट्री के बने नहीं बल्कि हमारे गांव में ही निवास करने वाले अपढ़ व देशज इंजीनियरों के बनाए हुए हैं जिनके हाथ में प्राचीन समय में समस्त गांव के विकास की धुरी ही हुआ करती थी।

हमारे ग्रामों में उस समय एक मुहावरा नुमा वाक्य होता था (शतीहों जाति ) जिसका आशय यह था कि जिस गाँव में यह सात उद्दमी जातियां निवास करतीं थीं वो गांव आत्म निर्भर गांव माना जाता था। क्योकि तब वहां बाहर से मात्र नमक और कच्चा लोहा ही आता था।

बांकी सभी जरूरत की वस्तुएं गांव में खुद ही तैयार हो जाती थीं और वो शिल्पी जातियां थीं लोहार, बढ़ई, तेली, कुम्हार, बुनकर, चर्मकार, वंशकार, नाई, धोबी , इनमें से कुछ अपनी निर्मित वस्तुएं हमें देते थे तो कुछ अपनी सेवाएं। पर ये लोक विद्याधर अपने यंत्र और उपकरण बनाने का प्रशिक्षण लेने किसी संस्थान में नही जाते थे बल्कि अपने यंत्रों एवं उससे निर्मित वस्तुओं की परिकल्पा स्वयं करते थे।

उदाहरण के लिए यदि किसी मिट्टी शिल्पी ,कुम्हार ने अपना चाक बनाया तो मनुष्य के लिए उपयोगी बर्तन मटकी,मटका, नाद,दोहनी, डबुला से लेकर दिया चुकड़ी आदि 30-35 प्रकार के बर्तनों की परिकल्पना भी उसने खुद ही की। इनमें एक और लोकविद्याधर है ,वो है (पत्थर शिल्पी) जो स्वतन्त्र रूप से अपने बर्तन य वस्तुए बनाकर बेंचता था।

हमने अपने अथक प्रयासों से अब तक चलन से बाहर हो चुकी विभिन्न शिल्पियों की ऐसी 250 से अधिक वस्तुए संकलित कर उनको अपने संग्रहालय में स्थान दिया है। आज तो मात्र भूमिका ही है पर कल से हम अपने संग्रहालय में संग्रहित उन सभी उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी क्रमशः चित्र सहित धारा वाहिक के रूप से प्रस्तुत करेंगे।

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