तम्बाकू एड वाले मुकेश की मौत के बाद भी कुछ नहीं बदला

Mukesh Harane In Real Life


Mukesh Harane In Real Life: मेरा नाम मुकेश है। मैंने एक साल गुटखा चबाया। अब मुंह का कैंसर हो गया है। ऑपरेशन होना है। उसके इतना कहते ही स्क्रीन से मुकेश हराने का चेहरा गायब होता है और वॉयस ओवर के जरिए एंकर बताता है कि मुकेश अब इस दुनिया में नहीं रहा। उसकी मौत की तारीख दर्ज होती है -27 अक्टूबर, 2009। फिर स्क्रीन पर आता है – मनुष्य के स्पंज समान फेफड़े हवा सोखने के लिए बने हैं। लेकिन कुछ लोग इसे सिगरेट बीड़ी का धुंआ सोखने के लिए इस्तेमाल करते हैं। एक आम धूम्रपान करने वाले व्यक्ति के फेफड़े को देखें तो इतनी मात्रा में साल भर में कैंसर पैदा करने वाला टार मिलेगा। ये आपको बीमार, बहुत बीमार करने के लिए काफी है। आपने भी ये दोनों विज्ञापन देखे होंगे। पर नतीजा क्या है? मुकेश हराने की मौत के साल लगभग 9 लाख लोगों की मौत तंबाकू खाने से हुई थी जो 2023 में बढ़ कर 13 लाख 50 हजार हो गई। आप जानना चाहेंगे इस बीच सरकार ने क्या किया तो सुनिए, पहले सिगरेट के डब्बे के 40 प्रतिशत हिस्से में स्वास्थ्य से जुड़ी चेतावनी होती थी। 15 अक्टूबर, 2014 से ये दायरा बढ़ाकर 80 प्रतिशत कर दिया गया। एक सितंबर, 2018 से ए

क और सूचना जोड़ी गई। अब तंबाकू प्रोडक्टस पर लत छोड़ने के लिए हेल्पलाइन नंबर दे दिया गया। ताजा बदलाव वर्ष 2022 में आया। अब और कड़ी चेतावनी फोटो सहित लिखी जाएगी। बड़े अक्षरों में लिखा होगा – तंबाकू सेवन यानी अकाल मृत्यु। अभी तक – तंबाकू यानी दर्दनाक मौत – लिखा जाता रहा है। दिसंबर 2022 से अकाल मृत्युं लिखा जाने लगा.

अब ये मेरी समझ से परे है। तंबाकू यानी दर्दनाक मौत से क्या तंबाकू सेवन करने वाले कम डर रहे थे जो अकाल मृत्यु के भय से सिगरेट या गुटखा बंद कर देंगे। जब सड़ा हुआ गाल, मुकेश का हाल और टपकता टार साल दर साल मौतों की बढ़ती रफ्तार पर रोक नहीं लगा पाया तो चेतावनी में संशोधन से आखिर हो जाएगा। एक दिलचस्प आंकड़ा शेयर करता हूं। 2018 में नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लायड इकॉनमिक रिसर्च ने बताया कि स्मोकिंग करने वाले 46 प्रतिशत अशिक्षित हैं और 16 परसेंट कॉलेज स्टूडेंट्स। आप खुद सोचिये। जो निरक्षर है उसे किसी भी फॉन्ट की चेतावनी से क्या फर्क पड़ता है? और जो कॉलेज जाने वाले युवा हैं वो पढ़ने और फोटो देखने के बावजूद डर नहीं रहे। फिर सरकार के इन तरीकों से क्या फर्क पड़ने वाला है। फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म में मुकेश और स्पंज का विज्ञापन नहीं दिखाने की धमकी दी थी। उनकी धमकी से ज्यादा अहम उनका बयान था – फिल्म मेकर होने के नाते समाज की बुराइयां खत्म करने की जिम्मेदारी मैं नहीं लूंगा। एक ओर सरकार तंबाकू कंपनियों से रेवन्यू कमाती है और दूसरी तरफ हमें लोगों को शिक्षित करने के लिए कहा जा रहा है। सरकार ये दोनों काम एक साथ नहीं कर सकती। बात में तो दम अब भी है।

अब तो आप जानना चाह रहे होंगे कि सरकार तंबाकू इंडस्ट्री से कितना कमाती है। संसद के शीतकालीन सत्र में वित्त मंत्रालय ने इसकी जानकारी दी। 2018-19 में तंबाकू पर लगने वाले केंद्रीय उत्पाद कर से 1234 करोड़, 2019-20 में 1610 करोड़ और 2020-21 में 4962 करोड़ रुपए बतौर टैक्स मिला। अब चौंकने के लिए तैयार रहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सिफारिशों के मुताबिक तंबाकू के सभी उत्पादों के रीटेल प्राइस का 75 प्रतिशत टैक्स होना चाहिए। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। सिगरेट के एक पैकेट के दाम में टैक्स सिर्फ 52.7 परसेंट है। बीड़ी पर तो महज 22 परसेंट है। गुटखे पर 63.8 परसेंट। कुछ जानकारों के मुताबिक गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स यानी जीएसटी आने के बाद तंबाकू उद्योग की बल्ले-बल्ले हो गई है क्योंकि इस पर टैक्स का दायरा बढ़ नहीं रहा है।

WHO के मुताबिक अगर तंबाकू सेवन रोकना है तो टैक्स बढ़ाना एक मजबूत उपाय है। इससे होगा ये कि जिन्हें लत नहीं लगी है वो सौ बार सोचेंगे। जिनकी जेब ज्यादा ढीली हो रही, वो सेवन कम करेंगे। भारत तंबाकू सेवन के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर है। 28 करोड़ लोग इसका सेवन करते हैं और 13 लाख हर साल काल के गाल में समा जाते हैं। भारत में कैंसर के सभी रोगियों में 27 परसेंट तंबाकू वाले हैं। पूरी दुनिया में साल भर में तंबाकू के सेवन से 80 लाख लोगों की मौत होती है।

यही नहीं, सरकार जो फैसले करती है उसका पालन भी तो नहीं हो रहा। कागज पर बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में गुटखा पर प्रतिबंध है। लेकिन है क्या? बिल्कुल नहीं। आप ब्रांड बताएं और गुमटी वाला आराम से पैकेट निकाल कर थमाएगा। यानी सेल बदस्तूर जारी है। जबकि बेचने वाले, खरीदने वाले और सरकार, सबको पता है कि पान-गुटखा खाने से कैंसर का खतरा आठगुना बढ़ जाता है।

गांवों में बीड़ी का चलन कितना है , ये आपको पता है। सरकार को भी पता है। लेकिन बीड़ी पर टैक्स सबसे कम है। टीबी जैसी बीमारियों के डर से इसकी बिक्री घटी लेकिन सरकार के प्रयास से नहीं। बीड़ी पीने वाले सिगरेट पीने लगे। इसके कारण 1998 से 2015 के बीच सिगरेट पीने वाले पुरुषों की संख्या डबल हो गई। मतलब साफ है कि पैकेट पर कैंसर दिखाने से लत की बीमारी दूर नहीं हो सकती। स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक 2011 में तंबाकू से हुई बीमारियों पर 1450 करोड़ रुपए खर्च हुए। अब अगर इसकी तुलना 2021 में तंबाकू से सरकारी कमाई की करें तो लगभग 5000 करोड़ की आमदनी हुई। आप ही समझिए ये कैसा गणित है। सरकार को हो रही कमाई से तीन गुना ज्यादा लोगों के इलाज पर खर्च हो रहा है। 2017 के आंकड़ों के मुताबिक बीड़ी का सालाना इकॉनमिक कॉस्ट जीडीपी के 0.5 परसेंट के बराबर है। जब एक्साइज टैक्स इस 0.5 परसेंट का 0.5 परसेंट था।

अब सवाल उठता है कि सरकार को क्या करना चाहिए? जैसे बिहार और गुजरात ने शराब पर प्रतिबंध लगा दिया वैसे ही तंबाकू प्रोडक्ट्स पर लगा दिया जाए। ये रास्ता ठीक नहीं है। क्योंकि बिहार की तरह इससे तस्करी बढ़ेगी। और घटिया माल लोगों तक पहुंचेगा और डेथ रेट बढ़ जाएगी। इसके साथ-साथ हमें देखना होगा कि क्या सारे तंबाकू प्रोडक्टस की बिक्री जारी रखी जाए? जवाब है नहीं। गुटखे पर पूरे देश में प्रतिबंध लगना चाहिए। साथ ही जर्दे के इस्तेमाल का मानक तय करना चाहिए। सीनियर डॉक्टरों की कमेटी इस पर सुझाव दे सकती है। अगर फिल्म चलने से पहले मुकेश हराने और टार वाला विज्ञापन आपके मन को खट्टा करता है तो बच्चों के साथ टीवी देखते समय जुबां केसरी से भी आपका मन खट्टा होना चाहिए। कम से कम सरकार ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगाने में सक्षम है। और आखिर में अलावा तंबाकू लॉबी पर लगाम कसने की जरूरत है जो नेताओं की जेबें भरने का काम करती हैं।

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