Story Of Nitish Kumar in Hindi: लगातार दो चुनाव हार चुके नीतीश कुमार राजनीति छोड़ रेलवे में ठेकेदारी करने का पूरा मन बना चुके थे, लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि नीतीश कुमार ने राजनीति को ही अपना भविष्य मान लिया, और इससे भी बड़ा सवाल उनका राजनीति में आना कैसे हुआ? साल था 1973 नीतीश कुमार अपनी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पास करते हैं. पढ़ाई खत्म होती है उनके घर वाले उनकी शादी कर देते हैं, शादी की अगली सुबह नीतीश कुमार अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ पटना से बख्तियारपुर के लिए रवाना हुए, गाड़ी को चला रहे थे उनके स्वजाति उनके पारिवारिक मित्र भोला प्रसाद कितनी दिलचस्प बात है ना कि इन्हीं भोला प्रसाद ने नीतीश कुमार को उनके पहले चुनाव 1977 में हराया था जी हां नीतीश कुमार के राजनीतिक कैरियर का यह पहला चुनाव था जिसे वह हार गए थे
Mukhymantri Nitish Kumar: पटना से करीब 100 किलोमीटर नालंदा जिले के एक छोटे से गांव कल्याण बीघा में नितीश कुमार का जन्म हुआ था. जो आज की भारतीय राजनीति में अबूझ पहेली बन चुके हैं. इंडिया हो या एनडीए नीतीश कुमार को अपने पाले में हर कोई जोड़ना चाहता हैं. नीतीश कुमार की उस पहेली को सुलझाने और थोड़ा सरल करने के लिए उनके गांव चलना होगा। तो आइए चलते हैं. साल था 1929 में देश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अगुवाई में एक हो चुका था महात्मा गांधी ने साइमन कमीशन की हुंकार भरी थी, बापू के एक इशारे से देश का हर गांव, हर कस्बा बापू के पदचिन्हो में चलने का मन बना लिया था. इसी कालखंड में पटना के कदम कुआं में स्थित राज्यकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय में कल्याण बीघा से आया एक नौजवान छात्र पूरे मन से आयुर्वेद की शिक्षा ले रहा था. उस युवक का नाम था रामलखन देश के हजारों लाखों नौजवानों की तरह राम लखन ने भी खुद को गांधी के आंदोलन से जोड़ लिया था. साइमन कमीशन के विरोध में इस नौजवान को सड़कों में आने की वजह से राजकीय आयुर्वैदिक महाविद्यालय ने छात्र को परीक्षा में नहीं बैठने दिया और अंत में उन्हें महाविद्यालय से निकाल दिया.
महाविद्यालय के फैसले से नाराज रामलखन ने कानून का सहारा लिया और महाविद्यालय को राम लखन के ऊपर लगाए गए प्रतिबंध को हटाना पड़ा, वास्तव में यह बड़ी बात थी क्योंकि उस समय शासन अंग्रेजों का था और अदालत भी उनकी और वकील भी उनके लेकिन इस दौरान रामलखन जो वैद बनाने आया था नेता तो बानी गया था.
अंग्रेजों से काफी मसकत और लड़ाई के बाद देश आजाद हुआ देश लोकतांत्रिक प्रणाली से चलने लगा 1952 में पहली बार चुनाव होने थे. अपने गांव क्षेत्र से गांधीवादी और आदर्शवादी छवि बना चुके राम लखन को उम्मीद थी कि पार्टी उन्हें टिकट देगी ही लेकिन, 1952 के चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं देकर लाल बहादुर की बहन सुंदरी देवी को दिया राम लखन नाराज हुए, पार्टी ने उनसे वादा किया कि आप अभी पार्टी उम्मीदवार का प्रचार प्रसार करें आपको एमएलसी बनाया जाएगा चुनाव हुआ सुंदरी देवी चुनाव जीत गई और राम लखन से पार्टी ने किया अपना वादा भूल गई, साल आया 1957 का यह आजाद भारत का दूसरा चुनाव था. गांधीवादी राम लखन सिंह को उम्मीद थी इस बार पार्टी मुझे अपना उम्मीदवार अवश्य बनाएगी लेकिन ऐसा एक बार फिर नहीं हुआ, लिहाजा गांधीवादी नेता राम लखन सिंह बगावत का बिल्कुल फूंक दिए और इंडिपेंडेंट चुनावी रण में कूद पड़े.
हालांकि, उन्हें चुनाव में हार का सामना करना पड़ा इतिहास की माने तो उनकी वजह से कांग्रेस उम्मीदवार और लाल बहादुर की बहन भी चुनाव हार गई इस चुनाव में हार के बाद राम लखन सक्रीय राजनीति से दूरी बना ली और गांव में जाकर आयुर्वेदिक दवाओं की पुड़िया लोगों को बाटने लग गए इन्हीं राम लखन के दूसरे बेटे हैं नीतीश कुमार, नितीश कुमार का जन्म 1951 में हुआ था नीतीश को घर में मुन्ना नाम से पुकारा जाता है. हालांकि, भारत में जन्मे हर दूसरे-तीसरे बच्चे को घर में मुन्ना बुलाया जाता है बड़ा कॉमन सा नाम है आप समझ तो पा रहे हैं ना कि हम नीतीश कुमार की बात ना करके उनके बाबूजी पर क्यों बात कर रहे हैं, पिछले कुछ सालों में नीतीश कुमार पाला बदलते रहे हैं इस दौरान वह UPA में भी गए लेकिन, वह UPA में उतना सहज महसूस नहीं करते जितना NDA में करते हैं. यही वजह हो सकती है UPA में जाते तो हैं लेकिन खुद को उतना सहज महसूस नहीं करते जितना बिहार के बांकी के नेता कांग्रेस में करते हैं.
अपनी स्कूल की शिक्षा खत्म करने के बाद नीतीश कुमार बख्तियारपुर से निकलने का रास्ता खोज रहे थे. बाबूजी बेटे को बतौर इंजिनियर देखना चाहते थे. स्कूल से उन्हें एक वजीफा भी मिला हुआ था. उन्होंने पटना स्थित बिहार कॉलेज आफ इंजीनियरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की अपनी पढ़ाई शुरू कर दी. कॉलेज में दाखिला के बाद वो कुछ समय में ही छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए खुद की अगवाई में छोटे-मोटे धरना प्रदर्शन उन्होंने किया लेकिन छात्र संघ के अध्यक्ष होने के बावजूद उनकी धाक नहीं जम पा रही थी उनके जानने वाले किताबों में ऐसा लिखते हैं कि नीतीश कुमार दब्बू किस्म के छात्र नेता थे या यू कहे कि उनके पास छात्र नेता के सो कॉल्ड गुण नहीं थे. इसी दौरान गंगा के एक दूसरे छोर से एक युवक पटना पढ़ाई करने पंहुचा, नीतीश गंगा के दक्षिणी छोर से आए थे और गंगा के उत्तरी छोर से आए युवक का नाम था लालू प्रसाद यादव। साल 1966 में लालू प्रसाद यादव ने पटना के बियन कॉलेज में अपना दाखिला कराया और एडमिशन के एक साल बाद यानि 1967 में पटना विश्विद्यालय के छात्र संघ के महासचिव चुने गए. उन दिनों समूचे पटना के कॉलेजों में इस छात्र की चर्चा हो रही थी. चर्चा उसके वाक्यपटुता, उसके भाषण देने के शैली की हो रही थी.
बिहार के दोनों राजनितिक धुरंधरों की राजनितिक विसात बिछ चुकी थी. बस दोनों में अंतर सिर्फ इतना सा था कि नीतीश कुमार बोलते काम थे चुप ज्यादा रहते थे, वहीं लालू यादव भाषण के लिए मशहूर थे. लेकिन राजनितिक महत्वाकांक्षा से दोनों लवरेज थे. आने वाला वक़्त इन दोनों युवा नेताओं के लिए काफी चुनौती देने वाला था और तरक्की के नए रास्ते खोलने वाला भी. केंद्र में इंदिरा की सरकार थी. जेपी यानि जयप्रकाश की अगुवाई में आंदोलन की भूमिका तैयार हो रही थी. वैसे तो सन 1972 और 73,74 का कालखंड पटना के लिए उथल पुथल भरा रहा था और नीतीश कुमार जैसे युवा नेता के लिए काफी चुनौतीपूर्ण. नीतीश को इंजिनियरिंग की पढ़ाई पूरी करनी थी. सड़क में संघर्ष भी करना था. संघर्ष के दौरान पकडे जाने पर जेल भी जाना था. और जेल से छूट कर आने के बाद फिर से सड़कों में आंदोलन करना था. नीतीश कुमार पढ़ाई में अच्छे बताए गए लेकिन यहां तक आते-आते उनका मन राजनीति में ज्यादा लगने लगा था. हालांकि उनके पिता ऐसा नहीं चाहते थे.
लेकिन एक कहावत हैं न युवा मन के आगे अनुभव से भरे बुजुर्ग अक्सर हार मान जाया करते हैं. ये कहावत अपने कई दफा सुनी होगी। नीतीश कुमार राजनीति में इतना आगे आ चुके थे कि उनका वापस लौटना बहुत मुश्किल हो गया था. जेपी ने पुकार लगाई छात्र पढ़ाई का बहिस्कार करें। सारे छात्र उनकी पुकार पर पटना के एक मैदान के एकत्र हुए और अपने सर्टिफिकेट जलाने का फैसला किया साथ ही विरोध प्रदर्शन भी शुरू किया. कइयों ने अपने सर्टिफिकेट जलाए उसमें से नितीश कुमार भी एक थे नीतीश कुमार ने अपने ओरिजिनल सर्टिफिकेट आग के हवाले कर दिए. वो अब तक इंजीनियरिंग की किताबों से ज्यादा राजनितिक पत्र पत्रिकाओं और राम मनोहर लोहिया की किताबों या उनपर लिखी गई किताबों में रूचि लेने लगे थे. वो जेपी के निर्देशों और सरक्षण में बानी छात्र संघर्ष समिति के संचालन समिति के सदस्य बन गए वो लोहिया को मानाने वाले एक अखिल भारतीय संगठन के विचार मंथन के सक्रीय सदस्य बन गए. यहां तक आते-आते युवा नीतीश कुमार जेल जा चुके थे. प्रदर्शन के दौरान वो बसों को घेर कर एक जगह से दूसरी जगह ले जा चुके थे.
अपने दम पर कई दफा कॉलेज बंद करवा चुके थे. यहां तक आते-आते वो एक युवा नेता से पटना में घूमते-घूमते अनुभवी युवा नेता बन चुके थे. अब तक उनके संघी साथी और सीनियर नेता भी उनकी जरुरत को समझ चुके थे. वो एक पढ़े-लिखे और नपी तुली बात करने वाले नेता भी बन चुके थे. अब तक वो पटना के समाचार पत्रों के दफ्तरों में अपने एक साथी के साथ अक्सर प्रेस रिलीज लेकर जाने लगे थे. यहां तक उनकी बातों को उस समय के पत्रकार बड़ी गंभीरता से सुनने लगे थे. नीतीश कुमार इन दिनों नजदीकी कॉफी हाउस में बड़े-बड़े पत्रकारों और साहित्यकरों के चर्चा को बड़ी गंभीरता से सुनते और मुद्दे समझने की कोशिश करते हालांकि इन चर्चा में खुद इन्वॉल्व नहीं हुआ करते थे. एक दिन नितीश कुमार चर्चा के दौरान किसी बात पर नाराज होकर वहां से तमतमाते हुए निकलते हैं और कहते हैं कि मैं एक दिन इस सूबे का मुख्यमंत्री जरूर बनुगा। इतना सुनाने के बाद आपको ये जरूर लग रहा होगा की युवा नीतीश कुमार ने अपने लिए कितना कुछ कर लिया था । लेकिन एक लम्बी छलांग के लिए और वरिष्ठ नेता के आशीर्वाद के लिए इतना प्रयाप्त नहीं था. हो सकता है उन दिनों नितीश कुमार को भी यही लग रहा हो की हमने कितना कुछ कर लिया कितना संघर्ष किया वगैरा-वगैरा लेकिन मेरे नेता जयप्रकश नारायण का आशीर्वाद मुझे नहीं मिला.
इतना कुछ होने के बावजूद नीतीश कुमार एक अनुभवी युवा नेता ही रहे. खैर अब वक़्त आ गया की एक बेहद निजी वजह से राज्य की आम जनता की नजर में नितीश कुमार आए अखबारों और पत्र पत्रिका में उनका लेख छापे और उनको ख्याति मिले।साल 1971 का था इस वक़्त तक नितीश कुमार 22 साल के हो गए थे वो पटना में थे. राजनीति में अपनी पैठ जमाने की कोशिश कर रहे थे. उधर उनके गांव में बाबू जी को परेशानी होनी शुरू हो गई थी. बेटा गलत दिशा में जा रहा है जिस ओर हम जाके अपनी भविष्य की गाड़ी को पटरी से उतार चुके हैं, बेटा भी वहीं जा रहा है. यह सोच के नीतीश कुमार के बाबू जी ने बेटे की घर गृहस्ती बसाने का मन बना लिया। ये सोच भारत के हर मिडिल क्लास फॅमिली के माता-पिता की होती है अपने बच्चों के लिए. यही सोच के उनके पिता मंजू नाम की लड़की से बेटे की शादी करने का मन बना लिया। मंजू उस समय मगध की एक कॉलेज में समाजशास्त्र की पढ़ाई कर रहीं थीं.
नीतीश कुमार के दोस्त चुपके से अपनी भाभी को देखने के लिए मगध कॉलेज पहुंच गए और नीतीश कुमार को ओके की रिपोर्ट भी दे दी तभी नितीश कुमार, जो उन दिनों राममनोहर लोहिया के प्रभाव में थे. जयप्रकश की रहनुमाई में बड़े हो रहे थे. पता चला की उनके बाबू जी लड़की पक्ष से 22 हजार रूपए दहेज के रूप में लिया है. नितीश कुमार भड़क गए तमतमाए हुए अपने एक दोस्त के साथ घर पहुंचे। घर पहुंचे बाबू जी के पांव छुए और चुपचाप से अंदर चले गए. बात करने के पूरी जिम्मेदारी साथ आए दोस्त को दे दी. दोस्त ने अपनी जिम्मेदारी निभाई और बाबू जी मान गए दहेज़ में लिए गए पैसे लौटा दिए शादी हुई. इस शादी की खूब चर्चा हुई. नीतीश कुमार का धर्मयुग पत्रिका में लेख छापा। उस समय ये बहुत बड़ी थी. धर्मयुग में इसकी लेकर एक लेख छापा तो उस समय के मशहूर साहित्यकार और उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु’ ने कहा था की मुझे भी अपनी बेटी के लिए ऐसी सोच वाले युवा की तलश है। शादी हुई दूल्हा दुल्हन विदाई के लिए सफ़ेद कार में बैठकर बख्तियारपुर के लिए रवाना हुए क्योंकि शादी पटना में हुई थी. इस गाड़ी को उनके दोस्त भोला प्रसाद चला रहे थे. वहीं भोला प्रसाद जिन्होंने नीतीश कुमार को 1977 में उनके पहले विधानसभा चुनाव में हरनौत से हरा दिया.
1977 के विधान सभा चुनाव में नितीश कुमार बहुत काम संसाधन के साथ चुनाव में उतरे थे वो साइकिल में घूम-घूम के समाज में सद्भाव की बात कर रहे थे तभी बिहार में बेलछी नरसंहार हुआ था. और बेलछी नरसंहार में अपने स्वजातीय लोगों के खिलाफ थे. उनकी जात के जो लोगों ने दलितों को जिन्दा जलाया नीतीश कुमार उनके खिलाफ बात कर रहे थे और यही कारण था कि उनके जाती के लोग उन्हें वोट नहीं दिए वो कुर्मी होते हुए भी कुर्मी वोट नहीं पाए और चुनाव हार गए. जबकि इस विधानसभा में उनके वर्ग की अच्छी खासी जनसंख्या है. उनके विपक्षी भोला प्रसाद को हर वर्ग का साथ मिला और उन्होंने नीतीश कुमार की चुनावी साइकिल पंचर कर दी, एक बार नहीं बल्कि दो बार दूसरी बार 1980 में. लगातार दो चुनाव हारने के बाद नीतीश कुमार काफी निराश हो गए वो अपने नए दाम्पत्य जीवन को समय नहीं दे पा रहे थे. परिवार से कटे-कटे रह रहे थे. परिवार उन्हें एक ऐसे बेकार व्यक्ति के तौर पर देख रहा था जिसने पढ़ाई तो इंजीनियरिंग की लेकिन आखिर में नेता गिरी करने लग गया. ऐसे व्यक्ति में बारे में अक्सर समाज और घर ये सोचने लग जाता है कि यह व्यक्ति अब कुछ नहीं कर पाएगा।
इंजीनयरिंग तो हो नहीं पाई और चुनावी साइकिल भी इनकी पंचर हो गई. इन सबसे नीतीश कुमार काफी प्रभावित हुए कोई भी होता सो नितीश भी हुए. उन दिनों वो काफी परेशान रहने लगे उन्होंने राजनीति छोड़ने का मन बना लिया था. इंजिनियरिंग से कोई नौकरी कर नहीं सकते थे क्योंकि वो अपना ऑरिजिनल सर्टिफिकेट पहले ही जला चुके थे. दो चुनाव हारने के बाद नीतीश कुमार ठेकेदारी करने का प्लान बनाया प्लान लगभग बन चूका था. तभी उनके एक साथी ने उन्हें झकझोर दिया दोस्त ने उनके आदर्श लोहिया जी के सघर्ष की कहानी सुनाई उनको याद दिलाई। तब नितीश कुमार उनकी बात मान तो गए लेकिन उनको समझ नहीं आ रहा था कि वो अगला चुनाव कैसे लड़ेंगे। इस बेचैनी के बीच नीतीश कुमार अपने एक दोस्त के न्योते में घूमने चले जाते हैं. जब वो वहां से लौटते हैं तो आगामी चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं. हताशा और निराशा को वो वहीं छोड़ के आ चुके थे. वर्ष 1984 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने समझदारी से काम लिया क्योंकि इंदिरा गाँधी की मृत्यु हो चुकी थी. वो चुनाव में नहीं उतरे 1980 में हुए हार से सिख लेते हुए 1984 के संसदीय चुनाव छोड़ने के बीच नीतीश कुमार बेहतर संपर्क का काम करते रहे. वर्ष 1985 का विधानसभा का चुनाव आया जिसके लिए नितीश कुमार तैयार थे. उनके समर्थक भी.
इस बार उनके सिर पर दिल्ली के बड़े नेताओं का हाथ था. 2 बार चुनाव हार चुके अनुभवी नेता आत्मविश्वास में था। वो अपनी पत्नी के पास गए और कहा ये मेरा आखिरी चुनाव है अगर हार गया तो कभी राजनीति की तरफ नहीं तकूँगा। चुनाव नहीं लडूंगा परिवार की ओर ध्यान दूंगा घर बसाऊंगा कुछ भी काम कर लूंगा लेकिन राजनीति की तरफ नहीं जाऊंगा। आदमी जब कमजोर पड़ता है तो साथ खड़ी औरत हौसला बढ़ाती है. लिहाजा नीतीश की पत्नी मंजू ने नीतीश को बीस हजार रूपए उनके जेब में डाल दिए और कहा जाओ इस बार तुम्ही जीतोगे। चुनाव शुरू हुआ नीतीश कुमार की पार्टी और उनके समर्थकों ने जमकर प्रचार प्रसार किया। कहा जाता है कि नीतीश कुमार इस चुनाव में आदर्शों को थोड़ा साइड में रखा. और जमीनी हकीकत को समझते हुए चुनाव जितने के लिए तमाम दंड भेद सबका इस्तेमाल किया और जब चुनाव का रिजल्ट आया तो नीतीश कुमार चुनाव जीत चुके थे.
उनके पिता और आसपास के कई लोग गलत साबित हो चुके थे. 1985 का विधानसभा चुनाव जितने के बाद नीतीश कुमार को कभी विधानसभा सीट के लिए तरसना नहीं पड़ा. वो आज भी खड़े हैं एक ऐसे सूबे के मुख्यमंत्री हैं जहां आज भी जात -पात से बहुत कुछ निर्भर करता है, एक ऐसे राज्य के मुखिया हैं जहां आज भी परिवारवाद को बहुत बुरा नहीं माना जाता। न नेता बुरा मानते हैं और न जनता बुरा मानती हैं. लेकिन नीतीश कुमार ने इसी राज्य में रहते हुए राजनीति करते हुए कभी सालों तक अपने परिवार को राजनीति से दूर रखा. खुद को भी भ्रष्टाचार से दूर रखा कुछ आरोप लगे हैं, लेकिन अभी तक कोई आरोप साबित नहीं हुए हैं. तो इस कहानी को यहीं छोड़ते क्योंकि कहानी लम्बी हो गई है. अगर ये कहानी आपको ठीक लगी हो और नीतीश कुमार के चुनाव जितने के बाद की कहानी जननी है तो कमेंट बॉक्स में जरूर बताए।