Nepal Gen-Z 2025 – संघर्ष और नेतृत्व पर सुशीला कार्की – बदलाव है या पिछली व्यवस्था का नया स्वरूप – एक सवाल-नेपाल में हाल ही में राजनीति का जो हाल हुआ वो दुनिया से छुपा नहीं है। जब KP शर्मा ओली की सरकार विरोध प्रदर्शनों, सोशल मीडिया निगरानी और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई थी। इन प्रदर्शनों में मुख्य भूमिका निभा रहे थे युवा, विशेषकर जनरेशन-Z, जो न सिर्फ राजनीतिक असंतोष व्यक्त कर रहे थे, बल्कि व्यवस्था में गहरी और मूलभूत बदलाव की मांग भी कर रहे थे। इन ही परिस्थितियों में राष्ट्रपति, सेना और आंदोलनकारी युवा गुटों के मध्य सहमति बन पाई की सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया जाए। सुशीला कार्की नेपाल की पहली महिला प्रधान न्यायाधीश रह चुकी हैं और उनकी छवि,भ्रष्टाचार विरोधी व न्यायपालिका में निष्पक्षता की वाली रही। क्योंकि वो वंचित समुदायों के अधिकारों की संवेदनशीलता न सिर्फ समझा बल्कि उन्हें न्याय दिलाने वाली प्रतिमूर्ति समझा जाता रहा। लेकिन नेपाल में निर्मित परिस्थितियां या जनरेशन ज़ेड की मांग, क्या यह वास्तव में एक बदलाव है ? क्या सुशीला कार्की इस भूमिका में सचमुच-मुच उपयुक्त थीं ? क्या नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था में असली सुधार की शुरुआत अब हो सकेगी या कहीं ऐसा तो नहीं कि सुशीला कार्की सिर्फ एक नया चेहरा है साबित होगीं वो भी पुराने ढर्रे का। यह विचारणीय है क्योंकि अब भी सत्ता उसी वर्ग में बनी रही है और इस तरह युवा आंदोलन का उत्साह समय से पर ठंडा भी हो जाएगा ? इस लेख में इस गंभीर विषय को खंगालते हुए कोशिश है उपरोक्त सभी प्रश्नों का विश्लेषण कर जवाब ढूंढने की । लेकिन पहले जानना है कि सुशीला कार्की को प्रधानमंत्री बनाने के आखिरी आधारित कारण क्या रहे,उनकी सीमाएं क्या थी और क्या नेपाल वास्तव में समय के साथ बदल रहा है या फिर हमें,बदलाव-बदलाव का सिर्फ शोर सुनाई दे रहा है।
सुशीला कार्की – पृष्ठभूमि और उपयुक्तता
न्यायपालिका से राजनीतिक नेतृत्व की ओर – सुशीला कार्की ने नेपाल की सुप्रीम कोर्ट में काम किया, और जुलाई 2016 से जून 2017 तक प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। न्यायपालिका में उनका रुख भ्रष्टाचार के खिलाफ दृढ़ था। उदाहरण के लिए, उन्होंने सूचना एवं संचार मंत्री जय-प्रकाश प्रसाद गुप्ता को दोषी करार दिया था। 2017 में उन पर इम्पीचमेंट की कोशिश हुई थी, आरोप-प्रत्यारोप हुए कि उन्होंने पक्षपात किया है, मगर संसद और न्यायपालिका के दबाव में वह प्रयास विफल रहा। इन सब गुणों ने उन्हें एक निष्पक्ष, भ्रष्टाचार विरोधी, अप्रयुक्त राजनीतिक दलों और शक्तियों से अपेक्षाकृत स्वतंत्र चेहरे के रूप में स्थापित किया।
आंदोलन और जनरेशन-Z का दबाव पांसा पड़ा भारी – युवा गुटों और आंदोलनकारियों ने चाहा कि राजनीतिक दलों में उलझा कोई पुराना नाम न हो, बल्कि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो व्यापक विश्वास अर्जित कर सके। सुशीला कार्की का नाम इस मांग से मेल खाता था क्योंकि वे राजनीति से इतने सीधे नहीं जुड़ी थीं। राष्ट्रपति रामचन्द्र पौडेल, सेना प्रमुख समेत अन्य शक्तियों ने आंदोलन और राजनीतिक दलों के बीच मध्यस्थता करते हुए उन्हें अंतरिम सरकार की प्रमुख बनाने में सहमति बनी। इससे यह संदेश गया कि उन्हें राजनीतिक दलों के दमन या अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करना चाहिए।
सीमित अवधि की जिम्मेदारी और संवैधानिक प्रावधान – सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया है, जहां उनकी प्राथमिकताएं होंगी,अगले छह महीनों में आम चुनाव करवाना। फिलहाल संसद भंग कर दी गई है, और संविधान की धारा 61 का इस्तेमाल कर राष्ट्रपति द्वारा सरकार बनाने की प्रक्रिया अपनाई गई है क्योंकि नियमित तरीकों से प्रधानमंत्री नियुक्ति संभव नहीं थी अतः उन्हें स्थाययित्व नहीं , बल्कि एक संक्रमणकालीन भूमिका सौंपी गई है, जिसमें अपेक्षित है कि वह व्यवस्था को शांतिपूर्ण तरीके से अगले चरण तक ले जाए।
जानें कारण – क्या मिला पर और क्यों हो रही आलोचना
नीचे वे मुख्य कारण हैं जो उनके चयन की तर्कसंगता को मजबूती देते हैं और साथ ही साथ वे चुनौतियां व आलोचनाएं जिन्हें दूर करना होगा।
तर्कसंगत कारण आलोचनाएं/ चुनौतियां
न्यायिक अनुभव, ईमानदारी की छवि, भ्रष्टाचार विरोधी रुख। न्यायपालिका से सीधे राजनीति में आने से कोई राजनीतिक मूल शक्ति (political base) नहीं है, मतलब कि निर्णय लेने में राजनीतिक दलों और अन्य शक्तियों का प्रभाव बनेगा। आंदोलन-जनित दबाव और सार्वजनिक विश्वास-जनरेशन-Z के लोगों की उम्मीदें। युवा आंदोलन की मांगों की पूरी और स्पष्ट व्याख्या नहीं हुई है। आंदोलनकारियों ने कहा है कि वे सरकार में नहीं शामिल होंगे, बल्कि केवल निगरानी करेंगे। दलों से ऊपर उठकर एक तटस्थ हस्ती के रूप में चुनना, ताकि माहौल शांत हो और असामाजिक हिंसा को रोका जाए। असल निर्णय़ शक्ति अभी भी पारंपरिक दलों, सत्ता संकुलों और सेना की भूमिकाओं के बीच बंटी हुई है, “संस्थागत बदलाव” पर स्पष्ट प्रतिबद्धता कम दिखती है। छह-महीने में चुनाव कराने का स्पष्ट समयसीमा प्रस्ताव , लोकतंत्र की बहाली की दिशा। चुनाव कराना पर्याप्त नहीं है,चुनावी प्रक्रिया होती है, उसके बाद राजनीतिक दलों की नीति, जवाबदेही, राजनीतिक भ्रष्टाचार की स्थिति, संघ संरचना, जात-पाती/भू-आधारित असमानताएं आदि सुधारों की दर बहुत कम रही है।

नेपाल की राजनैतिक व्यवस्था व पिछले आंदोलन पर क्या हुए बदलाव ?
नेपाल ने 2008 में राजतंत्र को समाप्त किया, राजा की शक्ति को सीमित किया गया, और लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना की गई। लेकिन पिछले 15-20 वर्षों के अनुभव से कुछ चीज़ें स्पष्ट हैं जैसे – राजनैतिक दलों की संरचना में अक्सर घनघोर जात-पाती, क्षेत्रीयता, वंशवाद, गठबंधन राजनीति वादा किया गया लेकिन सतत बदली हुई नीतियां कम दिखीं। जनता को अक्सर पार्टी नेताओं, मंत्रियों आदि पर भरोसा नहीं रहा क्योंकि भ्रष्टाचार,नेपोटिज्म और जवाबदेही की कमी जैसी समस्याएं हमेशा से बरकरार रहीं। चुनावी लोकतंत्र तो आ गया, लेकिन प्रशासन, न्यायपालिका, पुलिस, निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं की स्वायत्तता और पारदर्शिता अक्सर राजनैतिक दबावों से बाधित रही। आंदोलन अक्सर “उत्तेजनाजनित” होते रहे और थोड़े समय के लिए प्रभावी और बड़े जनाक्रम में, लेकिन ठोस नीति प्रस्ताव एवं संस्थागत सुधार की दिशा कम होती है। इन अनुभवों से जनता और विशेषकर युवा वर्ग चिंतित हैं कि क्या सुशीला कार्की का उदय भी इसी चक्र को दोहराएगा या फिर एक बार पुनः नए चेहरे के ज़रिए पुरानी व्यवस्था की रक्षा तो नहीं की जाएगी या उसे नवीन माध्यम से दोहराया तो नहीं जाएगा।
क्या सुशीला कार्की के पास बदलाव लाने की क्षमता है?
बदलाव की योजना और क्षमता दोनों आवश्यक हैं, नीचे वो मुख्य तथ्यात्मक क्षेत्र हैं जहां यह देखा और समझा जा सकता है कि उन्हें कहां काम करना होगा।
संविधानिक और कानूनी सुधार – यह देखना होगा कि संसद पुनर्स्थापित होने पर सरकार का गठन कैसे होगा, चुनाव कानूनों में पारदर्शिता कैसे आएगी। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना होगा क्योंकि उसी न्याय व्यवस्था पर जनता को भरोसा है।
भ्रष्टाचार पर जवाबदेही व सार्वजनिक विश्वास की बहाली – पूर्व सरकारों के खिलाफ सच्ची जांच और कार्रवाई होनी चाहिए न की “प्रतीकात्मक कार्रवाही”। पुलिस कार्यवाही, मानवाधिकारों का उल्लंघन, मीडिया की स्वतंत्रता आदि विषयों में पारदर्शिता होनी चाहिए।
युवा और आंदोलनकारी अपेक्षाएं – जनरेशन-Z और अन्य नागरिक गुटों की अपेक्षाएं सिर्फ “नेताओं की बर्खास्तगी” तक नहीं हैं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सुधार, न्याय, सूचना की पहुंच, अवसरों का बराबर बंटवारा सहित सरकार को चाहिए कि ये अपेक्षाएं समझे और अपनी कार्यशैली में शामिल करे जैसे उदाहरण-स्वरूप युवा नीति निर्माण, सोशल मीडिया स्वतंत्रता, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार, क्षेत्रीय असमानताएं दूर करना आदि।
स्थायित्व और सेना-दलोह संबंध – किसी भी अस्थिर राजनीति या सेना-राजनीति के बीच उलझाव नेपाल के लिए खतरनाक हो सकता है। सुशीला कार्की के नेतृत्व में यह तथ्य सामने होना चाहिए कि क्या सरकार संवैधानिक सीमाओं के भीतर काम करेगी, और क्या सत्ता हस्तांतरण शांतिपूर्ण और पारदर्शी होगा ?
यदि व्यवस्था पुरानी रही तो नया नया चेहरा परिवर्तन ला सकेगा ?
इस परिप्रेक्ष्य से कह सकते हैं कि हां – बदलाव संभव है। उदाहरणों में कई देशों में हुआ है कि जब नेतृत्व असाधारण रूप से तटस्थ, भरोसेमंद और पारदर्शी तरीके से चुन लिया जाता है, तो जनता में उम्मीद रुतबेदार होती है, विशेष रूप से युवा वर्ग में,लेकिन, बदलाव का प्रमाण सिर्फ नए चेहरे से नहीं, बल्कि संस्थागत परिवर्तन, नीतियों की सतता, जवाबदेही, राजनीति और जनता के बीच विश्वास बहाली से होगा। नेपाल खासतौर पर इस मोड़ पर है कि राजतंत्र समाप्त हो चुका है लेकिन राजनैतिक दलों ने लगभग वही व्यवहार दोहराया है जो राजतंत्र के समय सत्ता के केंद्रीकरण, वंशवाद, जात-पाती आधारित राजनीति आदि से जुड़ा था। जनाज्ञान, सामूहिकता, सोशल मीडिया, प्रयोगात्मक राजनीति – जैसे कि बाहरी नेताओं, अल्पज्ञात चेहरों का उदय – यह संकेत करते हैं कि जनता “पुरानी राजनीति” से ऊब चुकी है और अब उसे महज़ चेहरा नहीं बल्कि तथस्ठ बदलाव चाहिए। सुशीला कार्की को प्रधानमंत्री बनाना एक संकेत है और संकेत यह है कि नेपाल में जनता, विशेषकर युवा, बदलाव चाहती है कि पुरानी राजनीति से ऊब और सत्ता कंट्रोल के खिलाफ आवाज़ तेज हो रही है। यहां बड़ी गंभीरता और समझदारी से समझना और रणनीति तय करना होगा कि संकेत बनना और बदलाव लाना सरल नहीं होता, क्योंकि परिवर्तन का प्रमाण देना होगा । ये अंतरिम सरकार शान्तिपूर्वक चुनाव कराएगी, सत्ता हस्तांतरण होगी, और जनता की उम्मीदों के अनुरूप नीतियां बनेंगी। तब भ्रष्टाचार, असमानता, जात-पाती भेदभाव, मीडिया स्वतंत्रता, सूचना-स्वतंत्रता जैसे मूलभूत मसलों पर वास्तविक सुधार होंगे। राजनीतिक दल और सेल्टर-इन-पॉवर संस्थाएं जनता की निगरानी, आलोचना स्वीकारने की स्थिति में होंगी; जनता सिर्फ “चिंता व्यक्त” करने तक सीमित न रहे, बल्कि सक्रिय सहभागी बने।
संपूर्ण विषयक समीक्षात्मक दृष्टिकोण – इस पूरी घटना का आंकलन इस तरह किया जा सकता है कि यह एक तात्कालिक प्रतिक्रिया है जो जन आंदोलन, दबाव, देश की स्थिति की गम्भीरता- इसने निर्णयों को मजबूर किया कि राजनीतिक दल ,यहां तक कि राष्ट्रपति भी स्वेच्छा से पीछे हटे, जिसमें अन्य संवैधानिक संस्थाएं भी मध्यस्थता करें। ऐसे समय में सुशीला कार्की का चयन- एक निजीतत्व, एक विश्वसनीय चेहरा, और अपेक्षाकृत “अपोलिटिकल” पहचान के आधार पर हुआ लेकिन पिछले अनुभवों से यह भी पता चलता है कि ऐसा अनुभव है कि जब संकट शांत हो जाए, तो राजनैतिक दल पुराने कामकाज में वापस लौट आते हैं। नीतियों के रूप में बदलाव कम और बयानबाज़ी ज़्यादा होती है। लोग सुधारों के बजाय “चेहरा बदलने” से संतुष्टि कर लेते हैं, जबकि मूल संरचनाएं यथावत रह जाती हैं। इसलिए, सुशीला कार्की के पास अवसर है और लोगों की उम्मीदें भी हैं, लेकिन यह अवसर तभी सार्थक बनेगा जब परिवर्तन सतत हो, असर दिखाई दें और जनता को वास्तविक भागीदारी मिले।