Naushad Ali Death Anniversary: सत्रह बरस के फिल्मों में काम करने के लिए बिना कुछ सोचे समझे उन्होंने घर छोड़ दिया और पहुँच गए बॉम्बे। दादर के ब्रॉडवे सिनेमा के सामने वाले फुटपाथ को बनाया अपना ठिकाना, खुले आसमान को बनाकर चादर, सपना संजोया संगीतकार बनने का। और फिर माने भी उस सपने को पूरा करके। उसी ब्रॉडवे सिनेमाघर में जब उनकी फिल्म बैजू बावरा लगी। तब नौशाद ने कहा था कि सत्रह सालों का सफ़र रहा इस सड़क को पार करने का।
बैजू बावरा का ज़िक्र हो और इसके गाने “तू गंगा की मौज मैं जमना का धारा, हो रहेगा मिलन, ये हमारा तुम्हारा” की बात न हो तो बात ज़रा अधूरी ही रहेगी। रफ़ी साहब के आलाप से शुरुआत और फिर “अकेली मत जइयो राधे जमुना के तीर।” गाना सीधा दिमाग पर हावी हो जाता है इतने में ही। उस पर इतनी दिलकश धुन राग भैरवी में। ये नौशाद साहब का कमाल ही था कि उनकी ऐसी न जाने कितनी धुनों से हमारी दुनिया, हमारे दिल आबाद हैं अब तक।
Naushad Ali Death Biography In Hindi
नौशाद अली 1940 के दशक में अग्रणी संगीत निर्देशकों में से एक के रूप में उभरे और 1950 के दशक में उद्योग पर अपना दबदबा बनाए रखा। उन्होंने ‘रतन’ (1944), ‘अंदाज’ (1949) और बाद में ‘उड़न खटोला’ (1955), ‘मुगल-ए-आजम’ (1960), ‘गंगा जमुना’ (1961) जैसे क्लासिक्स के लिए संगीत तैयार किया। उन्होंने अपनी मृत्यु तक 7 दशकों के दरम्यान अच्छी गुणवत्ता वाले संगीत के साथ काम किया। उनकी आखिरी रिलीज़ कृति 2005 में ‘ताज महल: एन इटरनल लव स्टोरी’ थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत का भरपूर इस्तेमाल किया। चौसठ साल के अपने पूरे कैरियर में नौशाद ने कुल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया।
नौशाद की मूल छवि क्लासिकल और फोक म्यूजिक पर आधारित धुन बनाने वाले संगीतकार की रही है। उनकी अनेक धुनें आज भी भारतीय जनमानस में छाई हुई हैं। पाकिस्तान जाने के बाद भी नूरजहाँ बेगम की पहचान नौशाद साहब का बनाया गाना बना रहा। वो गाना था “आवाज़ दे कहाँ है, दुनिया मेरी जवां है।” नौशाद ने इस गाने के बारे में एक बार कहा था कि इस धुन को बनाने के लिए मैं सैकड़ों मील फुटपाथ पर चलता रहा था कई दिनों तक। पर जिस रूहानी धुन की तलाश थी वो एक अरसे बाद नुमाया हुई ख़्वाब में।
Naushad Ali Music Career
सन 1946 में बनी फिल्म अनमोल घड़ी में इस गाने के अलावा एक और गाना नूरजहां की आवाज़ में ही बहुत खूबसूरत बना और जिसने हर जवां दिल को मोहब्बत के लिए धड़कने पर मजबूर कर दिया। “जवां है मोहब्बत, हसीं है ज़माना, लुटाया है दिल ने, खुशी का खज़ाना।” जी हां, मैं इसी गाने की बात कर रहा हूं।
उनकी पहली बड़ी सफलता फिल्म “रतन” से 1944 में आई। इसके गाने खूब प्रचलित हुए। “अंखियाँ मिलाके जिया भरमा के चले नहीं जाना” “ओ जाने वाले बालमवा” “मिलके बिछड़ गईं अंखियाँ” जैसे गाने आज भी लोगों की पसंद में उतने ही शामिल हैं। नौशाद की सदाबहार धुनों में गूंथे हुए ये गीत अमीरबाई कर्नाटकी और जोहराबाई अंबालेवाली जैसी उस समय की नामचीन गायिकाओं की आवाज़ों से सजे थे। इस फिल्म और नौशाद का एक दिलचस्प किस्सा है। नौशाद के पिता तो शुरू से ही उनके संगीत प्रेम के विरोधी थे। उनके विरोध के चलते ही नौशाद ने घर छोड़कर बॉम्बे का रुख किया था। पर बाद में नौशाद का घर आना जाना शुरू हो गया था।
किस्सा यूं है कि नौशाद की शादी घर वालों ने तय कर दी। लेकिन चूंकि उस दौर मे फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था तो लड़की वालों को बताया गया कि लड़का दर्जी है। जब बारात चली तो आगे बैंड वाले नौशाद के फिल्म रतन के गाने भी बजा रहे थे जिस पर ये हंगामा भी हुआ कि आजकल कैसे कैसे गाने बनाए जा रहे हैं फिल्मों में। बेचारे नौशाद ये तमाशा देखते रहे लेकिन कह भी नहीं पाए कि ये उन्हीं के बनाए गाने हैं। तो ये थी उस समय फिल्म रतन के गानों की लोकप्रियता।
नौशाद का संगीत और म्यूजिक अरेंजमेंट खासा देसी हुआ करता था जिसमें लोक और शास्त्रीय संगीत की खुशबू हमेशा बनी रहती थी। लेकिन सन 1968 में आई फिल्म साथी ने इस मिथक को भी तोड़ा। नौशाद ने एक नौजवान म्यूजिक अरेंजर केरसी लॉर्ड को इस फिल्म के ऑर्केस्ट्रेशन का काम दिया। यदि आप साथी फिल्म के गाने याद करें तो आप नौशाद के संगीत में नए साउंड का प्रभाव साफतौर पर देख पाएंगे। इस फिल्म के गानों में सब एक से बढ़कर एक गाने नौशाद ने बनाए। “मेरा प्यार भी तू है ये बहार भी तू है” “हुस्न ए जाना इधर आ आइना हूं मैं तेरा” “ये कौन आया रोशन हो गई महफिल जिसके नाम से” और “मेरे जीवन साथी” जैसे गीत सुनकर आप नौशाद का नया कमाल भी देख सकते हैं।
कम लोगों ने सुना है आठवां सुर। मैं आपको बता दूं कि नौशाद एक अच्छे शायर भी थे। उनकी लिखी और कंपोज की हुई आठ ग़ज़लें सन 2006 में एक म्यूजिक एल्बम की शक्ल में रिलीज़ हुईं। उस एल्बम का नाम था आठवां सुर। इसमें आवाज़ें हरिहरन और प्रीति उत्तम की थीं जबकि सुमधुर म्यूजिक अरेंजमेंट प्रसिद्ध संगीतकार उत्तम सिंह ने किया था। इस बेमिसाल एल्बम को ज़रूर सुनिएगा।
नौशाद के संगीत की धार कभी मद्धिम नहीं पड़ी। वक्त बदला, दौर बदला, लेकिन नौशाद का संगीत हमेशा मौजू बना रहा। 1982 में आई फिल्म धर्मकांटा के गीत “ये गोटेदार लहंगा” ने चार दशक से काम कर रहे इस संगीतकार का लोहा फिर से मनवाया। उनकी अंतिम फिल्म ‘ताज महल: एन इटरनल लव स्टोरी’ 2005 में आई थी। लगभग 70 सालों तक नौशाद ने हमेशा गुणवत्तापूर्ण और हरदिलअज़ीज़ संगीत बनाया। आज उनकी पुण्यतिथि के मौके पर उन्हें याद करने के बहाने उनकी अंतिम फिल्म का गाना “अपनी जुल्फें मेरे शानों पे बिखर जाने दो” सुनिए हरिहरन की आवाज़ में।