न्याजिया बेग़म
Music Director Jaidev Birthday: मैं न छेड़ू कोई सुर न सही पर जब सधे मेरे साज़, ज़माना झूमे मिलाके ताल, हो ज़माने को मुझपे नाज़, जी हां हम बात कर रहे हैं कुछ इसी जज़्बे से अपनी धुनों को बनाने वाले संगीतकार जयदेव की जयदेव का जन्म नैरोबी में हुआ और उनका पालन-पोषण भारत के लुधियाना में । 1933 में, जब वह 15 वर्ष के थे, तब फिल्म स्टार बनने के लिए मुंबई आ गये। वहां, उन्होंने वाडिया फिल्म कंपनी में एक बाल कलाकार के रूप में आठ फिल्मों में अभिनय किया। प्रोफेसर बरकत राय ने उन्हें कम उम्र में ही लुधियाना में संगीत की शिक्षा दी थी। बाद में, जब वे मुंबई आये, तो उन्होंने कृष्णराव जावकर और जनार्दन जावकर से संगीत सीखा। दुर्भाग्य से, अपने पिता के अंधेपन के कारण उन्हें अपना फ़िल्मी करियर अचानक छोड़ना पड़ा और लुधियाना लौटना पड़ा, जिसके कारण उनके परिवार की एकमात्र ज़िम्मेदारी उनके युवा कंधों पर आ गई। 1943 को, वो उस्ताद अली अकबर खान के संरक्षण में संगीत का अध्ययन करने के लिए लखनऊ चले गए।
ऐसे शुरू हुआ करियर
अली अकबर खान ने 1951 में जयदेव को अपने संगीत सहायक के रूप में लिया, जब उन्होंने नवकेतन फिल्म्स की आंधियां (1952) और ‘हम सफर’ के लिए संगीत तैयार किया तो एस डी बर्मन को उनका संगीत बहोत पसंद आया और वो फिल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ में संगीतकार एसडी बर्मन के सहायक बन गये । एक स्वतंत्र संगीत निर्देशक के रूप में उन्हें बड़ा ब्रेक चेतन आनंद की फिल्म जोरू का भाई से मिला, उसके बाद उन्होंने चेतन आनंद की अगली फिल्म अंजलि की , ये दोनों फिल्में बहुत लोकप्रिय हुईं। हालाँकि नवकेतन की फिल्म हम दोनों (1961) से जयदेव सुर्खियों में आए, “अल्लाह तेरो नाम”, “अभी ना जाओ छोड़ कर”, “मैं जिंदगी का साथ” और “कभी खुद पे कभी हालात पे ” जैसे क्लासिक गानों के साथ।’ उनकी दूसरी बड़ी सफलता सुनील दत्त अभिनीत फिल्म मुझे जीने दो (1963) से मिली। हालाँकि जयदेव की कई फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल रहीं, लेकिन उनमें से कई, जैसे अलाप , किनारे किनारे और अनकही , को उनके कल्पनाशील संगीत के लिए याद किया जाता है। जयदेव ने मुजफ्फर अली की फिल्म ‘गमन’ में सीने में जलन , रात भर आपकी याद आती रही और अजीब सा नेहा मुझपर गुजर गया यारों ,जैसी अपनी ग़ज़लों और गानों से एक बार फिर प्रसिद्धि हासिल की । उन्होंने गमन में सुरेश वाडकर, ए हरिहरन और उनकी शिष्या छाया गांगुली जैसे कई नए गायकों को पेश किया ।
लोक संगीत को मिश्रित करने की अद्वितीय क्षमता
जयदेव में पारंपरिक और लोक संगीत को हिंदी फिल्म स्थितियों में मिश्रित करने की अद्वितीय क्षमता थी, जिससे उन्हें अपने समय के अन्य संगीत निर्देशकों का अद्वितीय साथ भी मिला। उन्हें हिंदी कवि हरिवंश राय बच्चन की क्लासिक कृति मधुशाला के दोहों के गैर-फिल्मी एल्बम के लिए भी जाना जाता है, जिसे गायक मन्ना डे गाया है। वो सलिल चौधरी और मदन मोहन के अलावा लता मंगेशकर के पसंदीदा संगीतकारों में से एक रहे । उन्होंने नेपाली फिल्म मैतीघर के लिए भी संगीत तैयार किया।
जयदेव ने कभी शादी नहीं की. वो अपनी बहन के परिवार के क़रीब रहे जो बाद में यूनाइटेड किंगडम में बस गया। 6 जनवरी 1987 को अड़सठ 68 वर्ष की आयु मे वो नई सुरलहरियों को तलाशते हुए हमारी दुनिया से दूर चले गए । जयदेव तीन राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले पहले संगीत निर्देशक थे। उनके संगीत को अगर हम फिल्मों के ज़रिए याद करें तो कुछ फिल्में फौरन ही हमारे ज़हन में दस्तक देती हैं जैसे , जोरू का भाई (1955), समुंद्री डाकू (1956), अंजलि (1957), हम दोनों (1961), किनारे किनारे (1963), मुझे जीने दो (1963), मैतीघर (नेपाली फिल्म) (1966), हमारे गम से मत खेलो (1967), जियो और जीने दो (1969), सपना (1969), आषाढ़ का एक दिन (1971), दो बूंद पानी (1971) का गीत पीतल की मोरी गगरी में भी एक अद्भुत संगीत है,रेशमा और शेरा (1971) इसका गीत तू चंदा मैं चांदनी आजभी उतना ही पुर असर है। अगली फिल्म के बारे में जब हम बात करें तो याद आती है, प्रेम पर्वत (1973) का गीत ये दिल और उनकी निगाहों के साए हमें बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है, फासला (1974), परिणय (1974), लैला मजनू (1976) फिल्म के गीतों को भूलना तो किसी भी संगीत प्रेमी के लिए आसान नहीं है। इस फिल्म में उन्होंने मदन मोहन के साथ काम किया था । अलाप (1977), घरौंदा (1977), दूरियां (1978) और गमन (1978) कुछ फिल्में उनके अभिनय से भी सजी हैं जिनमें आप जयदेव को देख सकते हैं जैसे :- कीमत (1973), मिस फ्रंटियर मेल (1936), हंटरवाली (1935) और मार्तंड वर्मा (1933)। सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन के लिए आपको राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला :फिल्म अनकही (1985), गमन (1979), रेशमा और शेरा (1972) इसके अलावा सुर श्रृंगार संसद पुरस्कार, और चार बार लता मंगेशकर पुरस्कार मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्राप्त हुआ ।