मोहन राकेश कि कहानियां कैसे साहित्य जगत में ले कर आईं भूचाल!

साल 1955-56 साहित्य जगत के लिए नए आयाम लेकर आया..अभी तक की लेखनी  में जो आईडीलिस्म  यानि आदर्शवाद था उससे मोहभंग हुआ और इससे फूटा यथार्थवाद का बीज.साहित्य और परिपक्व हुआ.अस्तित्ववाद को जगह मिली और मानवीय मन की जटिलताओं को जैसे अभिव्यक्ति मिल गयी.ये  दौर था नयी कहानी का.इसके अनुयायिओं में दौर के बेहतरीन लेखक मोहन राकेश का जन्म आज ही के दिन साल 1925 में ब्रिटिश इंडिया के पंजाब में  हुआ था…. आधुनिक नाटकों की बात की जाए और आषाढ़ का एक दिन का  ज़िक्र न हो,बात नहीं बनती…. कालिदास वो पुराने न रहे..उनका नाम छोड़कर सबकुछ नया था,उनकी विडंबना,मल्लिका का प्रेम,सामजिक बंदिशें, एक माँ का डर  ।मानवीय भावनाओ की उथल पुथल और प्रेम और कामयाबी के बीच के चुनाव के अंतर्द्वंद को जिस तरह से ये नाटक पेश करता है यकीनन वो इसके हमेशा प्रासंगिक  बने रहने का एक बड़ा  कारण है.नाटक आप पढ़ते कम हैं इसको जीते ज़्यादा हैं.शैली ऐसी है कि पूरा नाटक कल्पना में आ जायेगा।पढ़ के उठेंगे तो ज़हन में रह जाएगा बिलकुल ऐसे जैसे सिनेमाघर से कोई बेहतरीन मास्टरपीस देख कर निकल रहे हों.प्रकृति के सौंदर्य को जैसे वर्णित किया गया है वो यकीनन एक साहित्यिक ह्रदय को दर्शाता है.पहाड़,बारिश,बिजली सब जीवंत हो उठता है…

लेकिन यथार्थ के साथ कोई समझौता नहीं।।मोहन राकेश को 1968 में  संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया। … 

मोहन राकेश की कहानियां शहरी मध्यमवर्ग के जीवन में घुसपैठ करके उसकी विडंबनाओं,उधेड़बुन और बाहरी शोर में गुम भीतरी अकेलेपन को खोजकर उसे परत दर परत उधेड़कर सामने परोस देती हैं बिना पात्रों पर कोई जजमेंट पास करते हुए..एक और ज़िन्दगी के प्रकाश का बिखरा हुआ जीवन हो या मिस पॉल का भीतरी खोखलापन मानवीय भावनाओं को इतनी परिपक्वता से शायद ही किसी लेखक ने परोसा है…मिस पॉल का घर,रहन सहन सबकुछ धीरे धीरे मिस पॉल को समझा देगा,बाहरी वस्तुओं और भौतिकता को भावनाओं  की अभिव्यक्ति बनाने की कला में मोहन राकेश निपुण  रहे हैं.

1963 में  मोहन राकेश ने लहरों के राजहंस लिखा।इस नाटक में आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन के बीच के चुनाव में आ रहे अंतर्द्वंद को  दिखाया गया है.किरदार अलग अलग मानसिक प्रवृत्ति के हैं और नाटक प्रतीकवाद का एक बेहतरीन उदाहरण  है.सुंदरी का चरित्र चारवाक के सिद्ध्नात के अनुरूप चलता है वो संसार को संदर्भित करता है, सुंदरी आत्ममुग्ध है,अहंकारी है.नाटक का केंद्रीय पात्र नन्द गौतम बुद्ध का सौतेला भाई है जो उनसे प्रभावित होकर घर छोड़कर सन्यासी होना चाहता है लेकिन संसार यानि अपनी स्त्री के मोहवश फंसा हुआ है.नाटक इसी अंतर्द्वंद और मानवीय जटिलताओं को समेटे हुए आगे बढ़ता है.  

साल 1969 में आधे अधूरे नाटक लिखा गया.ये  नाटक कई बार कई मंचों पर अभिनीत किया जा चुका है.नाम के अनुरूप नाटक का हर पात्र अधूरा है,टूटा हुआ है और पूर्णता की तलाश में है.बिखरा हुआ मध्यमवर्गीय  परिवार,उनके बीच का कम्युनिकेशन गैप,आकांक्षाएं,बदलते परिवेश में स्त्री पुरुष के रिश्तों की जटिलता को ये नाटक बेहतरी से समझाता  है. 

महेन्द्रनाथ जो दोस्तों के बीच काफी हंसमुख है घर में एक नकारा हुआ व्यक्ति है.अपनी बीवी पर आश्रित होने की वजह से वो उसका सम्मान नहीं करती और अपने लिए एक ऐसे पुरुष की तलाश में है  जो अपने आप में पूरा है और उसे अपनी इस पूर्णता की परिभाषा में कुछ विषेशताओं के साथ लोग भी मिलते हैं पर फिर एक वक्त पर आकर वो उनसे भी हताश ही होती है.स्त्री मन की ऐसी आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति को नाटक बड़ी  बखूबी  दर्शाता है.सामाजिक बंधनों को और आधुनिकता और रूढ़िवादिता के बीच पिसते इंसानी जीवन को चित्रित करने में ये नाटक सफल रहा है  लगता ही नहीं  की नाटक उस दौर में लिखा गया था.. जब भी व्यक्ति के अंतर्द्वंदों और उसके प्रभावों की बात होगी इस नाटक का ज़िक्र होना बेहद लाज़मी हो जाएगा।स्त्री पुरुष के रिश्तों में जो जटिलता है वो आधुनिकता की विषेशताएं  जैसी आत्मनिर्भरता,तथाकथित स्वतंत्र और  प्रगतिशील जीवन  लेकिन साथ ही में रिश्ते में स्थाइत्व की तलाश के बीच की उधेड़बुन के कारण है. ये विरोधाभास जीवन में उलझने ला रहा है और परिणामस्वरूप आपसी रिश्तों  पर भी उसका असर पड़ता जा रहा है.दो तरह के जीवन जीने की चाह में नाटक के पात्र एक भी चुनाव नहीं कर पा रहे हैं.

मोहन राकेश ने उपन्यास भी लिखी जैसे अंधेरे बंद कमरे,अन्तराल,न आने वाला कल,काँपता हुआ दरिया,ये उपन्यास अधूरा रहा…. 

मोहन राकेश के किस्सों और नाटकों के किरदार स्वतंत्र हो कर भी खुश नहीं हैं.उनमे एक खालीपन है लेकिन ये किरदार किसी भी तरह से जीवन को छोड़कर भागते नहीं हैं जो अमूमन आदर्शवादी लेखनी का हिस्सा रहा है.इनके पात्र जीवन  के सघर्षों से  क्रांति कर के एक बेहतर अंत की और अग्रसर नहीं है,बल्कि इनके किरदार संघर्ष करते हैं और उसी से कहानी आगे बढ़ती है.उनके ही द्वन्द,उनकी प्रवृत्तियां कहानी बना देती हैं.कुछ भी अतिश्योक्ति नहीं पर पढ़ने के बाद एक खालीपन रेंग  जाएगा।  इनकी  कहानियां अंत को अग्रसर नहीं हैं बल्कि अंत कहानी का मात्र एक हिस्सा है. किस्सों और नाटकों का अंत  समाधानपरक  या उपदेशात्मक नहीं है.संघर्षों के बीच जूझते मोहन राकेश के पात्र तब प्रासंगिक थे आज हैं और आने वाले कई सालों तक बने रहेंगे और जब भी नयी कहानी का ज़िक्र होगा,मानव के चरित्र  का ज़िक्र होगा,भावनाओं का ज़िक्र होगा,अस्तित्ववाद का ज़िक्र होगा और साहित्य के बेहतरीन धुरंधरों का ज़िक्र होगा 

मोहन राकेश का नाम  अनायास ही जुबान पर आता रहेगा।

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