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Shabd Sanchi Special Show Rupahali Yaadein | Mohammed Rafi Birth Anniversary | 24 December 2024

Mohammed Rafi Birth Anniversary, 24 December 2024

Mohammed Rafi Birth Anniversary, 24 December 2024

Mohammed Rafi Birth Anniversary, 24 December 2024 / Nazia Begum | अपनी नेमत का खज़ाना देकर खुदा ने ज़मीं पे उतारा था उसे जिस भी रूप में एक आदमी को अपनी जान से बढ़कर अज़ीज़ मान सके हम ,अपने नग़्मों के ज़रिए हर वो किरदार निभाया उसने कभी दोस्त बनके कहा ,कोई जब राह न पाए मेरे संग आए…,कभी भाई बनके आवाज़ दी,.. चल चल मेरे भाई तो…,कभी बाप बनके दुआ दी ..बाबुल की दुआएं लेती जा.. और उनकी आवाज़ में मोहब्बत की तासीर की तो बात क्या कहें वो तो मानो सबकी रूह में उतरी है पर ये किसके शागिर्द थे?

कौन था इनका उस्ताद? कैसे दिखा गए वो ऐसी करामात , तो इस बारे में हम बस इतना ही कहेंगे कि ,जाने वो फ़कीर था या कोई फरिश्ता जो मोहम्मद रफी को शहंशाह ए तरन्नुम बनाने आया था जिसकी सिर्फ नक़ल करते करते मो. रफी ने सुरों से खेलना सीख लिया वो तो गलियों से गाते गुनगुनाते गुज़र गया मगर मो. रफी को गाने का ऐसा हुनर दे गया जो बरसों के रियाज़ के बाद भी नहीं मिलता ,अब इसे नसीब कहें या खुदा की कुदरत कि एक छोटा बच्चा किसी के गाने की रौ में यूं बहा की उसके पीछे हो लिया और सात साल की उमर में वो हुबहू फकीर जैसा गाने लगा और लोगों को वाह वाह कहने पे मजबूर कर दिया फिर देखते ही देखते सुरों का शहंशाह बन गया।

24 दिसम्बर 1924 को अमृतसर, के पास कोटला सुल्तान सिंह में पैदा हुए मो. रफी की आवाज़ में ऐसी तासीर थी कि सुनने वालों को इतना सुकून मिलता था कि वो उन्हें बार बार सुनना चाहते थे मानो उनके मुरीद हो जाते हों ,जब वो छोटे थे तब उनका परिवार रोज़गार के सिलसिले में लाहौर आ गया संगीत से तो कोई खास सरोकार था ही नहीं , बड़े भाई ने नाई की दुकान खोल ली थी जहां रफ़ी साहब का काफी वक्त गाते हुए गुज़रता था और यहीं उन्हें वो फ़कीर दिखता था जिनकी बदौलत सुरों में कशिश ऐसी आई थी कि दुकान में भीड़ लग जाया करती थी ये देखकर , उनके बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत की तालीम लेने के लिए भेजा था , 1933 की बात है जब पंडित जीवन लाल उनसे बाल कटवाने के लिए पहुंचे और वो अपना काम करते हुए अमृतसरी अंदाज़ में वारिस शाह की हीर गा रहे थे जिसे सुनने के बाद जीवन लाल ने उनका ऑडिशन लिया और उसके बाद उन्हें पंजाबी संगीत भी सिखाया।

एक बार आकाशवाणी लाहौर में उस समय के प्रख्यात गायक-अभिनेता कुन्दन लाल सहगल अपना प्रोग्राम करने आए और उन्हें सुनने के लिए मोहम्मद रफ़ी और उनके बड़े भाई भी पहुंचे पर बिजली गुल हो जाने की वजह से सहगल ने गाने से मना कर दिया ,इस पर रफ़ी के बड़े भाई ने आयोजकों से निवेदन किया की भीड़ की व्यग्रता को शांत करने के लिए मोहम्मद रफ़ी को गाने का मौका दिया जाय और आयोजकों ने उनकी बात मान ली बस फिर क्या था 13 बरस के मोहम्मद रफ़ी ने अपने पहले सार्वजनिक प्रदर्शन के साथ इतिहास रच दिया प्रेक्षकों में ,उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार श्याम सुन्दर भी मौजूद थे, जो इतना मुतासिर हुए की उन्होने मोहम्मद रफ़ी को अपने लिए गाने का न्यौता दिया और इस तरह मोहम्मद रफ़ी का फ़िल्मों में गाने का सफर शुरू हुआ ,उनका पहला गाना एक पंजाबी फ़िल्म ‘ गुल बलोच ‘ के लिए था जिसे उन्होने श्याम सुंदर के निर्देशन में 1944 में गाया इसके बाद मोहम्मद रफ़ी साहब ने ने बम्बई आने का फैसला किया और भीड़-भाड़ वाले भिंडी बाजा़र इलाके में दस गुणा दस फीट का कमरा किराए पर लिया।

तब कवि तनवीर नकवी ने उन्हें अब्दुर रशीद कारदार , महबूब खान और अभिनेता-निर्देशक नज़ीर सहित कई फिल्म निर्माताओं से मिलवाया इस समय श्याम सुंदर भी बंबई में थे और उन्होंने रफी ​​जी को जीएम दुर्रानी के साथ एक युगल गीत गाने का अवसर दिया , “अजी दिल हो काबू में तो दिलदार की ऐसी तैसी…,” गांव की गोरी के लिए , जो रफी साहब का हिंदी फिल्म के लिए पहला गीत बन गया। फिर संगीतकार नौशाद ने ‘ पहले आप’ नाम की फ़िल्म में आपको गाने का मौका दिया लेकिन वो जिस कमियाबी के हकदार थे वो उन्हें मिली नौशाद जी के ही सुरबद्ध गीत तेरा खिलौना टूटा 1946 की फ़िल्म अनमोल घड़ी, से, इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी में भी रफ़ी के गाए गाने बेहद मशहूर हुए ,1947 की फिल्म जुगनू में वो दिलीप कुमार के साथ नज़र भी आए थे फिर बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी को मुख्यधारा गायक के रूप में स्थापित कर दिया और वो हर गीत को गाने के लिए सबकी पहली पसंद बन गए, जब सिर्फ मुकेश ही राज कपूर के लिए गाते थे तब भी राज कपूर के लिए रफी साहब ने गाने गाए। संगीतकार सचिन देव बर्मन और ओ पी नैय्यर को भी रफ़ी साहब की आवाज़ बहुत रास आयी फिर उन्होने अपने निराले अंदाज में रफ़ी-आशा की जोड़ी से बेहद दिलकश गीत गवाएं जिनमें उनकी खनकती धुनें आज भी एक ख़ास मकाम रखती हैं।

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देखते ही देखते मो . रफी की आवाज़ में पिरोया हर नग़्मा अनमोल हो गया , उन्हें शहंशाह ए तरन्नुम कहा गया, अपनी आवाज़ की मिठास और गायकी की नफासत से उन्होंने अपने समकालीन गायकों के बीच अलग पहचान बनाई उनकी आवाज़ हर अभिनेता के हिसाब से ढल जाती थी यूं लगता था मानो ये हीरो की अपनी आवाज़ है केवल लिप सिंक नहीं, कहते हैं भक्ति संगीत में वो अल्लाह बोलते वक्त जितने मुसलमान लगते थे ईश्वर बोलते वक्त उतने ही हिन्दू । 1940 के दशक से शुरुआत करने वाले रफी साहब ने 1980 तक कुल 5,000 गाने गाए इनमें हिन्दी गानों के अलावा कई भाषाओं के साथ ,ग़ज़ल, भजन, देशभक्ति गीत, क़व्वाली भी शामिल हैं।

फ़िल्म चौदहवीं का चांद के शीर्षक गीत के लिए रफ़ी को अपना पहला फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिला। 1961 में रफ़ी को अपना दूसरा फ़िल्मफेयर आवार्ड फ़िल्म ससुराल के गीत तेरी प्यारी प्यारी सूरत को मिला। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपना आगाज़ ही रफ़ी के स्वर से किया और 1963 में फ़िल्म पारसमणि के लिए बहुत सुन्दर गीत बनाए। इनमें सलामत रहो तथा वो जब याद आये (लता मंगेशकर के साथ) को ख़ास पहचान मिली । 1965 में ही लक्ष्मी-प्यारे के संगीत निर्देशन में फ़िल्म दोस्ती के लिए गाए गीत चाहूंगा मै तुझे सांझ सवेरे के लिए रफ़ी को तीसरा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा।

1965 में संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी द्वारा फ़िल्म जब जब फूल खिले के लिए संगीतबद्ध गीत परदेसियों से ना अखियां मिलाना लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच गया था। 1966 में फ़िल्म सूरज के गीत बहारों फूल बरसाओ बहुत प्रसिद्ध हुआ और इसके लिए उन्हें चौथा फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला। इसका संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था। 1968 में शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ब्रह्मचारी के गीत दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर के लिए उन्हें पाचवां फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला और 1977 में फ़िल्म हम किसी से कम नहीं के गीत क्या हुआ तेरा वादा के लिए उन्हे अपने जीवन का छठा तथा अन्तिम फ़िल्म फेयर एवॉर्ड मिला मोहम्मद रफ़ी बहुत हँसमुख और दरियादिल थे वो हमेशा सबकी मदद के लिये तैयार रहते थे। कई फिल्मी गीत उन्होंने बिना पैसे लिये या बेहद कम पैसे लेकर गाये। उधार के नाम पर दिए पैसे वापस नहीं लेते थे कहते थे मुझे याद ही नहीं मैने कब दिए थे जब याद आएगा तो ले लूंगा पर फिर कभी नहीं लेते।

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निर्माता-निर्देशक मनमोहन देसाई जी को भी एक बार रफ़ी जी की आवाज़ का वर्णन करने के लिए कहा गया तो उन्होंने टिप्पणी की कि “अगर किसी के पास भगवान की आवाज़ है, तो वो मोहम्मद रफ़ी हैं” गानों की रॉयल्टी को लेकर लता मंगेशकर के साथ उनका विवाद भी उनकी दरियादिली की ही निशानी था ,रफ़ी साहब इसके ख़िलाफ़ थे क्योंकि उनका कहना था कि एक बार गाने रिकॉर्ड हो गए और गायक-गायिकाओं को उनकी फीस का भुगतान कर दिया गया हो तो उन्हें और पैसों की आशा नहीं करनी चाहिए। इस बात को लेकर दोनो महान कलाकारों के बीच मनमुटाव हो गया। लता ने रफ़ी के साथ सेट पर गाने से मना कर दिया और बरसों तक दोनो का कोई युगल गीत नहीं आया फिर अभिनेत्री नरगिस के कहने पर दोनों ने साथ गाना दुबारा शुरू किया और फिल्म ‘ज्वैल थीफ’ में दिल पुकारे गाना गाया।

गाना उनके लिए खुदा की इबादत से कम नहीं था शायद इसीलिए बैजू बावरा फिल्म के गीत’ ओ दुनिया के रखवाले’ गाते वक्त हाई नोट्स पर गाते हुए उनके गले से खून निकलने के बावजूद भी उन्होंने गाना पूरा किया, कहते हैं एक क़ैदी ने इस गाने को बतौर अपनी आखरी ख्वाहिश सुना था. शायद उनका आखरी गीत फिल्म आस पास के लिए था। ” शाम फिर क्यों उदास है दोस्त/तू कहीं आस पास है दोस्त “, जिसे उनकी मृत्यु से कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड किया गया था। 31 जुलाई 1980 को मो . रफी इस दुनिया ए फानी से कूच कर गए ,भारत सरकार ने उनके निधन पर दो दिन का शोक घोषित किया. तलत अज़ीज़ की तरह हम भी यही कहते हैं कि न फनकार तुझसा तेरे बाद आया मोहम्मद रफी तू बहोत याद आया ।

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