Mirza Galib Ke Kisse | मिर्ज़ा ग़ालिब और उनके क़िस्से

Mirza Galib Ke Kisse

Mirza Galib Ke Kisse Hindi Mei: सोशल मीडिया के दौर में आपने यह पंक्तियाँ जरूर पढ़ी होंगी। यह शेर है ग़ालिब का, ग़ालिब जिन्हें उर्दू अदब और हिंदवी जुबान का महानतम शायर माना जाता है।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पर दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान फिर भी कम निकले

फ़ारसी को हिंदुस्तानी ज़बान में लोकप्रिय करने का श्रेय ग़ालिब को ही दिया जाता है। हालांकि उनसे पहले मीर तक़ी ‘मीर’ को भी इसीलिए जाना जाता था। मीर के लिए ग़ालिब ने भी कहा था –

रेख़्ते के तुम्ही उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’

कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था

मिर्ज़ा ग़ालिब का परिचय –

लेकिन बात आज ग़ालिब की। मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान जो असद और ग़ालिब तख़ल्लुस से लिखते थे। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 में आगरा में हुआ था। उनका परिवार सैनिक और जमींदारों का परिवार था, उनके दादा मुग़ल बादशाह अहमद शाह के दौर में समरकंद से आकर आगरा बस गए थे। ग़ालिब आगे चलकर दिल्ली में बस गए थे। वे अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘जफ़र’ के दरबार के प्रमुख शायरों में से थे। जफ़र जो खुद शेरो-शायरी करते थे। उनके दरबार में ग़ालिब के इलावा जौक और मोमिम जैसे फनकार भी थे। बादशाह जफ़र ने उन्हें दाबिर-उल-मुल्क और नज्म-उद-दौला की उपाधि दी। बादशाह ने उन्हें मुग़ल दरबार का इतिहासकार और शहजादा फ़क्र-उद्दीन-मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त कर दिया था। हालंकि इतिहास पर ग़ालिब कहते थे “मुर्दा परवरदन मुबारक कार नीस्त” यानी मरे हुए लोगों से बहुत ज्यादा प्रेम कोई अच्छा काम नहीं है।

ग़ालिब और शराब –

ग़ालिब का खर्च पेंशन से चलता था। पहले उन्हें 52 रूपये 8 आने मिलते थे, जिसको बढ़वाने के लिए उन्होंने दिल्ली से कलकत्ता तक की बड़ी कष्टदायक यात्रा भी थी, हालांकि पेंशन नहीं बढ़ी। मुग़ल दरबार का जो प्रमुख शायर होता था उसे 400 रुपए महीने की तनख्वाह मिलती थी। इसीलिए ग़ालिब भी मुग़ल दरबार में उच्च पद चाहते थे। जौक के बाद वह बने भी। शेरो-शायरी के अलावा ग़ालिब शराब के भी शौक़ीन थे, अच्छी और विलायती शराब के लिए ग़ालिब दिल्ली से 82 किलोमीटर दूर मेरठ छावनी तक जाते थे। वहाँ अंग्रेज अफसरों के लिए अच्छी ब्रांड की विलायती शराब आती थी। वैसे तो ग़ालिब व्हिस्की और रम भी पी लेते थे लेकिन टॉम मॉन्क ब्रांड की जिन उन्हें पसंद थी। कहते हैं पटियाला के तत्कालीन महाराज मोहिंदर सिंह ने ग़ालिब को पटियाला आने का निमंत्रण दिया था, ग़ालिब तैयार भी थे लेकिन जब उन्हें पता चला कि वहां उनकी फेवरेट शराब का ब्रांड महंगा है, तो उन्होंने पटियाला जाने का विचार त्याग भी दिया। शराब के साथ ग़ालिब को जुआ खेलने की भी लत थी। शराब पीने और जुआ खेलने के चक्कर में ग़ालिब पर कर्ज बहुत था, जिसके चक्कर में वह एक बार 3 महीने की कैद में भी थे। वह खुद कहते हैं –

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां 

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन 

गधे आम नहीं कहते -

ग़ालिब आम खाने का भी शौक रखते थे। एक बार आम के सीजन में वो बादशाह के साथ शाही बाग़ में घूम रहे थे, इन फलों को केवल मुग़ल शाही परिवार के लोग ही खा सकते थे। और ग़ालिब शाही परिवार से थे नहीं। वह आम के पेड़ों का बड़े गौर मुयायना कर रहे थे। बादशाह ने पूछा क्या देख रहे हैं, ग़ालिब ने कहा हुजूर एक बार किसी शायर ने कहा था 'हर आम पर उसे खाने वाले का नाम लिखा होता है'तो मैं अपने परिवार और अपना नाम तलाश रहा हूँ। बादशाह मुस्कुराए और शाम तक एक टोकरी आम ग़ालिब के घर भिजवा दिया।
आम को लेकर ही एक और किस्सा है, एक बार ग़ालिब अपने एक दोस्त हकीम रजीउद्दीन खान के साथ अपने घर के बरामदे में बैठे थे। उनके इस दोस्त को आम बिलकुल पसंद नहीं थे। तभी वहां से एक गधा गुजरा, गधे ने बहार फेंके आम के छिलकों को सूंघा और आगे बढ़ गया। दोस्त ने कहा देखो गधे आम नहीं खाते, ग़ालिब ने कहा हाँ गधे ही आम नहीं खाते हैं।

हाजिर जवाब ग़ालिब -

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त
दिल को खुश करने की खातिर ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है

हालांकि यह शेर ग़ालिब के अकेलेपन को भी बयां करता है, ग़ालिब के 7 बच्चे हुए, लेकिन उनमें से कोई भी 2 साल से ज्यादा जीवित नहीं रहा। 1857 की क्रांति ने ग़ालिब को अत्यंत दुखी किया, फ़ारसी में लिखी डायरी में वो अपना यह दर्द बयां भी किया। कहते हैं क्रांति के बाद अंग्रेजों ने पूरे दिल्ली को छावनी में बदल डाला। और तलाशी लेते हुए बल्लीमारन से ग़ालिब को पकड़ा गया,उनकी तुर्की वेशभूषा देख कर कर्नल ब्राउन ने टूटी-फूटी उर्दू में पूछा -
मुसलमान हो

ग़ालिब ने कहा-
आधा

कर्नल ब्राउन ने पूछा -
इसका मतलब

ग़ालिब ने कहा -
मैं शराब पीता हूँ, लेकिन पोर्क नहीं खाता

1868 दिल्ली में कोलेरा महामारी का आतंक फैला था। एक दिन वह घर से बाहर जा रहे थे, तो उनकी बेगम ने टोका जल्दी आ जाना बाहर बवा फैली हुई है। हाजिर जवाब ग़ालिब ने कहा मैं 71 साल का तुम 69 साल की हो, हम में से कोई मरा होता तो मानता बवा आई है। उन्होंने आगे एक शेर भी पढ़ा -

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बां कोई न हो पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वां कोई न हो

ग़ालिब की नज्मों में प्रेम और विरह तो प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित है ही, इश्क़ पर तो उन्होंने इतना लिखा है शायद ही किसी और ने उतना लिखा होगा। उनके नज्मों में एक रहस्यवाद और दर्शन भी है। इसकी बानगी उनके एक शेर में देखिए -

मौत तो एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

हैं और भी दुनिया में सुखन-वर बहुत -

अपने अंतिम समय में ग़ालिब अत्यंत मुश्क़िलों में जी रहे थे, मुग़ल शासकों द्वारा जी रही उनकी पेंशन भी अंग्रेजों ने बंद कर दी। तमाम दुश्वारियों के बाद भी वह लिखते रहे। ग़ालिब की जितनी इज्जत बड़ी महफ़िलों में होती थी, उतनी ही जुआरियों में भी होती थी। वह किसी भी धर्म और परंपरा में बंध कर नहीं जीते थे। वह न रोजे रखते और ना ही नमाज पढ़ते थे। हालांकि अपने प्रारंभ में वह शिया पंथ से जरूर जुड़े थे। वह जम कर शराब पीते थे शायद बच्चों को खो देने के कारण ही ऐसा रहा हो। दिलचस्प यह है कि अपने बारे में ग़ालिब खुद कहा करते थे-

होगा कोई ऐसा जो ग़ालिब को ना जाने
शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है

हैं और भी दुनिया में सुखन-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और

और चलते-चलते -

भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे लोकप्रिय कलमकार का निधन 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में हो गया था। उन्हें निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास दफनाया गया था। उनके मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी उनकी लोकप्रियता अभी भी बरक़रार है। अंत में उनकी पंक्तियों के साथ ही उन्हें याद करते हुए-

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता

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