पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम आपके लिए लेकर आए हैं 61वी किस्त। कल हमने लोटा थाली कटोरा आदि धातु शिल्पियों के बनाए बर्तनों की जानकारी दी थी। आज उसी श्रंखला में अन्य बर्तनों की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।
गिलास
धातु शिल्पियों ने अगर भोजन पकाने के लिए हाँड़ा बटुआ ,खाने केलिए थाली ,कटोरा आदि बनाया था तो पानी पीने के लिए लोटा गिलास भी। यह गिलासें शुरू- शुरू में तो पीतल की ही बनती रही होगीं ? क्यो कि किसी – किसी के घर में अब भी पुरानी गिलासें मौजूद हैं क्रमिक विकास में काँसे की तो बाद में बनीं। पर बाजार में स्टील ने आकर पीतल काँसे का भी अब वही हस्र कर दिया जो हाल इन धातुओं ने कभी मिट्टी और पत्थर के वर्तनों का किया था।
बटुआ
यह चावल रांधने का एक बर्तन था जो किसानों के संयुक्त परिवार में उपयोग होता था। दरअसल खेती किसानी उस समय संयुक्त परिवार में ही बेहतर ढंग से की जाती थी। उस समय लोगों की मान्यता थी कि ( जितने हाथ उतना ही काम ) अस्तु जिसका जितना बड़ा परिवार होता उतनी ही बड़ी खेती रहती। तब उन बड़े – बड़े परिवारों के लिए ऐसे बर्तनों की जरूरत होती जिसमें 10-12 लोगों का भोजन एक साथ बन सके। इसके लिए बटुआ ही उपयुक्त माना जाता था।
यह काँसे का बना बर्तन होता था जिसे ताँबा और जत्सा के 100 एवं 60 के अनुपात से बनाया जाता था। इसे धातु शिल्पी ताम्रकार बनाकर किसी मेले में बेंचने ले जाते और फिर किसान वहां से खरीद कर घर लाते। उस समय विवाह आदि में भी दहेज के रूप में कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को हांडा बटुआ ही दिए जाते थे। पर इन धातु के बर्तन में एक विशेषता यह थी कि इन्हें बिपत्ति के समय गहन रख य बेंच कर अपनी समस्या का निदान भी खोजा जा सकता था। अब तो स्टील खुद ही उपयोग करो फेंको धातु है जो तीन चार साल में घर से निकलअगलनशील कचड़ा बन जाती है । पर इन कीमती धातुओं को भी उसने पुरावशेष बनाकर रख दिया है।
हांड़ा
हांड़ा पीतल का बर्तन है जिसे तांवा एवं जत्सा के 100 एवं 40 के अनुपात से धातु शिल्पी बनाते हैं।इसमें पहले बारात आदि के खाने के लिए भोजन बनाया जाता था। यह ऐसा बर्तन है जिसे दहेज में देने की परम्परा भी है अस्तु उपयोग में कमी के बाबाजूद भी इसका ब्यावसाय बरकरार है।
लेकिन अब वह सिर्फ घर के किसी कोने में रखे रहने तक ही सीमित है। जबकि प्राचीन समय में जब टेंट हाउस के बर्तन आदि किराए पर नही मिलते थे तब गाँव के किसी सम्पन्न घर में ही हुआ करता था और विवाह के समय में गाँव भर के लोग वहीं से माँग कर ले जाते एवं भोजन पकाकर बरात को खिलाते। फिर माँज धो कर उन सम्पन्न ब्यक्ति के घर सौंप आते। वह सम्पन्न परिवार इस मदद को अपनी गरिमा से जोड़ता आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे नई जानकारी के साथ।