(उदासियों ने मेरी आत्मा को घेरा है
रू-पहली चाँदनी है और घुप अंधेरा है
कहीं कहीं कोई तारा कहीं कहीं जुगनू
जो मेरी रात थी वो आप का सवेरा है
क़दम क़दम पे बगूलों को तोड़ते जाएँ
इधर से गुज़रेगा तू रास्ता ये तेरा है
उफ़क़ के पार जो देखी है रौशनी तुम ने
वो रौशनी है ख़ुदा जाने या अंधेरा है
सहर से शाम हुई शाम को ये रात मिली
हर एक रंग समय का बहुत घनेरा है
ख़ुदा के वास्ते ग़म को भी तुम न बहलाओ
इसे तो रहने दो, मेरा ,यही तो मेरा है )
ये अशआर हैं मीना कुमारी के जो न केवल परदे पर अपने संजीदा और उम्दा अभिनय से ट्रेजिडी क्वीन कहलाई बल्कि असल जिंदगी में भी गमों और जद्दोजहद का सामना करती रहीं और शायराना मिज़ाज की मीना कुमारी अपने दिल के दुखों और तकलीफों को कलम के ज़रिए कागज़ पर उतारने लगी ,इससे भी जब ग़म न हल्का हुआ तो नशे में रहने लगी पर ग़म तो कम न हुआ मौत ज़रूर बेवक्त आ गई और एक अज़ीम शख्सियत का, सादगी से भरा उम्दा रहन सहन,जीने का सलीका , ग़मों को भी बहला लेने का वो दिलनशीं अंदाज़ खूबसूरती के साथ इस जहां से दूर चला गया सुकून की आगोश में सो गई महजबीं।
पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है रात ख़ैरात की, सदक़े की सहर होती है। साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब दिल ही दुखता है, न अब आस्तीं तर होती है ,जैसे जागी हुई आँखों में, चुभें काँच के ख़्वाब रात इस तरह, दीवानों की बसर होती है। ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूँढता है, एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है। एक मर्कज़ की तलाश, एक भटकती ख़ुशबू कभी मंज़िल, कभी तम्हीदे-सफ़र होती है ,दिल से अनमोल नगीने को छुपायें तो कहाँ ,बारिशे-संग यहाँ आठ पहर होती है। काम आते हैं न आ सकते हैं बे-जाँ अल्फ़ाज़ तर्जमा दर्द की ख़ामोश नज़र होती है.।
इन शेरों को गौर से सुनिए और समझने की कोशिश करिए की क्या कभी अल्फाजों के ज़रिए इतना दर्द बयां हो सकता है जितना दिल में होता है। अभिनेत्री होने के साथ-साथ मीना कुमारी एक उम्दा शायरा एवम् पार्श्वगायिका भी थीं। इन्होंने वर्ष 1939 से 1972 तक फ़िल्मी पर्दे पर काम किया । उन्होंने 1945 तक बहन जैसी फिल्मों के लिए एक बाल कलाकार के रूप में गाया। एक नायिका के रूप में, उन्होंने दुनिया एक सराय (1946), पिया घर आजा (1948), बिछड़े बालम (1948) और पिंजरे के पंछी (1966) जैसी फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज दी। उन्होंने पाकीज़ा (1972) के लिए भी गाया, हालांकि, इस गाने का फिल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया था और बाद में इसे (1977) में पाकीज़ा-रंग बा रंग एल्बम में रिलीज़ किया गया था। मीना कुमारी की पैदाइश 1 अगस्त 1933 को बम्बई में हुई।
उनके पिता अली बक्श पारसी रंगमंच के एक मँझे हुए कलाकार थे और उन्होंने फ़िल्म “शाही लुटेरे” में संगीत भी दिया था। उनकी माँ प्रभावती देवी जो बाद में इकबाल बानो बनीं वो भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी। मीना कुमारी की बड़ी बहन खुर्शीद जुनियर और छोटी बहन यानी (बेबी माधुरी) भी फिल्म अभिनेत्री थीं। मुफलिसी की वजह से मीना फिल्मों में आईं पर यूं लगता है अगर वो फिल्मों में न आती तो उनके द्वारा निभाए गए मुख्तलिफ किरदार उनके अलावा कौन इस खूबसूरती से अदा कर पाता जो उन्होंने निभाए और एक मिसाल कायम की जिसमें बेमिसाल हुस्न था दिलनशी आवाज़ थी और उम्दा अल्फाजों की जादूगरी भी थी।
महजबीं पहली बार 1939 में फिल्म निर्देशक विजय भट्ट की फिल्म “लैदरफेस” में बेबी महजबीं के रूप में नज़र आईं। और 1940 की फिल्म
“एक ही भूल” में विजय भट्ट ने इनका नाम बेबी महजबीं से बदल कर बेबी मीना कर दिया। 1946 में आई फिल्म बच्चों का खेल से बेबी मीना 13 वर्ष की आयु में मीना कुमारी बनीं। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं जिनमें हनुमान पाताल विजय, वीर घटोत्कच व श्री गणेश महिमा प्रमुख हैं।
1952 में आई फिल्म बैजू बावरा ने मीना कुमारी के फिल्मी सफ़र को नई उड़ान दी। मीना कुमारी द्वारा अभिनीत गौरी के किरदार ने उन्हें घर-घर में प्रसिद्धि दिलाई। फिल्म 100 हफ्तों तक परदे पर रही और 1954 में उन्हें इसके लिए पहले फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1953 तक मीना कुमारी की तीन फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं। परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूँकि इस फिल्म में भारतीय नारी की आम जिंदगी की कठिनाइयों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू छाया रहा और लगातार दूसरी बार उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार के लिए चयनित किया गया।
1954 से 1956 के बीच मीना कुमारी ने विभिन्न प्रकार की फिल्मों में काम किया। जहाँ चाँदनी चौक (1954) और एक ही रास्ता (1956) जैसी फिल्में समाज की कुरीतियों पर प्रहार करती थीं, तो वहीं अद्ल-ए-जहांगीर (1955) और हलाकू (1956) जैसी फिल्में तारीख़ी किरदारों पर आधारित थीं। 1955 की फ़िल्म आज़ाद, दिलीप कुमार के साथ मीना कुमारी की दूसरी फिल्म थी। ट्रेजेडी किंग और ट्रेजेडी क्वीन के नाम से प्रसिद्ध दिलीप और मीना की इस हास्य प्रधान फ़िल्म ने दर्शकों की खूब वाहवाही लूटी। मीना कुमारी के उम्दा अभिनय ने उन्हें फ़िल्मफ़ेयर मे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार के लिए नामांकित भी किया। फ़िल्म आज़ाद के गाने “अपलम चपलम” और “ना बोले ना बोले” आज भी प्रचलित हैं।
1957 में मीना कुमारी दो फिल्मों में पर्दे पर नज़र आईं। प्रसाद कृत पहली फ़िल्म मिस मैरी में मीना कुमारी ने दक्षिण भारत के मशहूर अभिनेता जेमिनी गणेशन और किशोर कुमार के साथ काम किया। प्रसाद की ही कृत दूसरी फ़िल्म शारदा ने मीना कुमारी को भारतीय सिनेमा की ट्रेजेडी क्वीन बना दिया। यह उनकी राज कपूर के साथ की हुई पहली फ़िल्म थी। जब उस ज़माने की सभी अदाकाराओं ने इस रोल को करने से मन कर दिया था तब केवल मीना कुमारी ने ही इस रोल को स्वीकार किया था और इसी फिल्म ने उन्हें उनका पहला बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब दिलवाया। उनकी बेपनाह मोहब्बत का अरमान निर्देशक कमाल अमरोही के फरेब पे आके थमा जब मीना कुमारी ने अपने से बड़े पहले से शादीशुदा होने पर भी उनसे से शादी की।
(आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता
जब ज़ुल्फ़ की कालक में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता
हँस हँस के जवाँ दिल के हम क्यूँ न चुनें टुकड़े
हर शख़्स की क़िस्मत में इनआ’म नहीं होता
दिल तोड़ दिया उस ने ये कह के निगाहों से
पत्थर से जो टकराए वो जाम नहीं होता
दिन डूबे है या डूबी बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता)
हाल ही में, कमाल अमरोही द्वारा निर्देशित उनकी आखिरी फिल्म ‘पाकीजा’ के सेट से मीना कुमारी की एक अनदेखी तस्वीर मिली। जो 60 के दशक की शुरुआत में क्लिक की गई इस तस्वीर में मीना कुमारी को ग्रीन कलर का अनारकली सूट पहने हुए दिखाया गया है, जिसे कथित तौर पर खुद उन्होंने डिजाइन किया था। उन्होंने अपने लुक को मैचिंग दुपट्टे और पिंक कलर के चूड़ीदार से पूरा किया था। उनके आउटफिट पर प्योर गोल्डन की जटिल कढ़ाई का काम हुआ था, जो अनुभवी कारीगरों द्वारा किया गया था। हैवी गोल्डन ज्वेलरी के साथ अपने लुक को संवारते हुए मीना बेहद खूबसूरत लग रही थीं।
चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआँ तन्हा
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा
हम-सफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा
जलती-बुझती सी रौशनी के परे
सिमटा सिमटा सा इक मकाँ तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा
अयादत होती जाती है इबादत होती जाती है
मेरे मरने की देखो सब को आदत होती जाती है
नमी सी आँख में और होंट भी भीगे हुए से हैं
ये भीगा-पन ही देखो मुस्कुराहट होती जाती है
तेरे क़दमों की आहट को है दिल ये ढूँढता हर दम
हर इक आवाज़ पे इक थरथराहट होती जाती है
ये कैसी यास है रोने की भी और मुस्कुराने की
ये कैसा दर्द है कि झुनझुनाहट होती जाती है
कभी तो ख़ूबसूरत अपनी ही आँखों में ऐसे थे
किसी ग़म-ख़ाना से गोया मोहब्बत होती जाती है
ख़ुद ही को तेज़ नाख़ूनों से हाए नोचते हैं अब
हमें अल्लाह ख़ुद से कैसी उल्फ़त होती जाती है
कुछ बेहतरीन नज़्में
(टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली ,जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली ,रिमझिम रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी, रिमझिम रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी ,आँखें हँस दीं दिल रोया, ये अच्छी बरसात मिली आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता, हंसी थमी है इन आंखों में यूं नमी की तरह ,चमक उठे हैं अंधेरे भी रौशनी की तरह ,चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा, दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा, ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं, जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा।)
न इन्तज़ार, न आहट, न तमन्ना, न उमीद ज़िन्दगी है कि यूँ बेहिस हुई जाती है हाँ, बात कुछ और थी, कुछ और ही बात हो गई וןऔर आँख ही आँख में तमाम रात हो गई प्यास जलते हुए काँटों की बुझाई होगी, रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा, मिल गया होगा अगर कोई सुनहरा पत्थर, अपना टूटा हुआ दिल याद तो आया होगा, खून के छींटे कहीं पोंछ न लें रेह्रों से, किस ने वीराने को गुलज़ार बनाया होगा
मीना कुमारी रील से ज्यादा अपने रियल लाइफ के लिए हमेशा ही चर्चे में रही। जीवन के अंतिम दिनों में खुद से लड़ते हुए शराब की लत इन्हें लग गई। ये लत ऐसी लगी कि इसी वजह से मात्र 38 वर्ष में ही इनकी मृत्यु हो गई पर हिंदी सिनेमा में काजल, साहब बीवी और गुलाम, बैजू बावरा, परिणीता, दो बीघा जमीन, मेरे अपने, पाकीज़ा आदि बेहतरीन फिल्मों के लिए ये सदा याद की जाती रहेंगी।
चलते चलते हम आपसे एक बात ज़रूर कहना चाहेंगे कि
उनकी एक झलक में पूरी शख्सियत को समझना न मुमकिन नहीं है उनके चाहने वालों के लिए आप भी कुछ गीतों को देख कर ये महसूस कर सकते हैं जैसे ,
- चलते चलते यूं ही कोई मिल गया था।
- बहारों की मंजिल राही।
- इन्हीं लोगों ने।
- तोरा मन दर्पण कहलाए।
- दिल अपना और प्रीत पराई
- हम इंतज़ार करेंगे।
ग़मज़दा रहते हुए 38 साल की उम्र में 31 मार्च 1972 को वो इस फानी दुनियां को अलविदा कह गईं।और हमारे लिए छोड़ गई अपनी अदाकारी के जलवों से भरी बेमिसाल फिल्मों का खज़ाना जिसका कोई सानी नहीं है जो अपने आप में हमें
मंत्रमुग्ध कर देने का माद्दा रखता हैऔर जिसके ज़रिए वो हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में जावेदा रहेंगी।
1 अगस्त 2018 को, सर्च इंजन Google ने मीना कुमारी को उनकी 85 वीं जयंती पर डूडल के साथ याद किया।
मीना कुमारी पर पहली जीवनी अक्टूबर 1972 में विनोद मेहता द्वारा उनकी मृत्यु के बाद लिखी गई थी। आधिकारिक जीवनी के रूप में, इसे मीना कुमारी – द क्लासिक बायोग्राफी शीर्षक दिया गया था जिसे मई 2013 में फिर से प्रकाशित हुई थी।
एक भावभीनी श्रद्धांजलि शब्द सांची की तरफ से मीना कुमारी को