रीवा। दुलर्भ औषधियों से वन क्षेत्र लवरेज है। ऐसी वन औषधियों के संरक्षण और संरक्षित करने का काम समय-समय पर वन विभाग कर रहा है। ऐसी ही दुलर्भ वन औषधियों में शल्यकर्णी नामक पौधा भी शामिल है। इस दुलर्भ औषधी पौधे को रीवा के वन विभाग स्थित कार्यालय में संरक्षित किया गया है। इतना ही नही इस पौधे को तैयार करने का काम भी किया जा रहा है।
महाभारत के युद्ध में घायल सैनिकों का हुआ था ईलाज
जानकारी के तहत शल्यकर्णी नामक इस औषधी पौधे का जो इतिहास सामने आ रहा है, उसके तहत महाभारत का भंयकर युद्ध हुआ था। इस दौरान बड़ी संख्या में सैनिक घायल हो गए थें। उनके शरीर में भाला, तलवार और तीर के गहरे घाव हो जाने के कारण ईलाज के लिए ले जाया गया। जंहा वैद्य इस शल्यकर्णी नामक पौधे के छाल और पत्ते से तैयार रस को कपड़े में डालकर सैनिकों के घाव में बाधा। सैनिकों के घाव भरने के साथ ही वे युद्ध के लिए दुबारा तैयार हो गए। छाल और पत्ते के रस से जिस तरह ईलाज किया गया, उसके चलते इस पौधे का नाम शल्यकर्णी पड़ गया। आयुर्वेद का महागंथ्र चरक में भी इस शल्यकर्णी का उल्लेख है।
ऐसे सामने आया शल्यकर्णी
जानकारी के तहत आदिवासियों ने इस औषधी पौधे का प्रदर्शन किए थें। जिसके बाद यह दुलर्भ औषधी सामने आया। ऐसी किंवदती है कि आदिवासियों ने मछली पर तीर चलाई और उसके शरीर में गहरा घाव हो गया। उन्होने पेड़ से इस पत्ते को तोड़कर मछली को लेपेटलिया और घर ले गए। बाद में उन्होने मछली के शरीर से पत्तों को हटाया तो तीर के लगे हुए घाव मछली के शरीर गायब थें। तब से वे चोट लगने पर इस पत्ते का इस्तेमाल करने लगें।
विंध्य की पहाड़ियों पर पाया गया यह पौधा
जानकारी के तहत यह पौधा हिमालय पर्वत के आलावा पंचमढ़ी अमरकंटक और रीवा सीधी के मध्य छुहिया पहाड़ में पाए जाते थे. कहा जाता है की यह खास पौधे अब काफी कम संख्या में छुहिया पहाड़ मौजूद है. मगर यह गुणकारी पौधा अब अन्य स्थानों से धीरे धीरे करके लुप्त होता जा रहा है.