Mamuliya Folk Festival Of Bundelkhand : भारत विविधताओं का देश है जहां हर क्षेत्र की अपनी विशिष्ट लोक परंपराएं और उत्सव हैं। यहां कई ऐसे हैं जो केवल मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक संदेश देने के लिए मनाए जाते हैं। बुंदेलखंड का मामुलिया पर्व ऐसा ही एक अनूठा उत्सव है जो विशेष रूप से पितृपक्ष के दौरान लड़कियों और महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामूहिकता, स्त्री शक्ति, सांस्कृतिक पहचान और पूर्वजों के प्रति सम्मान का सुंदर संगम है,इस लेख में बुंदेलखंड की मामुलिया से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य उजागर किए गए हैं।
मामुलिया की परंपरा और समय
मामुलिया का उत्सव पितृपक्ष यानी श्राद्ध पक्ष में मनाया जाता है। यह पक्ष हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद पूर्णिमा के अगले दिन से शुरू होकर अमावस्या तक 15 दिनों तक चलता है। पितृपक्ष को ‘करऐ’ या ‘कड़वे दिन’ भी कहा जाता है क्योंकि इस दौरान विवाह, मांगलिक कार्य, नया सामान खरीदना, उत्सव और रंग-बिरंगे आयोजन वर्जित माने जाते हैं ,ऐसे ‘गंभीर’ समय में, जब वातावरण श्रद्धा और संयम का होता है, गांव या मुहल्ले पड़ोस की लड़कियां मामुलिया स्थापित करके जीवन में उत्साह और सौंदर्य का स्पर्श जोड़ती हैं।
क्या है मामुलिया ?
बुंदेलखंड में मामुलिया को स्थानीय बोली में महामुलिया कहा जाता है। मामुलिया वास्तव में बबूल, नींबू या किसी भी कंटीली झाड़ी की टहनी होती है। इन कांटेदार टहनियों को पवित्र मानकर लड़कियां घर के आंगन या किसी खुले स्थान पर गाड़कर स्थापित करती हैं। इसे फूलों, रंगीन ओढ़नी, रंगोली और दीपक से सजाया जाता है। कांटेदार टहनी जीवन के संघर्षों, कठिनाइयों और बाधाओं का प्रतीक है। इसे सजाकर पूजा करने का अर्थ है कि जीवन की कठिनाइयों को भी श्रद्धा और सौंदर्य से स्वीकार किया जा सकता है।
पूजन विधि और गीत-संगीत
मामुलिया की पूजा सामूहिक रूप से की जाती है। लड़कियां और महिलाएं एकत्र होकर मामुलिया को रोली, चंदन, अक्षत और पुष्प अर्पित करती हैं। इसके बाद पारंपरिक लोकगीत गाए जाते हैं।
लोकगीत उदाहरण और अर्थ
“छिटके मोरी मामुलिया, पितरन के देसवा जाई हो…अर्थ – यह गीत पितरों की आत्माओं को विदाई देने का है। इसमें कहा जाता है कि मामुलिया पितरों के लोक में जाए और परिवार के लिए सुख-शांति और आशीर्वाद लेकर लौटे।
“मामुलिया का पेड़ गहिरवा, बबूलवा के कांटा…अर्थ – यह गीत जीवन की गहराई और संघर्षों को स्वीकार करने का संदेश देता है। कांटेदार पेड़ को भी पूजा के योग्य मानकर उसमें सौंदर्य देखने की दृष्टि विकसित की जाती है।
“मोरिन नाचे, कोयल बोले, सजि गइया मामुलिया…अर्थ – इसमें उल्लास का भाव है। यह गीत बताता है कि मामुलिया के अवसर पर पूरा गांव जैसे प्रफुल्लित हो जाता है, पक्षी गाते हैं और लड़कियां नृत्य करती हैं।
“रसोई में पकवान बने, चना दाल के संग मुरै…अर्थ – यह गीत प्रसाद की तैयारी और सामूहिक भोज के उल्लास को दर्शाता है। यह सामूहिकता और बाँटकर खाने के महत्व पर जोर देता है। इन गीतों में प्रकृति, रिश्ते, और सामाजिक एकता का गहरा संदेश छिपा होता है।
विसर्जन का अनुष्ठान – पितृपक्ष की अमावस्या को मामुलिया का विसर्जन किया जाता है। गाजे-बाजे, गीत-संगीत और नृत्य के साथ मामुलिया को नदी, तालाब या जलाशय में ले जाया जाता है। यह पितरों की आत्माओं को सम्मानपूर्वक विदाई देने का प्रतीक है।
प्रसाद और सामूहिक आनंद – विसर्जन के बाद लड़कियां चना दाल, मुरमुरे, खीरे, गुड़ और फल का प्रसाद ग्रहण करती हैं। प्रसाद का वितरण सामूहिकता, समानता और साझा आनंद का संदेश देता है।
मामुलिया का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण – मामुलिया बुंदेलखंड की लोकसंस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लोकगीत और सामूहिक पूजा से यह अगली पीढ़ी को उनकी जड़ों से जोड़ता है।
सामाजिक मेलजोल और एकजुटता – पूरे मोहल्ले या गांव की लड़कियां इस उत्सव में साथ भाग लेती हैं। इससे आपसी सहयोग, दोस्ती और सामूहिकता की भावना प्रबल होती है।
नारीत्व का उत्सव – मामुलिया स्त्री की संघर्षशीलता और कोमलता का प्रतीक है। काँटों को सजाकर पूजा करना यह संदेश देता है कि कठिनाइयों में भी जीवन को सुंदर बनाया जा सकता है।
आध्यात्मिक महत्व – यह पूर्वजों की स्मृति का पर्व है, जो परिवार और समाज को उनके इतिहास और परंपराओं से जोड़ता है।
वर्तमान स्वरूप और चुनौतियां – शहरीकरण और डिजिटल युग में यह परंपरा शहरों में लगभग समाप्त हो गई है। खुले आंगन की कमी, व्यस्त जीवनशैली और लोकगीतों के गायब होते स्वरूप इसके प्रमुख कारण हैं। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह अब भी पूरे उत्साह और श्रद्धा के साथ जीवंत है।
विशेष – मामुलिया पर्व केवल पूजा का अवसर नहीं बल्कि यह एक सांस्कृतिक आंदोलन है जो समाज को जोड़ता है, स्त्री की भूमिका को सशक्त करता है और आने वाली पीढ़ी को अपने पूर्वजों और लोक परंपराओं से परिचित कराता है। आज आवश्यकता है कि इस परंपरा को स्कूलों, सांस्कृतिक मंचों और सोशल मीडिया के माध्यम से फिर से जीवंत किया जाए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी सांस्कृतिक पहचान न भूलें। मामुलिया हमें सिखाता है कि जीवन के कांटों को भी फूलों से सजाया जा सकता है और यही इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती है।