न्याजिया बेग़म
Mallikarjun Mansoor death anniversary: उन्होंने उन रागों को गाने में महारथ हासिल की जो बहोत मुश्किल होने की वजह से ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुए ,पर जब ये उनके गले में सधे तो हर कोई उन्हीं उतार चढ़ावों का दीवाना हो गया जो राग को जटिल बनाते थे, शायद इसकी वजह उनका कई घरानों से जुड़ना और गायन की रवायतों से वाकिफ होना था जिसने उन्हें रागों में पारंगत बना दिया था जिसे देखकर सरकार ने उन्हें तीनों पद्म यानी पद्म श्री ,पद्म भूषण और पदम विभूषण से नवाजा़ जी हां हम बात कर रहे हैं, जयपुर के अतरौली घराने से ताल्लुक रखने वाले महान शास्त्रीय गायक पंडित मल्लिकार्जुन भीमरायप्पा मंसूर की , जिनकी गायकी का मुख्तलिफ आग़ाज़ फिर सुरों से खेलने का दिलकश अंदाज़ उसमें भी ऊंचे नीचे स्वरों का मखमली हिसाब, ऐसे में क़ायम रखना दिलनशीं राग का मिज़ाज। ऐसे ही बरसों की तपस्या का फल थी उनकी गायकी की किताब या नीति ,जो कई गुरुओं के आशीर्वाद से फली फूली पर दुनिया की नज़र में ज़रा देर से आई या कह लें संगीत प्रेमी उनके इस कारवां का हिस्सा बहोत बाद में बने जब तक वो अपनी ज़िंदगी का आधे से ज़्यादा वक्त अपनी साधना में लगा चुके थे।
हालांकि उन्होंने कन्नड़ में अपनी आत्मकथा भी लिखी जिसका अनुवाद उनके बेटे राज शेखर मंसूर ने अंग्रज़ी में माई जर्नी इन म्यूज़िक नाम से किया है । उनके नाम में मंसूर भी कुछ यूं लगा कि वो 31 दिसंबर 1910 को मंसूर गांव में पैदा हुए थे जो कर्नाटक के धारवाड़ ज़िले के पास था ,आपके पिता भीमरायप्पा वहां मुखिया थे और खेती किसानी के साथ संगीत में भी रुचि रखते थे । आपके चार भाई और तीन बहनें थीं। उनके बड़े भाई बसवराज का कन्नड़ थिएटर चलता था इसी तरह मल्लिकार्जुन की भी दिलचस्पी इस तरफ हुई और स्कूल में उनका मन कम ही लगता इसलिए वो थिएटर में बतौर गायक और अभिनेता जुड़ गए जहां उन्होंने ध्रुव और प्रह्लाद की भूमिका निभाई जिसे न केवल पिता जी की सराहना मिली बल्कि गांव में सब उन्हें पहचानने भी लगे बस फिर क्या था यहीं से वो मल्लिकार्जुन मंसूर बन पिता की आज्ञा से संगीत यात्रा पर निकल पड़े जो निरंतर जारी रही ।
उन्होंने अपना पहला गुरु बनाया अयप्पा स्वामी जी को जो कर्नाटक शैली के गायक और वायलिन वादक थे और उनके बड़े भाई बसवराज के भी गुरु थे ,जिनसे उन्होंने बुनियादी शिक्षा हासिल की फिर थिएटर से जुड़े रहने की वजह से उनकी मुलाकात अलुर मठ के नील कंठ बुवा से हुई जिन्होंने 12 बरस की उम्र से उन्हें संगीत की विधिवत शिक्षा दी जो खुद ग्वालियर घराने से संबंधित थे लेकिन मल्लिकार्जुन को 1920 के दशक के अंत में जयपुर-अतरौली घराने के दिग्गज और तत्कालीन पितामह अल्लादिया खान के पास ले गए, जिन्होंने उन्हें अपने बड़े बेटे मंजी खान के पास उन्हें भेजा , जिनकी आखरी सांस तक आप उनके सानिध्य में रहे ,उनके बाद भूर्जी खान के अधीन संगीत साधना की जिनका शायद उनकी गायन शैली पर सबसे ख़ास प्रभाव पड़ा जैसे वो भी अपने गायन में भावनात्मक पहलू को बड़ी चंचलता से मीटर में साधते थे लेकिन धीरे धीरे मल्लिकार्जुन जी ने संगीत के सुरों को अपनी रौ में बहा ले जाना सीख लिया और उनकी अलग शैली विकसित हो गई।
उनके कुछ दुर्लभ रागों की बात करें तो हमें याद आते हैं शुद्ध नट, आसा जोगिया, हेम नट, लच्छासाख, खत, शिवमत भैरव, कबीर भैरव, बिहारी, संपूर्ण मालकौंस, लाजवंती, आदमबारी केदार, एक निषाद बिहागड़ा और बहादुरी तोड़ी ,जिनमें उनकी पकड़ बहोत मज़बूत थी ,हम ये कह सकते हैं कि शुरुआत में बहोत हद तक उनकी आवाज़ और शैली मंजी खान और नारायणराव व्यास से काफी मिलती जुलती थी । वो एचएमवी यानी हिज मास्टर्स वॉयस के साथ संगीत निर्देशक भी रहे और बाद में ऑल इंडिया रेडियो के धारवाड़ स्टेशन के संगीत सलाहकार भी रहे। 1982 में, आपको संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप से सम्मानित किया गया और मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कालिदास सम्मान पुरस्कार से भी नवाजा़ गया। इसी तरह अपना पूरा जीवन संगीत को समर्पित करते हुए 12 सितंबर को धारवाड़ में उन्होंने अंतिम सांस ली लेकिन आप उनके गायन को कई रिकॉर्डों के ज़रिए तो सुन ही सकते हैं, साथ ही 1941 की फिल्म सुभद्रा और 1947 की चंद्रहास में आपके संगीत के जादू को आज भी और क़रीब से महसूस कर सकते हैं।