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Mahmud Ghaznavi’s attack on Somnath temple| महमूद गजनवी का सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण –

Mahmud Ghaznavi’s attack on Somnath temple: ग़जनी का सुल्तान महमूद गजनवी एक बार फिर से भारत अभियान के लिए निकला। इस बार उसकी स्थायी सेना के अलावा उसके साथ तीस हजार अन्य घुड़सवार सैनिक और भोजन-पानी जैसे आवश्यक संसाधन से लदे लगभग तीस हजार ऊँट सवार भी थे। उसके द्वारा भारतीय क्षेत्रों में किया किया जाने वाला यह सोलहंवा अभियान होने वाला था। इस बार के अभियान का लक्ष्य था गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में वेरावल में समुद्र तट पर स्थित ‘सोमनाथ’ पहुंचना, सोमनाथ जहाँ भव्य और विशाल शिव मंदिर था, यह लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र था और भारत के सबसे धनाढ्य मंदिरों में से एक था। बंदरगाह होने के कारण यहाँ व्यापरिक जहाज आते थे, जिसके कारण यह एक धनी व्यापारिक नगर भी था। गुजरात पर तब चालुक्यवंशीय सोलंकी राजपूतों का शासन था, अन्हिलवाड़ा-पाटन उनकी राजधानी हुआ करती थी। और भीमदेव नाम का शासक यहाँ शासन कर रहा था।

अभियान की तैयारी व भूमिका –

उस समय भारत राजनैतिक रूप से छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। अर्थात राजनैतिक एकसूत्रता नहीं थी। 18 अक्टूबर 1025 को महमूद भारत के पश्चिम क्षेत्र में स्थित गुजरात पर हमले के निकला। उत्तरभारत या दोआब पर महमूद पहले भी लगभग पंद्रह सफल अभियान कर चुका था। ये अभियान पंजाब के हिंदूशाहियों, कन्नौज के प्रतिहारों, जेजाकभुक्ति के चन्देलों, और कश्मीर के लोहार वंश के विरुद्ध थे, इन आक्रमणों में उसने तब के भारत के सबसे बड़े और समृद्ध नगरों मथुरा, कन्नौज, थानेसर इत्यादि को ध्वस्त कर दिया था। उसने कालिंजर और ग्वालियर पर भी अभियान किया था। पंजाब, सिंध और मुल्तान को तो उसने अपने शासन क्षेत्रों में पहले ही मिला लिया था। हालांकि कश्मीर पर पर किए गए अभियान को इतिहासकार सफल अभियान नहीं मानते। भारत का ये हिस्सा बेहद उपजाऊ और समृध्द था, लेकिन महमूद के बार-बार हमलों में यह क्षेत्र लगभग बर्बाद हो चुका था। इसीलिए महमूद के लिए इन क्षेत्रों में अब कुछ बचा नहीं था। अल-बेरुनी से उसने गुजरात और वहां के सोमनाथ की समृद्धि का जिक्र सुन चुका था। इसीलिए वह गुजरात अभियान पर निकला। लेकिन गुजरात अभियान के रास्ते में उसे थार के विशाल मरुस्थल और यहाँ के स्थानीय राजाओं से संघर्ष करते हुए निकलना था, इसीलिए उसने अपनी सेना में नई भर्ती की और उनके लिए खाद्य सामग्री और पानी लगभग तीस हजार ऊंटों पर लेके उन्हें चलना पड़ा। क्योंकि राजपुताना का ये रेगिस्तानी क्षेत्र मरुस्थलीय और शुष्क था, इसीलिए महमूद को इसको पार करने के लिए सावधनीपूर्वक इतनी तैयारी करनी पड़ी।

सोमनाथ का सफर –

चूंकि इस बार आक्रमण पश्चिमी क्षेत्र में था, इसीलिए प्रचलित रूट को छोड़कर उसे इस रूट से गुजरना था। इसीलिए वह गजनी से चलकर रमजान के मध्य में, अर्थात नवंबर में वह मुल्तान पहुंचा और वहां कुछ दिनों तक रुककर में रेगिस्तान से होते हुए उसने आगे की यात्रा प्रारंभ की, महमूद ने शुरू में पालनपुर के निकट चिकलोदरा के पास लोद्रवा दर्रे पर कब्ज़ा कर लिया। चूंकि यह क्षेत्र तब शाकम्भरी के चौहानों के अधिकार में था और वह टकराव से भी बचना चाहता था, इसीलिए उसने इन क्षेत्रों को लूटा, लेकिन वह न तो यहाँ रुका, और ना ही इन क्षेत्रों पर अधिकार किया, क्योंकि उसका लक्ष्य था सोमनाथ। हालांकि बीच-बीच में उसके संघर्ष चौहानों की चौकियों के पार्श्व रक्षकों और सामंतों से हुआ। लेकिन वह इन्हें पराजित करता हुआ आगे बढ़ता रहा। दिसंबर के अंत तक, वह चालुक्य क्षेत्रों में प्रवेश कर गया। उसके आक्रमण की खबर सुनकर गुजरात का शासक भीम प्रथम अपने सलाहकारों और मंत्रियों की सलाह पर राजधानी अन्हिलवाड़ा को छोड़कर, सुदूर कंठकोट दुर्ग में शरण ली। महमूद ने राजधानी पर आक्रमण किया और सोलंकी सेनाओं को हराकर, राजधानी को लूटने और आगे की यात्रा के लिए आवश्यक संसाधन जुटाने के बाद, महमूद अपनी कुछ सेना को पाटन में ही छोड़कर आगे के अभियान के लिए सोमनाथ की यात्रा प्रारंभ की। सरस्वती नदी के नीचे प्रवाह की दिशा की ओर बढ़ता हुआ वह जनवरी प्रथम सप्ताह में सोमनाथ पहुंचा।

फ़ारसी तवारीखों में सोमनाथ का वर्णन –

सोमनाथ भारत के सबसे प्रमुख तीथों में से एक था, पास में ही प्रभास क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण ने अपनी देह त्यागी थी। 17वीं शताब्दी का सुप्रसिद्ध इतिहासकार फिरिश्ता इब्न-ए-असीर के अनुसार कहता है- “हिंद के लोगों का मानना ​​था कि आत्माएं अपने शरीर से अलग होने के बाद सोमनाथ आती हैं और भगवान सोमनाथ प्रत्येक आत्मा को, देहांतरण के माध्यम से और योग्यतानुसार नई देह प्रदान करते हैं। फिरिश्ता आगे लिखता है इस मंदिर में सोमनाथ राजा थे, जबकि अन्य मूर्तियाँ केवल उनके द्वारपाल और सेवक थे। सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय मंदिर में एक साथ लाखों लोग एकत्रित होते थे। दूर-दूर से इसमें भेंट और चढ़ावे आते थे। हिंदुस्तान की महारानियों और राजमाताओं ने इस मंदिर पर लगभग दस हजार गाँवों को दान स्वरुप दिया था। एक हजार ब्राह्मण निरंतर मूर्ति की पूजा करते थे, और हर रात इसे गंगा के ताजे पानी से धोया जाता था, जबकि गंगा यहाँ से छह सौ योजन दूर थीं। मंदिर के एक कोने में दो सौ मन वजन की सोने की जंजीर लटकी हुई थी, जिसमें घंटियाँ लगी होती थीं। इसे तय समय पर हिलाया जाता था ताकि ब्राह्मणों को सूचना मिल सके कि प्रार्थना का समय आ गया है। मंदिर की सेवा में सौ दो सौ संगीतकार थे, मंदिर की सेवा के लिए हिन्दुस्तान के राजाओं द्वारा यहाँ हजारों कन्याएं देवदासी के रूप में समर्पित थीं। तीर्थयात्रियों के सिर और दाढ़ी बनाने के लिए सौ लोगों को नियुक्त किया गया था। यहाँ की सभी ज़रूरतें दान और चढ़ावे से पूरी की जाती थीं। मंदिर एक विशाल इमारत थी, जिसकी छत और स्तंभ बेहद खूबसूरत और अलंकृत थे। इन स्तंभों की संख्या 56 थी। मूर्ति का निर्माण ठोस पत्थर को काट कर किया गया था। यह लगभग पाँच गज लंबी थी, जिसमें से दो गज जमीन के नीचे और बाकी ऊपर थे। एक फ़ारसी ग्रंथ के अनुसार मंदिर का आंतरिक कक्ष, जिसमें मूर्ति रखी गई थी वहां अंधेरा होता था, उसमें लटकते हुए दीयों से जुड़ी महीन रत्नों की किरणों से आवश्यक प्रकाश की आपूर्ति होती थी। जिससे कक्ष में प्रकाश होता था।

सोमनाथ पर आक्रमण –

महमूद का यह आक्रमण इतना तेज था कि वहां के स्थानीय राजाओं को अपनी तैयारी करने का कोई मौका ही नहीं मिला था, इसीलिए उन्होंने प्रतिरोध भी नहीं किया। महमूद का घेरा अब सोमनाथ के नगर पर हो चुका था, सोमनाथ में उस समय हजारों तीर्थयात्री और लोग इकट्ठा थे। समुद्र के किनारे स्थित सोमनाथ का दुर्ग अत्यंत विशाल था, जहाँ एक ओर विशाल सागर उसके चरण धोता था, तो दुर्ग की मीनारें आसमान छूती थीं। आक्रमण कारियों को देखने के लिए दुर्ग निवासी, ऊँचीं प्राचीरों पर चढ़ गए थे, और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे तुम्हे भगवान सोमनाथ ने यहाँ दंड भोगने के लिए भेजा है, क्योंकि तुमने भारतवर्ष भर के मंदिर और उनकी मूर्तियों को तोड़ा है।

अगली सुबह शुक्रवार का दिन था, गजनवी फौजें दीवारों पर चढ़ने का प्रयास करनी लगी और दुर्ग रक्षकों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, लेकिन वह उन्हें रोक नहीं पाए और दुर्ग की प्राचीरों के ऊपर बड़ा भीषण संघर्ष हुआ, लेकिन अँधेरे के कारण गजनवियों को कोई खास फायदा हुआ नहीं और वह वापस अपने खेमों में चले गए, लेकिन अगले ही दिन महमूद ने प्राचीरों पर कब्ज़ा कर लिया और नगर में प्रवेश किया, नगर निवासी और रक्षकों ने सोमनाथ की जय बोलते हुए फिर से तुर्क फौजों से आखिरी और भीषण संघर्ष किया। मंदिर के द्वार पर ही भीषण युद्ध हुआ, जिसमें लगभग पचास हजार लोगों ने मंदिर की रक्षा करते हुए अपनी जान गँवाई। नगर पर महमूद का अधिकार हो गया। लेकिन रात के अंधेरे ने महमूद को फिर से रोक दिया। महमूद के यकायक आक्रमण और तैयार ना होने से स्थानीय राजपूत राजा अबतक कोई प्रतिरोध नहीं कर पाए थे। लेकिन दुर्ग रक्षकों और नगर निवासियों से संघर्ष कर रही तुर्क फौजों के कारण, उन्हें अपनी सेनाओं को इकठ्ठा करने का मौका मिल गया। इधर स्थानीय राजाओं ने मिलकर गजनवी सेनाओं की सप्लाई ही रोक दी, इसीलिए महमूद गजनवी घेराबंदी के लिए कुछ सेना को छोड़कर, इन राजाओं को विरुद्ध चला गया।

दोनों ही पक्षों में भीषण युद्ध हुआ, फ़ारसी तवारीखों के अनुसार इन राजपूत सैनिकों ने अवर्णनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए महमूद की सेनाओं को पीछे धकेलते हुए हार की कगार पर ला दिया था। अपनी हार का सोचकर महमूद ईश्वर से प्रार्थना करने लगा, और नई रणनीति और अपने सैनिकों में जोश भरकर महमूद ने निर्णायक युद्ध जीत लिया। इन्हीं ग्रंथों के अनुसार महमूद का भाग्य बहुत प्रबल था और वह हमेशा उसका साथ देता था। अब उसका प्रतिरोध करने वाला कोई नहीं बचा था।

मंदिर का विनाश –

लगभग तीन दिनों के संघर्ष के बाद विजेता महमूद ने मंदिर में प्रवेश किया, अब उसके अधिकार में अपार धन और संपदा थी, उस धन का सौंवा हिस्सा भी भारत के किसी राजा के खजाने में नहीं था। इसका अर्थ था मंदिर के पास अपार धन दौलत थी। वह मंदिर के गर्भगृह में प्रविष्ट हुआ जहाँ अभी भी सैकड़ों पुजारी वहां उपस्थित थे, फिरिश्ता के अनुसार इन पुजारियों ने मूर्ति न तोड़ने के एवज में महमूद को भारी धन की पेशकश की, लेकिन उसने अस्वीकार कर दिया। बुतफरोश (मूर्तियों का व्यापारी) बनने की जगह वह बुतशिकन(मूर्ति-भंजक) बना। वह मूर्ति तोड़ने के लिए आगे बढ़ा और एक गदा प्रहार से मूर्ति को तोड़ दिया, मूर्ति के अंदर से बहुत कीमती और चमकदार रत्न उसे प्राप्त हुए। हालाँकि कुछ परिवर्ती इतिहासकार इस तथ्य को नहीं मानते कि मूर्ति अंदर से खोखली थी और उसमें रत्न भरे थे, क्योंकि भारतीय ग्रंथों में शिवलिंग को ठोस पत्थर से निर्मित बताया गया है। जो भी हो लेकिन महमूद ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर करारा प्रहार किया था। जिसके घाव इतिहास में शायद बहुत दिनों तक याद रहेंगे। कुछ इतिहासकारों का मत है उसने मूर्ति के ऊपरी हिस्से को तोड़ा और उसके बचे हुए भाग को रत्न, आभूषण और सोने से कढे हुए वस्त्रों समेत अपने साथ गजनी ले गया। हालांकि सब इतिहासकार इसमें एकमत नहीं है।

आगे महमूद राजा परम देव के विरुद्ध बढ़ा, जिसने महमूद की सेना को रोकने में मुख्य भूमिका निभाई थी, राजा ने सोमनाथ से कुछ दूर समुद्र के बीच स्थित खांडा के दुर्ग की शरण ली। जब ज्वर उतर गया तो साहसी महमूद ने समुद्र पार कर द्वीप पर आक्रमण कर दिया। हालांकि राजा वहां से निकलने में सफल रहा।

महमूद की वापसी और मुश्किलें –

सोलंकियों की राजधानी अन्हिलवाड़ा लौटकर महमूद ने नगर के स्थापत्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। गुजरात की जलवायु, यहाँ के निवासियों की सुंदरता, इसके हरे-भरे आकर्षक उद्यान, बहती नदियों और उपजाऊ मिट्टी ने उसको आकर्षित किया। गजनी अपने पुत्र मसूद को सौंपकर उसने अन्हिलवाड़ा को ही अपनी राजधानी बनाने की ख्वाहिश जताई, यह पहली और आखिरी बार था, जब महमूद ने भारत में ही रुकने की इच्छा जताई थी। लेकिन उसके सैनिकों और लोगों ने इसका विरोध किया, वे खुरासान को छोड़कर भारत में रहने को बहुत बड़ी राजनैतिक गलती मान रहे थे। उसके लोग जल्द से जल्द अपने परिवार के पास भी जाना चाहते थे। उनके विरोध को देखते हुए महमूद ने यह विचार त्याग दिया। हालांकि इतिहासकारों का मत है, यहाँ रहने के उसके विचार का प्रमुख कारण दक्षिण भारत की अपार संपदा, समुद्र पार के द्वीपों से आने रत्नों का लालच था।

इधर महमूद को पता चला की गुजरात का शासक भीम उससे संघर्ष की तैयारी कर रहा है, उसकी सेना इतने संघर्षों से थकी भी हुई थी, उनके पास लूट की दौलत भी बहुत थी और वे जल्द से जल्द अपने घर लौटना चाहते थे, यही कारण था उसने गुजरात को जल्द से जल्द छोड़ना श्रेयस्कर समझा। उसे यह भी सूचना मिली की वापसी के मार्ग में राजपुताना के राजा भी उससे टकराने के लिए तैयार हैं, कुछ इतिहासकारों के अनुसार मालवा का राजा भोज परमार भी महमूद का मार्ग रोकने के लिए आगे बढ़ रहा था। इसीलिए उसने वापसी के लिए राजपुताना वाले मार्ग की जगह कच्छ के रण से, सिंध होते हुए वापसी का मार्ग चुना। उसने गुजरात का जिम्मा दबशिलम को सौंपा और गजनी के लिए रवाना हो गया। यह दबशिलिम कौन था यह निश्चत नहीं है।

यह मार्ग बहुत मुश्किल था, और इससे महमूद और उसके सिपाही परिचित भी नहीं थे। एक सोमनाथ के हिंदू श्रध्दालु ने उसे रास्ता बताने का जिम्मा उठाया। लेकिन एक रात-दिन चलते हुए उसे मार्ग से भटका दिया, महमूद और उसके सिपाही भटकते हुए सिंध पहुंचे, यहाँ के जाटों ने भी उसे बहुत परेशान किया। उसके एक साल बाद ही वह इन जाट विद्रोहियों सजा देने के लिए वह वापस आया। जो उसका आखिरी भारत अभियान होने वाला था।

सोमनाथ पर उसका आक्रमण इतना प्रसिद्ध था कि कुछ इस्लामिक लेखकों ने उसके विनाश का मूर्ति पूजा पर इस्लाम की सबसे बड़ी जीत के रूप में वर्णन किया। उसने भारत समेत मध्यएशिया में सैकड़ों युद्ध लड़े, भारतवर्ष में कई मंदिर तोड़े होंगे लेकिन फिर भी इतिहास में उसे सोमनाथ अभियान के लिए ही याद किया जाता है। महमूद के इस अभियान से भारतीय धर्म और संस्कृति को भारी धक्का पहुंचा, बाद में 12वीं शताब्दी में गुजरात के शासक कुमारपाल ने इसको फिर से बनवाया। इसके बाद अनेक शताब्दियों तक हिंदुओं ने बार-बार इस मंदिर के पुनर्निर्माण का प्रयास किया, जबकि एक के बाद एक मूर्तिभंजक इसे नष्ट करते रहे। लेकिन अंततः 1951 में सरदार पटेल और के. एम. मुंशी जैसे नेताओं के प्रयास से इसका पुनर्निर्माण प्रारंभ हुआ।

लेकिन यहाँ सवाल उठता है, महमूद के अभियान से समय भारतीय शासक तैयार क्यों नहीं थे, मध्यकालीन इतिहास के जानकार प्रोफेसर डॉ सतीशचंद्र के अनुसार भारतीय शासक मध्य एशिया की राजनैतिक अवस्था से परिचित नहीं थे, दूसरा यहाँ गुप्तचर व्यवस्था भी कुछ खास नहीं थी, इसीलिए शासक अपनी रणनीति उस हिसाब से तय नहीं कर पाते थे और महमूद की सेनाएं अत्यधिक गतिशील और तकनीकी रूप से बेहतर भी थीं।

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