कांग्रेस में गांधी युग का आगमन और विंध्य समेत पूरे देश में उनका पड़ने वाला प्रभाव –

1857 की क्रान्ति समाप्त हो चुकी थी, अंग्रेजों द्वारा साम, दाम, दंड, भेद की नीति से विद्रोह को दबा दिया गया, तब अंग्रेजों को भी लगा होगा अब शायद ही भारतीयों का दुबारा ऐसा सशस्त्र विद्रोह कभी होगा, ऐसा हुआ भी देश बहुत समय तक शांत ही रहा, लेकिन कहते हैं न, यह तो तूफानों के आने से पहले की शांति थी। विद्रोह तो हुआ 1857 से भी ज्यादा बड़ा विद्रोह हुआ, जिसके कारण देश को सालों से चली आ रही ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी मिली, वह भी पूर्णतः शांतिपूर्ण ढंग से, और यह सब हुआ एक ऐसे व्यक्ति के कारण, जिसे देश महात्मा गांधी के नाम से जानता है, आइये जानते हैं कांग्रेस पार्टी में गांधीयुग के आगमन की और विंध्य क्षेत्र समेत पूरे देश में पड़ने वाले प्रभाव और उससे होने वाले बदलाव को।

कांग्रेस का गरमदल-नरमदल में विभाजन –

कांग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में ही हो चुकी थी, लेकिन अभी तक इसका जुड़ाव सामान्य जनों या जनता से नहीं हुआ था। आलोचकों द्वारा इसे एलिट वर्ग या वकीलों का दल कहा जाता था। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही कांग्रेस में गुटबंदी का उभार होने लगा था। गरम दल जिसको विपिनचंद्र पाल और लाला लाजपतराय के साथ मुख्यतः लीड कर रहे थे बाल गंगाधर तिलक, जबकि रासबिहारी बोस के साथ ही नरम दल के प्रतिनिधि थे गोपाल कृष्ण गोखले। 1905 में हुए बनारस अधिवेशन में पहली बार यह गुटबाजी सार्वजनिक रूप से उभर कर सामने आई, 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में भी अगर दादाभाई नौरोजी की मध्यस्थता नहीं होती तो कांग्रेस दो फाड़ हो ही चुकी थी। लेकिन 1907 के सूरत में हुए वार्षिक अधिवेशन के बाद तो कांग्रेस नरम दल और गरम दल के तौर पर दो गुटों में विभाजित हो ही गई।

दरसल बनारस अधिवेशन गोपालकृष्ण गोखले की अध्यक्षता में हुआ था, उसमें बाल गंगाधर तिलक ने नरम पंथियों के ‘याचिका और याचना’ के नीति की कड़ी आलोचना की थी, उनका यह भी विचार था स्वदेशी आंदोलन का विस्तार पूरे देश में किया जाए, लेकिन नरम पंथ इसे केवल बंगाल तक ही सीमित रखना चाहता था। गरम दल जहाँ ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उग्र आंदोलन के पक्षधर थे, वहीं नरम दल के लोग संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करना चाहते थे। इन्हीं नरमदल और गरमदल वैचारिक मतभेदों के बीच देश में वापसी हुई एक प्रवासी भारतीय की जिसे देश महात्मा गांधी के नाम से जानता है, जो उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रहकर रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे, गोखले ने ही उन्हें भारत आने और भारतीयों के लिए संघर्ष और सत्याग्रह के लिए प्रेरित किया। उनका आगमन काफी क्रांतिकारी था, उनको कांग्रेस में शामिल होने के प्रेरित किया गोपाल कृष्ण गोखले ने, गोखले जिन्हे महात्मा गांधी अपना मार्गदर्शक और राजनैतिक गुरु भी कहते थे।

महात्मा गांधी की कांग्रेस में एंट्री –

महात्मा गांधी का देश वापसी हुई 1915 में, उन्हें गोखले ने ही सलाह दी एक बार पूरे देश को भ्रमण करने के लिए, गांधी ने ऐसा ही किया, गांधी ने लोगों की समस्यायों से खुद को जोड़ने के लिए ट्रेन में तीसरे दर्जे में सफर करने का मन बनाया, जो उस समय विरली बात था, खुद गोखले ने भी गांधी के इस फैसले का मजाक उड़ाया, हालांकि उन्हें दृढ़ देखकर उन्होंने उनका समर्थन किया, उनकी यात्रा का प्रबंध गोखले ने ही किया था। इस बात का जिक्र महात्मा गांधी ने अपनी किताब ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में भी किया।

दरसल उन्होंने अपने गतिविधियों में साम्यता बनाते हुए नरमदल और गरमदल दोनों से प्रेरणा ली, जहाँ एकतरफ गोखले से उन्होंने तार्किकता, सामाजिक सुधार और दलितों के लिए किये जा रहे उनके कार्यों से प्रेरणा ली। वहीं स्वदेशी अभियान, आंदोलन के क्रियान्वन इत्यादि की प्रेरणा उन्होंने बाल गंगाधर तिलक से ली, शायद इसीलिए उन्होंने रामराज्य की अवधारणा दी, हालांकि गांधी भारत की बहुलतावादी संस्कृति को ध्यान में रखकर अपने कार्य करते थे। महात्मा गांधी की राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियां ऐसी थीं कि सामान्य जनता ने भी इससे जुड़ाव महसूस किया। नशाबंदी, अस्पृश्यता उन्मूलन, स्वदेशी वस्तुओं और खादी कार्यक्रम इत्यादि ने लोगों को कांग्रेस से जोड़ा। और कांग्रेस का प्रभाव समाज के सभी वर्गों में होने लगे। साथ ही कांग्रेस में उनकी स्वीकार्यता भी सर्वोपरि हो गई। और इसके साथ ही कांग्रेस में नरमदल और गरमदल का झगड़ा भी समाप्त हो गया। और आगे हम देखते हैं महात्मा गांधी के आंदोलनों ने देश को जागरूक करने और आज़ादी में महती भूमिका भी निभाई।

तब तक विंध्य क्षेत्र या रीवा रियासत में कुछ पढ़े लिखे युवक कांग्रेस के सदस्य अवश्य थे, जिनमें बाहर शिक्षा प्राप्त करने गए अवधेश प्रताप सिंह प्रमुख थे। लेकिन फिर यहाँ कांग्रेस की कोई इकाई नहीं थी। दरसल ब्रिटिश भारत में अत्यधिक सक्रिय कांग्रेस, रियासतों में सक्रियता को लेकर उदासीन ही थी, महात्मा गांधी का भी विचार प्रारंभ में कांग्रेस के आंदोलनों को देसी रियासतों में बढ़ाने का नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे यह मांग होने लगी की देसी रियासतों की समस्यायों पर भी ध्यान दिया जाए। फलस्वरूप 1928 के कलकत्ता अधिवेशन में, कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसके अनुसार देसी रियासतों में उत्तरदायी शासन और उनके प्रतिनिधि संस्थाओं की स्थापना की मांग की गई। परिणाम यह हुआ देसी रियासतों में भी कांग्रेस का प्रसार होने लगा और उसकी शाखाएं खुलने लगीं। 1931 के करांची अधिवेशन में विंध्य क्षेत्र से अवधेश प्रताप सिंह और राजभानु सिंह तिवारी शामिल हुए।

महात्मा गांधी से प्रभावित रीवा के शासक राजा गुलाब सिंह –

गांधी के उभार और उनकी सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों से देशभर में कई सामाजिक परिवर्तन आए, विंध्य भी इससे अछूता नहीं रहा, उनसे प्रभावित होकर अवधेश प्रताप सिंह ने अपने इलाके के मंदिर और कुएं इत्यादि दलितों के लिए खोल दिया, यह बहुत बड़ा सामजिक परिवर्तन था। रीवा के तत्कालीन शासक महाराज गुलाब सिंह के भी कई फैसलों पर महात्मा गांधी की स्पष्ट छाप थी, उनसे प्रभावित होकर उन्होंने ‘सहभोज’ की शुरुआत की, जिसमें सभी वर्णों और वर्गों के लोग एक ही साथ बैठकर भोजन करते थे। मंदिरों के द्वार दलितों के लिए खोल देने की राजाज्ञा जारी की गई, इसी तरह उन्होंने हरवाही प्रथा का भी अंत कर दिया। और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण महात्मा गांधी के खादी के प्रचार-प्रसार और स्वदेसी आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने रीवा में बनने वाली ‘गजी’ कपड़े का खूब प्रचार किया, कई बार वह खुद गजी से बने कपडे पहनते थे।

इन सब के अलावा भी यहाँ के लोग गाँधी और उनके आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे। भारत छोड़ो आंदोलन में तो महिला सत्याग्रहियों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। इसके अलावा यहाँ कई क्षेत्रीय आंदोलन भी हुए, जो गांधी के सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह से प्रेरित थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *