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Maharashtra Chandrapur Anurag suicide case 2025 : ख्वाहिशों के खंजर से खामोश हुई जिंदगी की चीख. .मैं डॉक्टर नहीं बनना चाहता !

Maharashtra Chandrapur Anurag suicide case 2025 – ख्वाहिशों के खंजर से खामोश जिंदगी की चीख – महाराष्ट्र के चंद्रपुर में NEET एग्जाम में 99.99 मार्क्स हासिल करने वाले अनुराग की आत्महत्या की चीख आज पूरे देश में चीत्कार मार रही है और मात्र 19 वर्षीय होनहार बच्चे की मौत की खबर ही उसकी आत्मकथा कह रही है। यहां अनुराग के माता-पिता को उनके ही बच्चे का क़ातिल कहना तो उचित नहीं होगा लेकिन हर माता-पिता को इस घटना से सबक़ लेना होगा ताकि अब कोई और होनहार अपने सपनों को साकार होता न पाए तो अपना जीवन समाप्त न करें। महाराष्ट्र चंद्रपुर से आई से आई ये खबर सिर्फ एक छात्र की आत्महत्या की नहीं, बल्कि उस सोच की दर्दनाक मिसाल है जिसमें बच्चों की पसंद से ज्यादा मां-बाप की महत्वाकांक्षाएं मायने रखती हैं। नीट परीक्षा में 99.99 पर्सेंटाइल लाने वाले अनुराग अनिल बोरकर ने मेडिकल कॉलेज जाने से पहले,अपने सुसाइड नोट में लिखा – “मैं डॉक्टर बनना नहीं चाहता ! ” और दुनिया से विदा हो गया। सवाल यह है कि आखिर हम कब समझेंगे कि सपनों की जबरन विरासत जानलेवा साबित हो सकती है ? या हो रही है।

एक दुखदाई अंत की कहानी – माता-पिता की जबरिया और अधूरी ख्वाहिशें बच्चों की जिंदगी के लिए एक दिन तेज़ाब बनकर न सिर्फ बदसूरत बनाने का काम कर रहीं हैं बल्कि महाराष्ट्र के चंद्रपुर में दुःखद घटना – 19 वर्षीय अनुराग के सुसाइड केस से, ये साबित हो गया है कि उनकी जिंदगी खत्म करने का भी काम कर रही हैं । अनुराग अनिल बोरकर का मामला उसी कड़वी सच्चाई की हकीकत का चेहरा है। वह होनहार था, नीट-यूजी में 99.99 का टॉप स्कोर हासिल किया, मेडिकल सीट पक्की थी, लेकिन उसकी आत्महत्या इस बात का सशक्त प्रमाण है कि पढ़ाई में सफलता और जिंदगी में खुशहाली – दो बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं।

मां-बाप के सपनों के बोझ तले दब कर खत्म हो रही बच्चों की जिंदगी
भारतीय समाज में बच्चों की परवरिश अक्सर मां-बाप के सपनों का एक्सटेंशन बन जाती है। “बड़ा होकर डॉक्टर बनना है”, “इंजीनियर ही बनना है”- नर्सरी में दाखिले के साथ ही ये जुमलेबाजी, हम सबको सुनने मिलने लगती है। दुख की बात यह है कि बच्चों से पूछा ही नहीं जाता कि वे क्या बनना चाहते हैं। यही वजह है कि आज कोटा जैसे शहर “कोचिंग फैक्ट्री” बनने के साथ यंगस्टर्स की आत्महत्याओं की खाड़ी भी बनते जा रहे हैं। क्योंकि यह प्रस्तुत इन आंकड़ों ने तो कोटा कोचिंग फैक्ट्री की डेफिनेशन ही बदल डाली है – देखिए 2023 से 2025 के स्टूडेंट्स सुसाइड केस के आंकड़े।
2023 में – 26 से 32 छात्रों ने जान दी।
2024 में – 16 – 17 छात्र-छात्राएं असमय ही काल के गाल में समा गए तो वहीं 2025 में अब तक 14 छात्र कहीं न कहीं माता-पिता की ख्वाहिशों की भेट चढ़ गए। ये आंकड़े सिर्फ नंबर नहीं, बल्कि उन बच्चों की कहानियां हैं ,जिनके सपनों को दबा कर उनके कोमल मासूम कंधों पर ख्वाहिशों का पुलिंदा जबरन ही लाद दिया गया और उसके बोझ तले उनके सपनों , उम्मीदों और चाहतों से लबरेज़ जिंदगी कुचल कर खत्म कर दी गई।

समाज की सोच भी दोषी
जिस समाज में हम रहते हैं वहां हमारी सोच यह है कि बच्चों की सफलता उनके पैकेज से मापी जाती है जितना बड़ा पैकेज, उतना बड़ा “मान-सम्मान”। मां-बाप पड़ोसी के बच्चे की मिसाल देते हैं – “देखो, उसने आईआईटी क्रैक किया, तुम क्यों नहीं कर सकते ?” यह तुलना बच्चों को न सिर्फ तोड़ देती है बल्कि उन्हें निराशा के दलदल में भी धंसा देती है जहां से बच्चों में माता-पिता से दूरी बढ़ती जाती है। बहुत से बच्चे भटक कर ग़लत रास्ते पर भी चले जाते हैं और फिर जिंदगी कभी नशें तो कभी प्रेम के फरेब, या किसी अप्रत्याशित अपराध का हिस्सा बनकर अपनी जिंदगी मौत से भी ज्यादा नारकीय बना लेते हैं।

क्यों जरूरी है बदलाव ?
किसी भी बच्चे को उसकी मर्जी के खिलाफ करियर में झोंकना, उसके जीवन को दांव पर लगाने जैसा है। इससे निजात पाने, कुछ प्रश्न खड़े होते हैं उनपर ग़ौर करने पर. हो सकता है कुछ रास्ता साफ़ हो कि माता-पिता ही उसके कातिल न बन जाएं जैसे – क्या डॉक्टर या इंजीनियर बनना ही इंसान बनने की गारंटी है ?
– क्या हर बच्चा एक ही ढर्रे पर सफल हो सकता है ?

समाधान का रास्ता बच्चों की आवाज़ सुनें – माता-पिता

आज के परिवेश में मोबाइल तो पालने से ही खिलौनों की तरह थमा दिया जाता है। अभिभावक शायद ये भूल जाते हैं की जो बच्चा अपने मनपसंद ग्राफिक्स देख रहा है ,अपने पसंद की फिल्म , गानें ,यूट्यूब , इंस्टा पर मन माफ़िक क्रिएटिविटी में शामिल है पिछले 15 सालों से उसका आदि हो चुका है, वो अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले भी अपनी पसंद से लेना चाहता है या ले सकता है। यहां ये कहना ग़लत नहीं होगा की माता – पिता अगर सचमुच बच्चों का भला चाहते हैं तो सबसे पहले उनकी रुचि को समझें। बच्चा जिस राह पर खुशी से चल सके ,उसमें उसकी मदद करें जो कहीं न कहीं वही उसकी सफलता की राह बनेगी। इतना ही नहीं बच्चे को और खुद भी, करियर विकल्पों की जानकारी दें,उसपर इत्मीनान से चर्चा करें क्योंकि – देश में दर्जनों ऐसे प्रोफेशन हैं जिनमें उज्जवल भविष्य है जैसे – पत्रकारिता, डिजाइनिंग, रिसर्च, आर्ट्स, स्पोर्ट्स, टेक्नॉलॉजी स्टार्टअप्स, पेंटिंग, सिंगिंग, डांसिंग, फोटोग्राफी यहां तक कि खेल-कूद भी , लेकिन जानकारी के अभाव में बच्चे अभिभावक महज़ ,डॉक्टर-इंजीनियर की कतार में खड़े हो जाते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें –

अवसाद और तनाव को “कमजोरी” मानने की मानसिकता छोड़नी होगी। स्कूल-कॉलेज में काउंसलिंग अनिवार्य होनी चाहिए।
सरकार और संस्थानों की जिम्मेदारी – कोचिंग सेंटर्स में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ नियुक्त हों। आत्महत्या रोकने के उपाय कानूनी रूप से लागू किए जाएं। हेल्पलाइन नंबर (जैसे कि 1800-599-0019 ‘किरण’) का प्रचार-प्रसार बड़े स्तर पर हो। अनुराग की मौत सिर्फ एक परिवार का दुख नहीं, बल्कि पूरे समाज की चेतावनी है। बच्चों को अपनी राह चुनने दें। उनकी जिंदगी मां-बाप की अधूरी ख्वाहिशें पूरी करने का जरिया नहीं है। यह समझना होगा कि सफलता का असली पैमाना पैसे नहीं, बल्कि खुशहाल और संतुलित जीवन है अगर अब भी समाज ने अपनी सोच नहीं बदली तो ऐसे अनुराग बार-बार हमसे छिनते रहेंगे। और तब सबसे बड़ा अपराधी कोई कोचिंग सेंटर या शिक्षा प्रणाली नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक जिद और संवेदनहीनता होगी।

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