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Sahitya Sanchi \महाकवि भूषण जिन्होंने शिवाजी महाराज का ‘शौर्य-वर्णन’ किया

महाकवि भूषण की वीररस से ओत-प्रोत एक कविता है, जिसमें छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य और पराक्रम वर्णन किया गया है-

इंद्र जिम जंभ पर, बाड़व सुअंभ पर, रावन सदंभ पर रघुकुलराज है।
पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर, ज्यौं सहस्रबाहु पर राम द्विजराज है।

दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुँड पर, भूषन बितुंड पर जैसे मृगराज है।
तेज तम-अंस पर, कान्ह जिम कंस पर, यौं मलेच्छ-बंस पर सेर सिवराज है॥

इस कविता में छत्रपति शिवाजी के शौर्य और पराक्रम की का बखान करते हुए कवि भूषण कहते हैं- देवताओं के राजा इंद्र ने जिस तरह दैत्यपति जंभ को मारा था, बड़वाग्नि जिस तरह समुद्र के जल को सुखाती है, अहंकारी रावण पर जैसे रघुकुल के राजा राम विजय प्राप्त करते हैं, बादलों पर जैसे तेज वायु के प्रवाह का प्रभाव रहता है, भगवान शिव ने जैसे रतिपति कामदेव को भस्म किया था, सहस्त्रबाहु को जैसे द्विज राम अर्थात परशुराम मार डालते हैं, वन के वृक्षों को जैसे दावाग्नि जलाकर नष्ट कर देती है, चीते का आतंक जैसे मृगों के झुंडों पर होता है, हाथियों पर जैसे वनराज सिंह आतंक छाया रहता है, जिस पर प्रकाश किरणें अंधकार का खात्मा कर देती हैं, श्रीकृष्ण जैसे कंस का विनाश करते हैं। उसी प्रकार अपने शौर्य और पराक्रम के कारण छत्रपति शिवाजी मुग़लों पर भारी पड़ते हैं और उन्हें आतंकित करते हैं।

प्रारंभिक जीवन

साहित्य के अनेक व्यक्तियों की जीवन वृत्ति संदिग्ध रही है, भूषण भी उनमें से एक हैं, उनका जन्म कब हुआ था, उनका समय कौन सा था, या उनकी मृत्यु कब हुई, यह कुछ भी तय नहीं है, भूषण ने स्वयं भी अपने बारे में कुछ ज्यादा लिखा नहीं है, यहाँ तक कि भूषण का मूल नाम क्या था, यह भी हमें ज्ञात नहीं है, “भूषण” तो एक उपाधि है, जो उन्हें चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्रसाह ने दिया था, हालांकि विद्वानों ने इन सभी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास जरूर किया है। जिसके अनुसार उनके पिता का नाम रतिनाथ या रत्नाकर था, वह कश्यपगोत्री कान्यकुब्ज ब्राम्हण थे, और तिकवाँपुर के निवासी थे, यह गाँव यमुना के किनारे स्थित था। कई विद्वान रीतिकालीन कवि चिंतामणि और मतिराम को उनका भाई मानते हैं, अर्थात सभी बंधु काव्य प्रतिभा सम्पन्न थे।

शिवाजी के दरबार में

कवि भूषण मध्यकालीन हिंदी साहित्य के रीतिकालीन युग के कवि, जिन्होंने उस काल में प्रचलित शृंगाररस से परिपूर्ण नायिका के नख-शिख वर्णन की जगह, वीरोक्त गुणों से युक्त नायक के शौर्य और पराक्रम का वर्णन किया है। यह काल जिसे सामंतयुग के पतन का काल कहा जाता है, केंद्रीय मुग़लसत्ता पूरे देश में व्याप्त है, और मुग़लसत्ता का प्रतिनिधि है औरंगजेब, जिसके साम्राज्यवाद और निरंकुश शासन से, जमींदार से लेकर किसान सब त्रस्त हैं। वह हिंदू धर्म द्वेषी भी है जो काशी, मथुरा इत्यादि में मंदिर भी तुड़वा रहा है, अब भक्ति का युग बीत चुका है, अब चाहिए वीरता का युग, लेकिन देश के राजा और सामंत तो दरबारों की संस्कृत में ही डूबे हुए हैं, उनके दरबारों में कवियों की भरमार है जो प्रेम और सौंदर्य की गाथाएँ रच रहें हैं, उन्ही में से एक कवि हैं भूषण, जो दरबारों में भटक रहे हैं, किसी ठौर-ठिकाने के लिए, लेकिन ठिकाना ऐसा हो, जहाँ का राजा शौर्यशाली हो, जिसकी गाथाएँ वह कलमबद्ध कर सकें, ऐसी काव्य जिससे भुजाएँ फड़क उठे, और ऐसा ठौर उनको मिला भी, दक्षिण में शिवाजी के दरबार में। इसी उद्देश्य से देश भ्रमण की पुष्टि उनके द्वारा रचित एक छंद से भी होती है-

मोरंग जाहु कि जाहु कुमाहु कि श्रीनगरै हु कबित्त बनाए।

बाँधव जाहु कि जाहु अमेर कि जोधपुरे कि चितौरहिं धाए ॥

जाहु कुतुब्ब की एदिल पे दिलीसहु पे किन जाहु बुलाए।

भूषत छह हौ निहाल मही गढ़पाल सिवाहि की कीरति गाए ॥

मराठी बखरों के अनुसार औरंगजेब से मुलाक़ात

कथा है कि उनके भाई मतिराम दिल्ली में मुग़ल बादशाह के यहाँ दरबारी कवि थे, एक बार वह उनसे मिलने गए थे, उनपर किसी ने व्यंग्य किया दिन भर घर में पड़े रहते हो कुछ करते धरते नहीं हो, संभवतः यह व्यंग्य उनकी भाभी ने ही किया था, क्योंकि एक कथा के अनुसार ही उनकी किसी भावज ने नमक के लिए भी व्यंग्य किया था, जिसके बाद वह रूठकर, राजाओं के यहाँ जाने लगे और अंततः दक्षिण में शिवाजी महाराज की कीर्ति सुनकर वह उनके पास ही रह गए, शिवाजी महाराज के दरबार में उनके रहने का जिक्र की पुष्टि चिटनीस के बखर से भी होती है। वहाँ वह लगभग छः वर्ष रहे और शिवाजी महाराज की यशकीर्ति लिखी। शिवाबावनी नाम के ग्रंथ की रचना, इसमें शिवाजी महाराज के शौर्य और वीरता से भरपूर हर दुस्साहसी कार्य का जिक्र है- शिवाजी महाराज द्वारा अफजल खान की हत्या, शाइस्ता खान की पराजय, जसवंत सिंह का दुर्ग की घेराबंदी से हटना, जयसिंह का शिवाजी के विरुद्ध अभियान, उनका आगरा जाना, राम सिंह द्वारा उनकी अगवानी करना, शिवाजी का औरंगजेब से मिलना, दरबार का हाल, शिवाजी की नजरबंदी और, मुग़ल नजरबंदी से निकलकर भाग जाना और सूरत की लूट इत्यादि घटनाओं का जिक्र उनकी कविताओं में हैं।

चिटनीस बखर के अनुसार एक बार भूषण दक्कन से अपने भाई से मिलने दिल्ली गए, बादशाह को जब यह बात पता चली तो उन्होंने भूषण को बुलाया, और कुछ सुनाने के लिए कहा, बादशाह ने कहा कुछ हमारे प्रशंसा में कहो, भूषण ने कहा वह तो शिवाजी के प्रशंसक है, इसीलिए अगर मेरी जान बक्शी जाएगी तभी मैं कुछ सुनाऊँगा, बादशाह ने हामी भरी, भूषण ने कई कविताएं सुनाईं, इसी समय उन्होंने एक कवित्त पढ़ा, जिसका संक्षेप में भावार्थ यह है, अन्य सभी राव-राजा तो बागों के विभिन्न फूल हैं, जिनपर औरंगजेब रूपी भँवरा मंडरा-मंडरा कर उनका रस चूस रहा है, लेकिन शिवाजी तो चम्पा के फूल हैं। क्योंकि यह माना जाता है, भँवरा चंपा के फूल पर नहीं बैठता है और ना ही उसका रस लेता है, यहाँ पर कविवर भूषण ने कितना सौंदर्यपरक और भावपरक वर्णन किया है। हालांकि चिटनिस बखर में दी गई इस घटना पर विद्वानों को कुछ संदेह है और वह इसे ऐतिहासिक मानने में कुछ संदेह प्रकट करते हैं।

छत्रसाल के दरबार में

छत्रपती शिवाजी महाराज के अलावा भूषण बुन्देल केसरी महाराज छत्रसाल के दरबार में भी रहे, महाराज छत्रसाल ने मुग़लों से विद्रोह कर स्वतंत्र बुंदेलखंड की नींव रखी थी, उनके संघर्ष, शौर्य और वीरोंचित गुणों प्रशंसा अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है, वह लिखते हैं-

देस दहपट्टि आयो आगरे दिली के मेले बरगी बहरि’ चारु दल जिमि देवा को।

भूपन भनत छत्रसाल, छितिपाल मनि ताकेर ते कियो बिहाल जंगजीति लेवा को।।

खंड खंड सोर यों अखंड महि मंडल में मंडो तें बुंदेल खंड मंडल महेवा को।

दक्खिन के नाथ को कटक रोक्यो महावाहु ज्यों सहसवाहु नै प्रबाह रोक्यो रेवा को॥

अर्थात भूषण ने इस कवित्त में महाराज छत्रसाल की तुलना हजार बाहों वाले सहस्त्रबाहु से की है, जिसने अपने भुजबल से नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया था। कहते हैं जब भूषण बुंदेलखंड से चलने लगे थे तो, तो महराज छत्रसाल ने कुछ दूर तक उनकी पालकी को कंधा दिया था, सहसा उनके मुख से एक कविता निकली जिसकी आखिरी पंक्ति है -“शिवा को सराहौं कि सराहौं छत्रसाल को” हालांकि कई ग्रंथों में शिवा की जगह साहू का पाठानंतर भी प्राप्त होता है।

भूषण की काव्य की भाषा और शैली

भूषण की ‘शिवा बावनी’, ‘शिवा भूषण’ और छत्रसाल दशक तीन रचनाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं, इनमें से शिवाबावनी की रचना उन्होंने रायगढ़ में शिवाजी के दरबार में रहकर की थी। यों तो भूषण शृंगार के युग में वीररस के कवि थे, उनके काव्य में समय अनुसार राष्ट्रीय चिंतन था, उनके हुंकार करते शब्द रगों में उत्साह भरते हैं, चूंकि उस समय काव्य की भाषा ब्रजभाषा थी, इसीलिए भूषण की कविताओं में भी वही भाषा है, हालांकि ओजपूर्ण शैली होने के कारण उनकी भाषा में कोमलता की जगह कठोरता है। लेकिन फिर भी युगानुसार उनकी कविताओं में शृंगार की झलक मिल ही जाती है। उनकी भाषा में फारसी का भी खूब प्रभाव मिलता है, कहीं-कहीं मराठी शब्द भी मिलते हैं, इसके अलावा लोक भाषाओं में प्रचलित मुहावरों का भी प्रयोग किया गया है। शिवाजी महाराज के युद्ध प्रयाण, तैयारियों और युद्धक्षेत्रों में उनके पराक्रम का ओजस्विता के साथ इतना प्रभावी और सजीव चित्रण किया गया है, पाठक और श्रोताओं के मंत्रमुग्ध हो जाते हैं और उनमें उत्साह का संचार सहज ही होने लगता है। इसीलिए उनकी काव्य की शैली में चित्रोपमता, प्रभावोत्पादकता और ओजस्विता तीनों गुण हमें प्राप्त होते हैं। रीतिकालीन अन्य कवियों की भांति भूषण ने भी अपने काव्य में अलंकारों का बहुत खूबसूरत प्रयोग किया है, अलंकार शब्द से ज्यादा अर्थ प्रधान हैं, यमक और अनुप्रास का प्रयोग उनके काव्य में बहुत है, शिवाजी के शौर्यवर्णन करते हुए एक छंद है, जिसमें अलंकृत यमक बहुत ही प्रभावी जान पड़ता है-

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करैं कंद मूल भोग करैं तीन बेर खातीं ते वै तीन बेर खाती हैं।

भूषन सिथिल अंग भूषन सिथिल अंग बिजन डुलातीं ते वै बिजन डुलाती हैं।
भूषन भनत सिवराज बीर तेरे त्रास नगन जड़ातीं ते वै नगन जड़ाती हैं॥

संक्षेप में इसकी व्याख्या करें तो शिवाजी महाराज के शौर्य से डरी मुग़ल स्त्रियाँ वनों में चली गईं हैं, महलों में रहने के समय की स्थिति और वनों में रहने की स्थित का का वर्णन एक ही तरह की पंक्तियों से किया गया है, पर इनके अर्थ अलग-अलग हैं।

भूषण का रीवा और चित्रकूट से संबंध

भूषण कई राजा-महाराजाओं के दरबार में रहे, लेकिन उनको आत्मिक सुख केवल शिवाजी और छत्रसाल के दरबार में ही मिला, चूंकि भूषण भी एक कवि ही थे, राजाओं की प्रशंसा में लिखना ही उनका कार्य था, इसीलिए उनकी कविताओं में बहुत से राजाओं का जिक्र है। उनकी काव्य प्रतिभा को पहला प्रश्रय दिया चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्रसाह ने, जो हृदयराम का पुत्र था, उनको भूषण नाम भी उसी ने दिया था, जिसकी पुष्टि भूषण ने भी की है, वह स्वयं लिखते हैं-

कुल सुलंक चितकूटपति, साहस-सील-समुद्र, कबि भूषन पदवी दई, हृदेराम सुत-रुद्र।

बहुत संभव है चित्रकूट के ये सोलंकी राजा, रीवा के बघेला कुल की ही कोई शाखा रहे हैं, यह बात इसीलिए भी गौर करने लायक है, क्योंकि ये सोलंकी रीवा के बघेलों की ही आधीनता स्वीकार करते थे, ऊपर भूषण के द्वारा लिखे गए कविता के राजा रुद्र का पिता हृदयराम, रीवा के राजा अनिरुद्ध सिंह की मृत्यु के बाद राज्य की देखभाल के लिए महारानी द्वारा नियुक्त किया गया था। आगे चलकर सोलंकियों का राज्य महाराज छत्रसाल ने छीन लिया था। भूषण की कविताओं में रीवा के राजा अवधूत सिंह का भी जिक्र है। अवधूत सिंह,अनिरुद्ध सिंह के ही पुत्र थे, इन्हीं के समय में बुंदेलों ने भी रीवा मे आक्रमण किया था। इसके अलावा उनकी कविताओं में कई जगह बघेले और बांधवगढ़ का जिक्र है इसीलिए विद्वान मानते हैं भूषण रीवा के दरबार में कुछ समय तक रहे थे।

भूषण ने शिवाजी महाराज के शौर्य और पराक्रम की कहानियों को छंदबद्ध कर, जन-जन में अत्यंत लोकप्रिय कर दिया, जब-जब उनका जिक्र होगा, कविवर भूषण जरूर याद किए जाएंगे, ऐसा प्रतीत होता है दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, संयोग देखिए कल शिवाजी महाराज की भी जयंती है, एक कवि का श्रेष्ठ गुण और सफलता भी यही मानी जा सकती है।

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