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मदन मोहन: जो सेना के अफसर से संगीतकार बने

About Musician Madan Mohan In Hindi | न्याज़िया बेगम: ऐसी धुनों को संजोया उन्होंने, जो उनके जाने के बाद भी हमें आनन्द की अनुभूति करा रही हैं और नए रूप रंग में सुनने को भी मिलती हैं। जी हां सन 2004 की फिल्म, वीर ज़ारा में उन्हीं की धुनों को दोबारा संयोजित किया था उनके बेटे संजीव कोहली ने। उन्होंने ऐसी अनुपम सुर लहरियों को बनाया, जिसका जादू आज भी बरक़रार है। पारखी लोग तो शुरुआती धुन सुन कर ही पहचान जाते थे, कि ये कोई और नहीं मदन मोहन हैं, जी हां हमारे आपके जैसे बहोत लोग उनकी धुनों के दीवाने हैं। आज भी शहीदों से जुड़ा गीत, ‘कर चले हम फिदा’ सबसे पहले श्रद्धांजलि स्वरूप बजाया जाता है उनके संगीतबद्ध किए गीतों का हर बोल संगीत को एक अहम बहाव देता जिसकी रौ में हम बह जाते हैं।

कैरियर की शुरुआत अभिनय से की

पर उनकी ज़िंदगी में एक वक्त वो भी गुज़रा कि उन्हें भी ये यक़ीन नहीं था की वो संगीत रचना कर सकते हैं। क्योंकि वो तो आए थे फिल्मों में एक्टिंग करने। कई छोटी छोटी भूमिकाएं की भी जैसे मुनीमजी में नलिनी जयवंत के भाई बनें, तो शहीद में कामिनी कौशल के,1946 और 1948 के बीच उन्होंने संगीतकार एसडी बर्मन के साथ फिल्म दो भाई और श्याम सुन्दर के साथ फिल्म एक्ट्रेस में सहायक भूमिका निभाई। फिर उन्हें एहसास हुए की वो मुख्य भूमिका नहीं निभा सकते जब वो छोटे थे तो मुंबई में सुरैया, राजकपूर के साथ एक स्कूल में पढ़े थे। तभी से आप सब दोस्त थे मदन जी यहां जद्दन बाई के पड़ोसी भी थे इसलिए उनका गाना बहोत ग़ौर से सुनते थे और नर्गिस से भी दोस्ती हो गई थी तभी से उनकी संगीत में रुचि भी बढ़ गई थी।

एस. डी. बर्मन ने उनकी प्रतिभा को पहचाना

सन 1943 में उनके पिता ने फिल्मिस्तान प्रोडक्शन कंपनी शुरू कि जिसमें मदन, सचिन देव बर्मन से मिले थे और अपनी कुछ धुनें भी सुनाई थीं। जिसके बाद उन्होंने कहा था की तुम संगीतकार बनों, पर पिता के कहने पर वो कुछ दिन सेना में भी रहे। फिर कुछ वक्त बाद उन्हें ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ में संगीत समन्वयक की नौकरी मिल गई। संगीत की दिशा में ये उनका पहला क़दम था यहां वो मुस्लिम संस्कृति से भी बहुत प्रभावित हुए और उर्दू भी सीखी।

मदन कोहली से बने मदन मोहन

फिर 1948 तक वो मुंबई लौट आए, पिता जी से कहा कि वो संगीतकार बनना चाहते हैं पर पिता जी को उन पर भरोसा नहीं था, इस बात से वो बहोत परेशान हुए फिर अपने दोस्तों देवेंद्र गोयल और शेखर के साथ मिलकर पैसे उधार लिए और अभिनेत्री नलिनी जयवंत को लेकर फिल्म बनाई आंखें, तभी से बतौर संगीतकार अपने नाम में मदन कोहली की जगह मदन मोहन कर दिया। जिनकी धुनें सबको मंत्रमुग्ध कर देती थी। उनकी अगली फिल्म अदा थी जिसमें लता मंगेशकर ने उनके लिए गीत गाए और फिर उनके संगीत निर्देशन में आगे भी गीत गाती रहीं।

फिल्मों में दिया सुपरहिट संगीत

शराबी फिल्म के लिए उनके द्वारा रचित दो गीत – “सावन के महीनों में” और “कभी न कभी कोई न कोई तो आएगा”, दोनों देव आनंद के लिए फिल्माए गए और मोहम्मद रफी के सबसे मशहूर गानों में शुमार रहे। इसके अलावा, फिल्म जहाँआरा (1964) से “वो चुप रहें तो” और दुल्हन एक रात की (1966) से “मैंने रंग ली आज चुनरिया” जैसे गीतों की तर्ज़ ने सबको उनका दीवाना बना दिया। ग़ज़लों की तर्ज़ को तो वो जाने किस तरह दिल में उतार देते थे, ज़रा याद करिए तलत महमूद की आवाज़ में ( फिर वही शाम, वही ग़म, वही तन्हाई है, मैं तेरी नज़र का सुरूर हूं और तेरी आंख के आंसू जहांआरा से, और मेरी याद में तुम ना मदहोश से, आपकी नज़रों ने समझा फिल्म अनपढ़ से और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में एक हसीन शाम को दुल्हन एक रात की से। किसी की याद में जहांआरा से, मैं निगाहें तेरे चेहरे से, आप की परछाइयां से, आप के पहलु में आकर रो दिए, मेरा साया से, ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं हीर रांझा से, तेरे दर पे आया हूं लैला-मजनू से। हमेशा याद रहने वाला नग़मा, मेरी आवाज़ सुनो और तुम्हारे जुल्फ़ के साएं में, नौनिहाल से तेरी आंखों के सिवा दुनिया मैं चिराग से। मदन मोहन अक्सर गीतकारों में राजा मेहदी अली खान, कैफ़ी आज़मी और राजिंदर कृष्ण, साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के साथ काम करते थे।

मदन मोहन ने नहीं लिया था संगीत का औपचारिक प्रशिक्षण

अपनी वेशभूषा में तो वो पश्चिमी संस्कृति को अपनाते थे, बेहद अच्छी इंग्लिश बोलते थे पर उनके संगीत में भारतीय संस्कृति की झंकार थी । 25 जून 1924 को बगदाद में जन्मे मदन मोहन ने लाहौर में रहने के दौरान, बहुत ही कम समय के लिए करतार सिंह से शास्त्रीय संगीत की मूल बातें सीखीं थीं, फिर उन्होंने कभी संगीत में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था फिर भी फ़िल्म दस्तक के लिए रागों पर आधारित संगीत दिया और सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन के लिए 1971 का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता।

भारतीय धुनों में लगाई पश्चिम की छौंक

इससे पहले फिल्म अनपढ़ और 1964 में उन्हें वो कौन थी फिल्म के गीतों के लिए भी सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार में नामांकित किया गया था। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय धुनों को पश्चिमी संगीत के तत्वों जैसे कि हारमोनी के साथ मिलाकर एक ऐसी संगीत शैली तैयार की जिसे शास्त्रीय संगीत के प्रशंसक और आम आदमी दोनों ही पसंद करते हैं।
भारतीय शास्त्रीय धुनों की बारीकियों को समझने के लिए उनके पास एक गहरी और संवेदनशील क्षमता थी, जिसमें उनकी साधना किसी तपस्या से कम नहीं थी जो पूर्ण हुई 14 जुलाई 1975 को जब उन्होंने इस दुनिया में अंतिम सांस ली, पर वो हमारे दिलों में हमेशा जावेदा रहेंगे अपनी दिलकश धुनों के ज़रिए।

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