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रीवा के राज सिंहासन पर विराजमान है भगवान राम, 500 वर्षो से प्रशासक के रूम में काम करते रहे महाराज

रीवा। राजगद्दी का अपना विशेष महत्व होता था, कहते थे जिसकी गद्दी जितनी बड़ी हो उसका वैभव उतना बड़ा होता था। अब ऐसे में कौन सा राजा अपनी गद्दी में न बैठना चाहता होगा, लेकिन मध्य प्रदेश के रीवा में इसका उल्टा है। रीवा एक ऐसी रियासत है, जहां राजा राजगद्दी पर नहीं बैठते हैं. रीवा की बघेल रियासत में राजा नहीं भगवान राम को राजगद्दी पर बिठाया जाता है. यह परंपरा सालों पहले से चली आ रही है।

भगवान लक्ष्मण जी को माना गया है आराध्य

रीवा राज्य की गद्दी पर महाराजा के बजाय भगवान श्री राम या कभी-कभी भगवान लक्ष्मण को राजाधिराज के रूप में विराजित करके पूजा जाता है, और यह परंपरा लगभग 500 साल पुरानी है. महाराजा खुद गद्दी पर नहीं बैठते, बल्कि प्रशासक के रूप में कार्य करते हुए भगवान के प्रति सेवक भाव से राज्य का संचालन करते हैं।

ऐसा है इतिहास

जो तथ्य मिलते है उसके तहत बाघेल राजवंश के तत्कालीन महाराजा विक्रमादित्य सिंह जूदेव ने सन 1617 में राजसिंहासन पर स्वयं बैठने के बजाय भगवान श्री राम को राजाधिराज स्थापित किया था। ऐसी मान्यता है कि विंध्य का क्षेत्र भगवान श्री राम के छोटे भाई लक्ष्मण का था, और उनका भी राजसिंहासन पर बैठने से मना करने के कारण, लक्ष्मण जी को गद्दी पर बिठाकर पूजा जाता है। इस परंपरा का निर्वाह करते हुए, रीवा के राजाधिराज के रूप में भगवान राम-लक्ष्मण की प्रतिमा को गद्दी पर विराजमान करके पूजा की जाती है, और महाराजा जमीन पर बैठकर पूजा करते हैं।

राजाधिराज के पीछे चलती है महाराज की सवारी

दशहरे के अवसर पर निकाले जाने वाले चल समारोह में भगवान राजाधिराज की झाँकी निकाली जाती है, जिसमें राजाधिराज की सवारी आगे रहती है और फिर राजवंश के लोग रथ पर सवार होते हैं। इस परंपरा को आज भी राजपरिवार के लोग कायम किए हुए है। जिसके तहत उपरहटी किला में राजाधिराज और राजगद्दी की पूजा होती है। इस दौरान राज परिवार के लोग जमीन पर बैठ कर इस पूजा में हिस्सा लेते है, तो वही परंपरा के तहत चल समरोह निकला जाता है।

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