Legend Rahat Indori Sahab-Anjum Ji – जब दो महबूब मिले रक़ीबों की शक्ल में, तो शायरी की झील में तैर गया दर्द….राहत-अंजुम की जुदाई के बाद एक मुकम्मल मुलाकात की यह तस्वीर जिसने भी देखी होगी, ये दो चेहरे, उर्दू शायरी का हर दीवाना पहचानता है। एक, आवाज में गरज और अल्फाज में जुनून लिए राहत इंदौरी साहब और दूसरी, नाजुक मगर जज्बात की गहराइयों को छू लेने वाली अदा से सजी अंजुम रहबर। ये एक ऐसे दौर की गवाह है जब ये दोनों एक दूसरे के सुख-दुख की साथी थे जी,ये दोनों पति-पत्नी थे। 1990 के दशक में उनके रिश्ते की डोर टूट गई इसके बाद इस जब तलाकशुदा जोड़े यानी राहत इंदौरी और अंजुम रहबर ने एक ही मंच साझा किया, तो शेर-ओ-शायरी की बारिश में दर्द बह चला, नाराजगी में छुपा प्यार फ़फक पड़ा इस लेख में उन मोहब्बत तरीन लम्हों को समेटे न सिर्फ प्रयास किया है बल्कि देश के दो महान शायरों के दर्द को महसूस करते हुए वक्त के फैसले को ज़ुल्म करारने की भी कोशिश की है। यहां पढ़िए उस ऐतिहासिक मुशायरे की पूरी कहानी जो फिलहाल सोशल मीडिया पर मील का पत्थर साबित हुई है। ये मुशायरा ,एक ऐसा अद्भुत और मार्मिक संगम था, जहां शेर सिर्फ अल्फाज का जाल नहीं, बल्कि एक-दूसरे के प्रति छुपे हुए जख्म, नाराजगी और आज भी दबे प्यार का इजहार था। यह कहानी है उसी ऐतिहासिक मुशायरे की, जहां दो दिलों ने शब्दों के जरिए एक-दूसरे से बात की और पूरी महफिल को रोमांचित कर उन पलों को एतिहासिक बना दिया।
एक जोड़ी जिसने शायरी और जिंदगी का सफर साथ तय किया
राहत इंदौरी (1950-2020) और अंजुम रहबर का रिश्ता सिर्फ एक शादी से कहीं ज्यादा, दो कलाकारों, दो संवेदनशील आत्माओं का मिलन था। राहत साहब अपनी बुलंद आवाज और जनता के दिलों की धड़कन को छू लेने वाले शेरों के लिए मशहूर थे। अंजुम रहबर अपनी नाजुक और दिल को चीर देने वाली गज़लों के लिए जानी जाती थीं। उस दौर में, यह जोड़ी उर्दू साहित्य और शायरी की दुनिया में एक सुनहरे जोड़े के तौर पर देखी जाती थी। उनका निकाह मानों दो कलात्मक युगों का विवाह था मगर, जैसा कि अक्सर संवेदनशील कलाकारों के साथ होता है, निजी जिंदगी की चुनौतियां, अपेक्षाएं और शायद दो तेजस्वी व्यक्तित्वों का टकराव, उनके रिश्ते के बीच दरार बन गया। आखिरकार 1993 में उनकी शादी टूट गई जिसकी नियत तिथि को लेकर स्रोतों में भिन्नता है लेकिन अंततः उनका तलाक हो गया। यह सिर्फ एक कानूनी फैसला नहीं था, एक खूबसूरत , इश्क से लबरेज एक साझा सपने का टूटना था।
वो मुलाकात जब किस्मत ने एक मुशायरे में मिलवा दिया
तलाक के बाद का समय शायद दोनों के लिए अलग-अलग सफर तय करने का था। राहत साहब शायरी की दुनिया के बादशाह बनते चले गए, तो अंजुम जी ने अपनी एक अलग पहचान बनाई। फिर वह दिन आया जब किसी मुशायरे के आयोजकों ने दोनों का नाम एक ही कार्यक्रम की सूची में शामिल किया। इस मौके को किसी ने प्लान तो नहीं किया था, लेकिन यह इतिहास बनने वाला था। महफिल में मौजूद लोगों और आयोजकों को अंदाजा था कि यह कोई सामान्य शाम नहीं होगी। दर्शकों में एक अजीब सी उत्सुकता और बड़ी गहरी जिज्ञासा थी। जब यह दोनों शायर मंच पर बैठे, तो हवा में तनाव साफ महसूस किया गया था। यह सिर्फ शेर पढ़ने का मुकाबला नहीं था बल्कि ये दो टूटे हुए दिलों का, बिना एक शब्द बोले, सिर्फ अपनी शायरी के जरिए आपस में संवाद करने का यादगार और ऐतिहासिक पल भी था।
अंजुम रहबर का पहला वार – जख्मों को शब्द दिए
मुशायरे का दांव-पेंच चला। अंजुम रहबर ने अपनी गज़ल के जरिए सीधे तौर पर राहत साहब को संबोधित किया। उनके हर शेर में एक गहरा दर्द, एक तल्ख याद और एक ऐसा एहसास था जो कह रहा था कि देखो वो ,तुम्हारे बगैर भी मैं ब-खूबी जिंदा हूं…..और उस शेर की लाइन थी

“मोहबतों का सलीका सिखा दिया मैंने-तेरे बगैर भी जी कर दिखा दिया मैंने”
इस शेर की शुरुआत ही एक जबरदस्त घोषणा के साथ होती है। यह एक प्रतिरोध तो था ही, एक स्वयं की ताकत का एलान भी था। वो खुद को साबित करते हुए कह रही हैं कि उन्होंने न सिर्फ प्यार करना सिखाया बल्कि अब उस प्यार के बिना जीना भी सीख लिया है। उसी की अगली कड़ी कि…..
“बिछड़ना मिलना तो किस्मत की बात है लेकिन-दुआएं दे तुझे शायर बना दिया मैंने,
जहां सजा के मैं रखती थी तेरी तस्वीरें-अब उस मकान में ताला लगा दिया मैंने,
जो तेरी याद दिलाता था चहचाहाता था-अपनी मुंडेर से वो परिंदा उड़ा दिया मैंने,
यह मेरे शेर नहीं हैं ,जख्म हैं ‘अंजुम’-ग़ज़ल के नाम पे क्या क्या सुना दिया मैंने,
ये अभी और हसीं और सुहाना होगा,-न हुआ है,और न कभी प्यार पुराना होगा,
है ताल्लुक तो अना छोड़नी होगी इक दिन-तुमसे रूठी हूं मैं तुझे आ के मनाना होगा”
अगले शेर में नाराजगी के साथ-साथ एक छुपी हुई उम्मीद भी झलकती है उनके इस शेर में कि…..
“है कोई और नज़र में तो इजाजत है तुझे-शर्त इतनी है मुझे शादी में बुलाना होगा”
यह शेर सबसे ज्यादा चर्चा में रहा.. जब तुम शादी करोगे, तो मुझे जरूर बुलाना। यह एक तीखा व्यंग्य है, जो अंततः दर्द को हंसकर छुपाने की कोशिश कर रहा है।
राहत इंदौरी का जवाब – हुनर से भरा ,पर दर्द से लबालब
अब नजरें पूरी महफिल की राहत साहब पर थीं। एक महान शायर होने के नाते, उन्हें पता था कि जवाब कैसे देना है। उन्होंने अपनी गज़ल से जवाब दिया, जो उतना ही बुलंद, संजीदा,और दर्दनाक भी था उन्होंने अपनी लिखी ऩज्म को पेश कर दिया कि……
“बचा के रक्खी थी कुछ ज़माने से-हवा चिराग उड़ा ले गईं सरहाने से
हिदायतें न करो-नसीहतें न करो-इश्क करने वालों को-यह आग और भड़क जायगी भूझाने से
हुआ है सामना फिर जिंदगी का अर्से बाद-बड़े दिनों में पुरानी मिली पुराने से
हरेक इम्तिहां से गुजर थोड़ी जायेंगे-तुझसे नहीं मिलेंगे तो मर थोड़ी जायेंगे”

यह शेर राहत साहब के अंदाज की जबरदस्त मिसाल है। वह कहते हैं कि हम हर इम्तिहान मैं भी गुजर रहा हूं लेकिन मर जाने की नौबत यहां भी नहीं आगे उन्होंने कहा कि……
“उठने को उठ गए हैं तेरी बज्म से अब-इतनी रात हो गईं है घर थोड़ी जायेंगे”
यह शेर उस मुशायरे के माहौल को करता हुआ प्रतीत होता है। वह कहते हैं, “हम उठने को तो तुम्हारी महफिल (बज्म) से उठ गए हैं” यह शायद सीधा तलाक की तरफ़ इशारा…कि अब इतनी रात हो गई है कि हम घर थोड़ी जाएंगे ?” यानी, अब जाना है तो जाना ही होगा।
“अब जो मिला है उसका निभाएंगे साथ-हम तेरी तरह से मुकर थोड़ी जाएंगे”
इन आखिरी लाइनों में राहत साहब अपने वर्तमान और भविष्य का मानों खुले तौर पर खुलासा करते हैं। वह कहते हैं, “अब जो मिला है ,शायद नया जीवन, नए रिश्ते, उसका साथ निभाएंगे। हम तुम्हारी तरह से मुकर थोड़ी जाएंगे?” यह एक तीखा प्रत्युत्तर था । यह अंजुम के “मुकरने” के आरोप का जवाब देता प्रतीत होता है, मानो कह रहे हों कि हमारे हिस्से में वफा ही वफा है, हम किसी का साथ नहीं छोड़ेंगे।
विशेष – उस रात की वो महफिल कभी खत्म नहीं हुई। वो शेर, वो एहसास, और वह आमना-सामना आज भी सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म पर, शायरी की किताबों और उर्दू प्रेमियों की जुबान पर जिंदा हैं और शायद हमेशा रहेंगे। राहत और अंजुम की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि इंसानी रिश्ते चाहे कितने भी जटिल क्यों न हों, और उनके टूटने का दर्द चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, कला हमेशा एक ऐसा माध्यम बनकर उभरती है जो उस दर्द को अमरता प्रदान कर देती है। यह हम सबके लिए,न सिर्फ उर्दू शायरी का बल्कि प्रेम, विश्वासघात और जीवटता का एक अद्भुत और अविस्मरणीय अध्याय है राहत साहब अब नहीं रहे लेकिन उनकी शायरी उनकी याद को कभी मरने नहीं देंगी जबकि अंजुम रहबर आज भी अपने शेरों की जिंदादिली के चलते हर दिल अज़ीज़ हैं और ता-ज़िंदगी बनीं रहेंगीं।