देश को आज़ाद हुए 22 बरस हो चुके थे, भारत और पाकिस्तान दो अलग मुल्क बन चुके थे। दोनों मुल्क अतीत में दो युद्ध भी लड़ चुके थे। भारत में इंदिरा गांधी का युग प्रारंभ हो रहा था, कांग्रेस में पुराने सिंडिकेट्स का दौर लगभग अवसान की तरफ था, जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे जैसे इक्का-दुक्का गांधीवादियों को छोड़ दे तो महात्मा गांधी अब केवल जयंतियों में शेष थे। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में एक शख्स ऐसा भी था, जो गांधीवाद का झंडा अभी भी बुलंद किए हुआ था, वे रहते तो पाकिस्तान में थे, लेकिन उनके साँसों में अभी भी भारत बसा हुआ था, जो कहा करते थे भारत ने गांधी को भुला दिया, नेहरू और सरदार ने पश्तूनों को भेड़ियों के चंगुल में फेंक दिया। वह व्यक्ति जब 22 वर्षों बाद गांधीजन्म शताब्दी में शामिल होने भारत आए तो उनका पाकिस्तान वीसा के साथ आए लेकिन उसी पाकिस्तानी हुकूमत के विरुद्ध अनशन करते थे। ये शख़्स थे खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें पश्चिमोत्तर प्रांत या सरहदी क्षेत्रों में सक्रियता के कारण सीमांत गांधी कहा जाता था। उन्हें बच्चा खान या बादशाह खान भी कहा जाता था।
महात्मा गांधी से प्रभावित खान अब्दुल गफ्फार खान
खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म सरहदी इलाके के पठानों के परिवार में हुआ था, उनके पिता क्षेत्र के जमींदार थे, आमतौर कबीलाई प्रवृत्ति के इन सरहदी पठानों को बहुत उपद्रवी माना जाता था, चूंकि पश्तूनों के बाहुल्य का यह इलाका बेहद पिछड़ा हुआ था, सामाजिक और राजनैतिक जागरूकता भी इन क्षेत्रों में नहीं थी, इसीलिए पठानों को मुख्यधारा में लाने के लिए अब्दुल गफ्फार खान ने वर्ष 1929 में खुदाई खिदमतगार संगठन की स्थापना की, जो महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन और सत्याग्रह से प्रेरित था और महात्मा गांधी के सत्याग्रहों का समर्थन भी करता राहत था, नमक सत्याग्रह में ‘खुदाई खिदमतगार’ संगठन ने महात्मा गांधी और उनके आंदोलन का समर्थन किया था, जिसके कारण खान अब्दुल गफ्फार ‘खान’ समेत कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया था, अपने नेताओं के विरोध के बाद ‘खुदाई खिदमतगार’ के सदस्य और कार्यकर्ता 23 अप्रैल 1930 को पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में एक शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे, लेकिन इसके बाद भी ब्रिटिश आर्मी के सिपाहियों ने गोलीबारी की, जिसमें कई लोग आहात हुए, ब्रिटिश रिकार्ड के अनुसार लगभग 20 लोग आहत हुए थे, लेकिन लोगों के अनुसार लगभग 400 कार्यकर्ताओं की मृत्यु हो गई थी। यह घटना इतिहास में बेहद प्रसिद्ध है, जिसके बाद ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम ने इस घटना के विरुद्ध जांच भी बैठाई थी।
खान अब्दुल गफ्फार खान को अपने आंदोलनों में कभी भी मुस्लिम लीग का सहयोग नहीं मिला, लेकिन काँग्रेस ने हमेशा उन्हें समर्थन दिया, शायद इसकी वजह यह भी थी, खान अब्दुल गफ्फार खान महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित थे, और शांतिपूर्ण तरीके से आजादी के पक्षधर थे, उनके बड़े भाई डॉ अब्दुल जब्बार खान तो कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे, और आजादी के समय नॉर्थ वेस्ट फ्रन्टियर प्राविन्स के चीफ मिनिस्टर भी थे। आमतौर पर पश्तूनों का इतिहास उपद्रवी रहा है, लेकिन इतने शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलनों में शामिल होने के पीछे गांधी का ही प्रभाव था।
दिल में भारत
खान अब्दुल गफ्फार खान और खुदाई खिदमतगार के सदस्यों ने भारत विभाजन का विरोध किया था, वह भारत के साथ ही रहने के पक्षधर थे, इसीलिए पाकिस्तान में शामिल होने की जगह अफगानों के लिए उन्होंने ब्रिटिश भारत से अलग पठानिस्तान य पश्तूनिस्तान की मांग की, हालांकि ब्रिटिश सरकार द्वारा यह मांग नहीं मानी गई, पाकिस्तान निर्माण के बाद पठानों के हितों के खातिर वह पाकिस्तान में ही रहे, 23 फरवरी 1948 को उन्होंने पाकिस्तान की संविधान सभा में भाग लिया और देश के लिए निष्ठा की शपथ भी ली, इसके बाद मुहम्मद अली जिन्नाह ने उनके साथ बड़ा मित्रवत व्यवहार किया, लेकिन नए देश और वहाँ की सरकार के साथ उनकी नहीं बनी, और आजादी के ठीक 10 महीने बाद, उन्हें देशद्रोह के आरोप में, पंजाब के मॉन्टगोमरी जेल में फिर से कैद कर लिया गया। 1961 में जनरल अयूब खान की सैन्य सरकार ने उन्हे अफगानिस्तान का एजेंट बताते हुए फिर से गिरफ्तार करके सिंध की जेल में भेज दिया। हालात ऐसे बन गए थे, उन्हें एक समय देश अफगानिस्तान में शरण लेनी पड़ी थी, अफगानिस्तान सरकार ने जलालाबाद में उन्हें राजनैतिक शरण दी थी, आजादी के 22 वर्ष बाद 1969 में गांधी जन्मजयंती के शताब्दी वर्ष में शामिल होने के लिए भारत सरकार के बुलावे पर जब वो आए, तो एयरपोर्ट पर उनके स्वागत के लिए स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण उनके स्वागत के लिए आए थे, वह खुली जीप से जब निकल रहे थे, जगह-जगह पर उनके स्वागत के लिए लोग उमड़ रहे थे।
वर्ष 1987 में वह फिर से भारत आए थे जब भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया था, 20 जनवरी 1988 को उनका निधन हो गया, अपने 98वें जन्मदिन के 17 दिन पहले ही उनका निधन हुआ था, उनकी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार अफगानिस्तान के जलालाबाद में किया गया, जहां निर्वासन के समय वह निवास करते थे, उनके जनाजे में पाकिस्तान और अफगानिस्तान से हजारों लोग शामिल हुए, उस दिन ना तो पासपोर्ट की बंदिश थी, ना वीजा की, उनके अंतिम यात्रा में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक़ भी शामिल हुए।