Khajulaiya Festival In Hindi: विंध्य क्षेत्र में सावन और भादों के महीने में, जब प्रकृति अपनी हरीतिमा से हरित होकर हर्षित होती है, तो यूं लगता है, जैसे किसी उमंगित नववधू ने सावन में सोलह शृंगार किए हो।
आषाढ़ के महीने में, अंकुरित धान की फसल उस समय कुछ बड़ी होकर अंगड़ाई लेने लगती है.उसे देख यूं लगता है, जैसे खेतों में यौवन आ गया हो। उसी फसल को देखकर खेतों की मेड़ में बैठा किसान प्रफुल्लित होता रहता है। और प्रफुल्लित मन से फूटते हैं गीत, और गीत तो होते ही हैं उत्सव का प्रतीक।
तो आज बात एक ऐसे ही उत्सव की, जो विंध्य की माटी में रचा-बसा, एक ऐसा ही लोकपर्व है.शायद आप समझ गए होंगे.जी खजुलइयाँ। जिसे कजालियां और भुजारियां भी कहा जाता है, जो बघेलखंड और बुंदेलखंड में बड़े-बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है।
यह त्यौहार सावन खत्म होने के बाद, भादौं महीने की प्रतिपदा अर्थात राखी के दूसरे दिन मनाया जाता है। यह उत्सव मूलतः प्रकृति से जुड़ा हुआ फसल की उन्नति का प्रतीक है, और शायद अनंतकाल से मनाया जा रहा हो।
दरअसल हमने पहले भी कई बार बताया है, इस क्षेत्र में निवास करने वाले मूलतः कोल जनजाति के लोग थे, जो अपनी फसल की उन्नति के लिए यह पर्व मनाया करते थे।
पहले वह जौ के बीज बोते थे और फिर अंकुरित होकर कुछ बड़े होने के बाद अपने देवताओं को समर्पित करते थे, और एक-दूसरे से मिल जुलकर खजुलइयां जोहरते और सुख समृद्धि की कामना करते थे। आगे चलकर जब भिन्न -भिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का मिलन हुआ, तो यह पर्व विंध्य के सर्वसमाज में प्रचलित हो गया।
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खजुलइयां का यह पर्व केवल, खेत-खलिहान और लोकपरंपरा से ही नहीं जुड़े हैं, बल्कि इसमें युद्ध और वीरता के किस्से भी मिलते हैं। ऐसी ही एक कथा इतिहास में प्रसिद्ध है, जब महोबे के राजा परिमल देव की पुत्री चंद्रावलि ने भुजारियाँ अर्थात खजुलइयां का पर्व मनाने का निश्चय किया और परंपरा के अनुसार जौ के दानों की बुवाई भी कर दी, भुजारियों को कीरत सागर तालाब में सेराया जाता था।
लेकिन दुर्भाग्यवश उसी समय दिल्लीपति पृथ्वीराज की सेना ने महोबे में चढ़ाई कर दी, सेना ने पूरे नगर को घेर लिया और तालाब तक पहुँचने का रास्ता अवरुद्ध कर दिया। अब चंद्रवलि दुविधा में थीं.एक ओर आस्था और परंपरा और दूसरी तरफ युद्ध का खतरा।
परंपरा अनुसार कजलियां बो दी गईं थीं, इसीलिए अब उन्हें तालाब में सेराना जरूरी था। लेकिन महोबे के वीर बनाफर योद्धाओं आल्हा-ऊदल और मलखान इत्यादि ने अपनी बहन को इस दुविधा से निकालते हुए, कजलियाँ सेराने को जाने के लिए कहा।
कथा अनुसार चंद्रावलि अपनी सोलह सौ सखियों के साथ कीरत सागर तालाब में कजलियाँ सेराने के लिए चलीं, इधर दिल्ली की फौज कीरत सागर पर पहले ही कब्जा कर चुकी थी।
परिणाम स्वरूप महोबा की सेना और दिल्ली की सेना में भीषण युद्ध प्रारंभ हो गया, तालाब के किनारे भी विकट युद्ध हुआ। चंद्रावल ने अपनी सखियों के साथ कीरत सागर तालाब पर कजलियाँ का पर्व मनाया, जिसमें लड़ते हुए चंद्रावल के ममेरे भाई सहित बहुत सारे महोबे के वीर लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।
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महोबे के वीरों बलिदान दिया लेकिन कजलियाँ सेराने की परंपरा को नहीं टूटने दिया। चंद्रावल ने अपनी सखियों के साथ कीरत सागर तालाब पर कजलियाँ का पर्व, सुरक्षित रूप से मनाया और राजमहल लौट आईं। हालांकि तथ्यों के अभाव में हम इस कहानी की ऐतिहासिक पुष्टि नहीं करते हैं। लेकिन बुंदेलखंड और बघेलखंड के अंचलों में आल्हा खंड की यह कथा अब भी बहुत प्रसिद्ध है।
एक बात और, जैसा हमने पहले भी एक वीडियो में बताया था, लोग भ्रमवश आल्हा-ऊदल को बुंदेलखंड से जोड़ते हैं, लेकिन उनसे संबंधित ज्यादातर निशानियाँ बुंदेलखंड में नहीं बघेलखंड में हैं, अगर आपने यह विडिओ नहीं देखा है, तो हमारे चैनल में जाकर देख सकते हैं।