कण्णप्पा नायनार: एक परम शिव-भक्त की कथा

एक सुप्रसिद्ध भजन है, भगत के वश में हैं भगवान और सचमुच ईश्वर भक्त के वश में भी होता है, वह सच्ची श्रद्धा और निर्मल भावना ही जानता है, आज बात भगवान शिव के ऐसे ही परम भक्त की, जिसके भक्ति का माध्यम भले ही अपवित्र था, लेकिन उसकी भक्ति सच्ची थी, वह भक्त थे एक नयनार संत कण्णप्पा।

कौन होते हैं नयनार

पूर्वमध्यकालीन भारत में हुए भक्तिधारा के आंदोलन ने, राष्ट्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ, जिसने इस काल के धार्मिक और सामाजिक सुधारों में अग्रणी भूमिका निभाई। इसके उद्भव के कारणों में विद्वानों में मतभेद है, लेकिन एक बात से सहमत हैं, इसका उदय दक्षिण भारत से हुआ था। दक्षिण भारत से उदय हुए भक्ति आंदोलन की शुरुआत का श्रेय अलवारों और नयनारों को जाता है। इनका समय 8 वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी के बीच माना जाता है। अलवार वैष्णव संत थे जिनकी संख्या 12 मानी जाती थी, जबकि नयनार शैव्य थे जिनकी संख्या 63 थी।

नयनार शैव्य थे, इन्होंने शैव्य सिद्धांतों को फैलाने में प्रमुख भूमिका निभाई, सभी नयनार मुक्तात्मा माने जाते हैं, इनकी मूर्ति मंदिर में स्थापित की गईं, और देवताओं के समान ही इनकी पूजा की जाती है। नयनार विभिन्न पृष्ठभूमियों से आए संत थे। इनमें ब्राह्मण, दलित, आदिवासी, सैनिक, किसान सब शामिल थे। नयनार संतों के नाम सबसे पहले सुंदरार द्वारा संकलित ग्रंथ में आए थे, हालांकि उनका कोई जीवन वृत्त नहीं दिया गया है, लेकिन उसी को आधार बनाकर नाम्बियांदर नाम्बी ने जो की एक पुजारी थे उन्होंने तेवरम की रचना की, और इन रचनाओं में उन्होंने खुद को “सेवकों का सेवक” कहा। तत्कालीन चोल राजा राजराजा प्रथम के संरक्षण में उन्होंने यह कार्य किया।

श्रीकालीहस्ति शिव की कथा

63 नयनारों की परंपरा में एक नयनायर थे कनप्पा, जिनके बारे में यह माना जाता है, कि वह अर्जुन के पुनर्जन्म थे। आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति के निकट श्रीकालहस्ती नाम का एक कस्बा है, जहाँ श्रीकालहस्तेश्वर शिव का सुप्रसिद्ध मंदिर और तीर्थ है। मान्यता है यहाँ पर शिव आराधना और पूजन करने से तीन जानवरों को मुक्ति मिली थी। मान्यता के अनुसार ये तीन जानवर थे- श्री अर्थात मकड़ी, काल अर्थात सर्प और हस्ति अर्थात हाथी। मकड़ी ने शिव आराधना करते हुए उनके चारों तरफ परिक्रमा करते हुए जाल बनाया था, सर्प ने शिवलिंग से लिपट कर शिवआराधना की थी, और हाथी ने शिवलिंग को सूंड में जल भरकर स्नान करवाया था। यहाँ के मंदिर में शिवलिंग के अलावा इन तीन पशुओं की मूर्तियाँ भी बनी हुईं हैं। श्रीकालहस्ति का जिक्र शिवपुराण, स्कन्दपुराण और लिंगपुराण में आया है, स्कंदपुराण की एक कथा के अनुसार अर्जुन ने भी एकबार इस शिवलिंग के दर्शन किए थे।

कौन थे कण्णप्पा

लेकिन श्रीकालहस्ति की मान्यता है, एक नयनार संत कणप्पा से, जिनको परंपरा अनुसार 9वां या 10वां नयनार माना जाता है। कथा के अनुसार पोत्तपिनाडु के पास उडुप्पुर नाम का एक गाँव था, इस गाँव में गिरिवासी और वनवासी निवास करते थे, जिनका मुख्य पेशा था शिकार करना, उनका नाग नाम का एक राजा था जिसकी पत्नी का नाम दत्तै था, भगवान मुरूगन के आशीर्वाद से उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम तिन्नडु रखा गया, बड़े होने पर अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार उसने शिकार इत्यादि करना प्रारंभ कर दिया, वह धनुर्विद्या में भी निपुण थे।

उस समय वन क्षेत्रों में कुछ लोग खेती भी करते थे, यहाँ जंगली शूकर खेती को बहुत नुकसान पहुंचाया करते थे, जिसकी शिकायत ग्रामवासियों ने अपने राजा नाग से की, नाग ने अपने दायित्वों का निर्वाहन करते हुए, अपने पुत्र तिन्नाडु को वनों के भीतर बसे गाँव जाकर लोगों को उनकी समस्या से मुक्त करने का आदेश दिया, वह अपने कुछ शिकारी साथियों के साथ वन में चला गया।

कण्णप्पा की शिवभक्ति

वहाँ वन में रहकर वह जंगली जानवरों का शिकार करने लगा, एक दिन उसे एक जंगली शूकर दिखा जिसका पीछा करते हुए, वह अंदर जंगल में बहुत दूर तक चला गया, उसने शूकर का शिकार तो कर लिया लेकिन थक बहुत गया था, जिसके कारण सुवर्णरेखा नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे बैठकर वह सुस्ताने लगा। तभी उसे कुछ दूर पर एक शिवलिंग दिखा, लिंगम को देखकर उसने मन में स्वतः ही श्रद्धा की भावना फुट पड़ी और वह जाकर शिवलिंग से लिपट गया, उसके मन में भावना आई क्यों ना शिवलिंग की पूजा की जाए, चूंकि वह वनवासी शिकारी था इसीलिए वह पूजन का ढंग, विधि और मंत्र नहीं जानता था, लेकिन उसकी आस्था सच्ची थी, इसीलिए उसने भगवान शिव के भोग के लिए जंगली शूकर का मांस पकाया और एक दोनों में रखा और एक हाथ में लिया, मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकल कर एक दोने में रखकर दूसरे हाथ में पकड़ लिया, उसने अभिषेक के लिए सुवर्णरेखा नदी का जल अपने मुँह में भर लिया क्योंकि उसके दोनों हाथ खाली नहीं थे और वह शिव-पूजन के लिए चला, उसने पहले शिव पर कुल्ला करके जल चढ़ाया और बाद मांस और शहद, उसके बाद वो चला गया।

इसी श्रीहस्तिकालेश्वर लिंग की पूजा करने एक मुनिवर पुजारी आते थे, अगली सुबह जब उन्होंने शिवलिंग पर मांस के टुकड़े और अन्य अपवित्र चीजें देखी तो आश्चर्यचकित रह गए, उन्होंने सोचा कोई जंगली जानवर होगा, अगली सुबह तिन्नडु फिर से शिवपूजन के लिए आया, उसने पहले दिन की ही तरह दोनों हाथों में दो दोना रखकर और मुंह में सुवर्णरेखा का जल भर लाया, उसने देखा शिवलिंग पर पूजन सामग्री चढ़ी है, लेकिन वह उसे साफ नहीं कर सकता क्योंकि उसके हाथ खाली नहीं थे, और अगर हाथ के दोने जमीन पर रखने की कोशिश करता तो मुंह का पानी गिर जाता, इसीलिए उसने अपने पैर से शिवलिंग पर चढ़े फूल और बेलपत्र इत्यादि साफ किए, इसके बाद उसने कुल्ला कर शिवलिंग का अभिषेक करवाया और मांस इत्यादि चढ़ाया और चला गया। अगले दिन फिर मुनिवर आए, और वहाँ के हाल देखकर क्रोधित होते, उन्हें लगा कोई जान-बूझ कर शिवलिंग को अपवित्र कर रहा है। अब यह नित्य का क्रम बन गया था, एक दिन मुनि के सपने में स्वयं शिव आए और उन्हें बताया उनका एक परम भक्त है, जो उन्हें यह सब चढ़ाता है, मुनि भी परम शिवभक्त थे, उन्होंने सोचा वो कैसा व्यक्ति होगा जिसका पूजन का ढंग अशुद्ध है पर जिसे शिव अपना भक्त बता रहें हैं, इसीलिए उन्होंने उसे देखने का निश्चय किया।

जब अपने भक्त को दर्शन देने स्वयं प्रकट हुए शिव

पूजा करने के बाद पुजारी एक बड़े से वृक्ष की ओट में छिप गए और वहीं से सब देखने लगे, रोज की तरह मुनिवर के पूजा करने के बाद तिन्नडु आया, मुनि के अहंकार को दूर करने के लिए और अपने भक्त की परीक्षा के लिए, शिव ने एक लीला रची, तिन्नडु ने देखा शिव की एक आँख से रक्त की धारा प्रवाहित हो रही है, वह भागा-भागा जंगल में गया और जड़ी-बूटियाँ ढूंढ लाया और शिव के नेत्र में उन जड़ी-बूटियों का अंजन किया, उसके बाद भी रक्त लगातार प्रवाहित होता ही रहा, वह बहुत देर तक सोचता ही रहा, शिव के इस हाल को देखकर उसका हृदय द्रवित हो रहा था, उसे लगा शिव को भारी कष्ट हो रहा होगा, तभी उसे सहसा ही ख्याल आया उसके यहाँ कहा जाता है, आँख के बदले आँख, इसीलिए उसने तीखे तीर से अपनी एक आँख निकाल कर उस स्थान पर लगा दिया, जहाँ से रक्तस्त्राव लगातार हो रहा था, जिसके बाद रक्त बहना बंद हो गया, उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। लेकिन शिव की लीला शिवलिंग की दूसरी आँख से रक्त स्त्राव होने लगा, उसने अपनी दूसरी आँख निकालना प्रारंभ कर दिया, पर उसके पहले उसने उस स्थान पर पैर रखा जहाँ से रक्तस्त्राव हो रहा था, क्योंकि अगर वह ऐसा ना करता तो वह आँख सही स्थान पर नहीं लगा पाता, अपनी एक आँख वह पहले ही निकालकर शिवलिंग पर लगा चुका था और दूसरी आँख निकलने के बाद उसको दिखना बंद हो जाता। हालांकि उसकी पूजन विधि अशुद्ध थी अपवित्र थी, लेकिन उसकी भक्ति सच्ची थी, इसीलिए शिव स्वयं प्रकट हुए और उसकी दोनों आँखे ठीक कर दी, और शिवकृपा से उन्हें आत्मज्ञान भी प्राप्त हुआ, पुजारी यह सब देख कर आश्चर्यचकित था, उसे अपने बहुत बड़े शिवभक्त होने का अहंकार था, उसका यह अहंकार चूर्ण हो गया और वह शिकारी के चरणों में लोट गया। पुजारी ने ही उनको कण्णप्पा अर्थात ‘शिव का महान भक्त कहा’।

आज भी श्रीकालहस्ति मंदिर में कण्णप्पा की कहानी जीवित है और उन्हें भगवान शिव के साथ पूजा भी जाता है, उनकी कथा यह बताती है सच्ची भक्ति और श्रद्धा आडंबरों से नहीं, बल्कि अपने ईष्ट के प्रति सच्चे प्रेम और श्रद्धा से आती है।

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