Raja Bhoj Aur Gangu Teli Ki Kahani Hindi Mein: इतिहास में राजा भोज को लेकर बहुत ही कहानियाँ और कहावतें मिलती हैं। ऐसे ही इनके बारे में एक अत्यंत प्रसिद्ध कहावत है, जो लोक में बहुत प्रचलित है- “कहां राजा भोज कहां गंगू तेली” दो लोगों की स्थिति और हैसियत बताते समय इस कहावत का प्रयोग खूब किया जाता है, यहाँ राजा भोज से तात्पर्य श्रेष्ठ या बड़े व्यक्ति से है, जबकि गंगू तेली का तात्पर्य कमतर व्यक्ति होता है। बचपन से ही हम सब ने यह कहावत सुन रखी है, और ज्यादातर इसका प्रयोग अमीरी और गरीबी के संदर्भ में सुना है। हमें भी यह लगता है यह राजा भोज और किसी तेल का व्यापार करने वाले गंगू तेली से जुड़ी हुई कहावत है, लेकिन यह गंगू तेली कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। बल्कि इतिहास के दो प्रसिद्ध राजा थे। क्या है इस कहावत के पीछे का इतिहास आइए जानते हैं।
कहावत की ऐतिहासिकता
इस कहावत का संबंध मध्यभारत के मालवा से जहाँ, जहाँ पूर्व मध्यकाल में एक राजवंश शासन किया करता था, जिसे परमार राजवंश कहा जाता था, 10 वीं 11वीं शताब्दी में यहाँ राजा भोज का शासन था। जो अपनी विद्वता, न्यायप्रियता, युद्धकौशल और अपने स्थापत्य के निर्माणों के लिए जाने जाते थे। उनके राज्य के पूर्व की ओर चेदि में कलचुरी वंश शासन किया करता था, जिसकी राजधानी त्रिपुरी थी, राजा भोज के समकालीन यहाँ के राजा गांगेयदेव थे, जबकि मालवा के दक्षिणी क्षेत्रों की तरफ कल्याणी के चालुक्यों का शासन था, जिनका एक सुप्रसिद्ध राजा थे तैलप द्वितीय। इन दोनों ही राज्यों से मालवा का सतत संघर्ष चल रहा था, कहते हैं अपने पिता की मृत्यु के बाद राजा भोज जब मालवा के राजा बने, तो इन परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए, राजा तैलप और गांगेयदेव ने मिलकर संयुक्त रूप से आक्रमण किया था, लेकिन राजा भोज ने दोनों राजाओं की संयुक्त सेनाओं को हरा दिया।
व्यंग्य के तौर पर हुआ कहावत का जन्म
जिसके बाद मालवा के लोगों में अपने राजा के पराक्रम और इन दोनों के पराजय पर व्यंग्य में एक कहावत का जन्म हुआ, कहाँ राजा भोज कहाँ गांगेय तैलप, लेकिन कालांतर में यह गांगेय तैलप की जगह हो गया गंगू तेली। दरसल इसका भी एक कारण है इतिहास में गांगेयदेव और राजा तैलप तो भुला दिए गए, अपनी दंतकथाओं के माध्यम से राजा भोज लोगों की स्मृति में सतत बने रहे।
भारत की कई भाषाओं और बोलियों में प्रचलित है यह कहावत
‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली’ यह कहावत भारत भर में प्रसिद्ध है और देश की कई भाषाओं और क्षेत्रीय बोलियों में कुछ शब्दांंतर के साथ प्रचलित है, लेकिन उसक तात्पर्य वही है। हिंदू, उर्दू के अलावा यह कहावत अवधी, भोजपुरी, बघेली, बुन्देली, ब्रजभाषा, राजस्थानी, हरियाणवी, कुमायूँनी, गढ़वाली, और कौरवी भाषा में भी प्रचलित है। इसके अलावा पंजाबी, कश्मीरी, मराठी और बंगाली भाषा में भी यह कहावत कही जाती है, इन भाषाओं के कलेवर के साथ।