Kaarwan Gujar Gaya Gubar Dekhte Rahe : अतिशय लोकप्रियता प्राप्त कर चुके हुए इस गीत को ‘नीरज’ जी जब अपनी खूबसूरत लरजती आवाज में, किसी कवि सम्मलेन के मंच से पाठ करते तो श्रोता झूम उठते थे। मंच भी ऐसा की जिसमें एक से बढ़कर एक दिग्गज मंचासीन होते थे, लेकिन श्रोताओं को उपस्थिति केवल नीरज जी की ही पता चलती थी। शायद इसी वजह से राष्ट्रकवि दिनकर, नीरज जी को वीणा कहते थे। तो आज बात कवि और गीतकार गोपालदास नीरज की।
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
नीरज जी का जन्म 4 जनवरी 1925 को इटावा उत्तरप्रदेश में हुआ था, उनका पूरा नाम था गोपालदास सक्सेना, ‘नीरज’ उनका पेननेम था। एटा से हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने टाइपिस्ट के तौर पर काम किया, फिर एक सिनेमाघर में नौकरी की। कई छोटी-मोटी नौकरियाँ और जीवन संघर्ष करते हुए ही नीरज जी ने एम. ए. किया और अध्यापन कार्य करने लगे। इस बीच कवि के रूप में उनकी ख्याति काव्य मंचों में बढ़ने लगी, 1958 में उनकी एक कविता “कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे” लखनऊ आकाशवाणी से प्रसारित हुई और वह बहुत लोकप्रिय हो गए, जिसके कारण उन्हें मुंबई में हिंदी फिल्मों के गीत लिखने का प्रस्ताव आया। 1960 में फिल्मकार आर. चंद्र ने उनकी इसी कविता को थीम बनाकर एक फिल्म के निर्माण की योजना बनाई, इससे पहले यह फिल्म बन पाती, आर.चंद्र की एक फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ रिलीज़ हो गई, इस फिल्म में उनके गीत ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ को रफ़ी साहब ने अपनी आवाज दी। उन्होंने 1970 में आशा पारेख और शशि कपूर अभिनीत फिल्म ‘कन्यादान’ के लिए भी गीत लिखे। रफ़ी साहब की ही आवाज में इस फिल्म का एक गीत अभी भी बहुत लोकप्रिय है, जिसमें नायक अपनी नायिका को लिखे गए प्रेम पत्रों की उपमा देते हुए, उसके ख़ूबसूरती का वर्णन कर रहा है। नीरज जी द्वारा लिखे गए इस खूबसूरत से गीत के बोल कुछ यूँ थे –
लिखे जो खत तुझे, वो तेरी याद में, हजारों रंग के नज़ारे बन गए, सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए जो रात आई तो सितारे बन गए
इसके बाद उन्होंने कई सुपरहिट फिल्मों में गीत लिखे और तीन बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए फ़िल्मफेयर अवार्ड के लिए नामित भी किए गए। 1955 में कलकत्ता में एक कवि सम्मलेन में उनकी मुलाक़ात सुप्रसिद्ध अभिनेता देव साहब से हुई, देव साहब ने ही उन्हें एस. डी. बर्मन से मिलवाया था, बाद में देव साहब की फिल्म प्रेम पुजारी के लिए उन्होंने गीत भी लिखे। राज कपूर की कल्ट-क्लासिक फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए लिखा गया उनका एक गीत बहुत प्रसिद्ध है –
ऐ भाई ! जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी, दाएं ही नहीं बाएं भी, ऊपर ही नहीं नीचे भी
लेकिन शायद मुंबई उन्हें ज्यादा रास नहीं आया और वह जल्द ही वापस आ कर धर्मसमाज कॉलेज अलीगढ में हिंदी साहित्य पढ़ाने लगे। 2012 में वह मंगलायतन विश्वविद्यालय अलीगढ के चांसलर भी बने। लेकिन काव्यसाधना वो सतत करते रहे। उनका पहला काव्य संग्रह ‘संघर्ष’ 1944 में प्रकाशित हुआ। अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत, दर्द दिया है, बादल बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नीरज की पाती, गीत भी अगीत भी, आसावरी, नदी किनारे, कारवाँ गुज़र गया, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिए इत्यादि उनके प्रमुख काव्य और गीत-संग्रह हैं।
सरल और सहज शब्दों में अभिव्यक्ति, नीरज जी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है। उनके काव्य में मानव जीवन के समस्त वृत्तियों की अनुभूति है, उनमें उपस्थिति दर्द और मन की पीड़ा शायद उनका खुद का भोगा गया यथार्थ है। उनकी कविताएं देवताओं को नहीं बल्कि मानवों को समर्पित हैं। वह कहते हैं उन्हें सारे संसार से प्रेम है, इसीलिए उन्हें कण-कण में ईश्वर के दर्शन होते हैं। अतः नीरज मानवतावादी कवि हैं, जिन्हें मानवता ही सबसे महत्वपूर्ण लगती है। वह कहते भी हैं –
मेरा तो आराध्य आदमी, देवालय हर द्वार है
कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है
संघर्ष के दिनों में वह पैसे बचाने के लिए, केवल एक बार ही खाया करते थे, शायद इसीलिए उन्होंने लिखा है –
भूख है मजहब इस दुनिया का, और हक़ीक़त कोई नहीं
बच के निकल जा इस बस्ती से, करता मुहब्बत कोई नहीं
नीरज जी ने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किए, आर्थिक तंगी झेली, नौकरियों के लिए परेशान रहे और उनके दिल भी टूटे होंगे, शायद इसीलिए उनकी कविताओं में जीवन का उतार-चढाव है, वेदनाएँ हैं, प्रतीक्षारत मन की बेचैनी भी है, लेकिन जिस तरह उनके आलोचक उन पर आरोप लगाते हैं, उस तरह का कोई गहरा नैराश्य भाव नहीं है। अर्थात एक छिपी हुयी आशा है, एक बानगी देखिए –
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है
उनकी कविताएँ प्रेम से डूबी रहती हैं, उनमें संयोग से ज्यादा वियोग का भाव है, पर यह विरहणी भाव उन्होंने सहज ही स्वीकार है, क्योंकि यह भाव प्रेम के ख़ूबसूरती का उपजा हुआ सहज प्रतिबिम्ब है। विरह की वेदना ही कविता को जन्म देती है, महाकवि कालिदास की ‘मेघदूत’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कि कविता और वेदना का कितना निकट संबंध है। सुमित्रनंदन पंत भी कहते हैं, वियोगी ही पहला कवि होगा। नीरज की कविताएं भी वेदना और वियोग की परणति है, कहते हैं हाई-स्कूल के दौरान ही उन्हें पहली बार प्रेम हुआ, लेकिन दुर्भाग्यवश उनका यह प्रेम हमेशा के लिए छूट गया, तो उन्होंने भी तब आदिकवि कालिदास की ही तरह पहली बार कविता लिखी, प्रेम की महत्ता बताते हुए नीरज स्वयं कहते हैं –
जो पुण्य करता है वह देवता बन जाता है
जो पाप करता है पशु बन जाता है
और जो प्रेम करता है वह मनुष्य बन जाता है
उनकी कुछ पंक्तियाँ भी है –
प्यार अगर थामता न पथ में,ऊँगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वेश्या बन जाती,हर आंसू आवारा होता
तुम चाहे विश्वास न लाओ,लेकिन मैं तो यही कहूंगा
प्यार न होता धरती पर तो,सारा जग बंजारा होता
नीरज जी की कविताओं में जीवन का एक यथार्थ भी है, वह यथार्थ जिसे कवि ने स्वयं भी भोगा है, जिसके कारण उनका एक सहज दृष्टिकोण है जीवन के लिए, हालांकि आप उनके इस दृष्टिकोण से साम्य रखें यह जरूरी नहीं, लेकिन कम से कम नकार तो नहीं ही सकते हैं।
जितना कम सामान रहेगा, उतना सफर आसान रहेगा
जितनी भारी गठरी होगी उतना तू हैरान रहेगा
हाँथ मिले और दिल न मिलें ऐसे में नुकसान रहेगा
19 जुलाई 2018 को फेफड़ों में संक्रमण की वजह से 93 वर्ष की उम्र में नीरज जी का देहांत हो गया। अपने समय के सबसे लोकप्रिय कविओं में शुमार नीरज जी, आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। और आगे भी जब-जब वेदना, प्रेम और विरह के अनुभूतियों की बात होगी, तो नीरज जी कविताएं सहज ही याद आएँगी। शायद इसीलिए वह कहते भी हैं –
इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में
तुमको लग जाएंगी सदियां हमें भुलाने में