इतिहास में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनका देश के निर्माण में सक्रिय योगदान होता है, इसके बाद भी उन्हें याद कम ही किया जाता है, ऐसे ही एक व्यक्ति थे के. एम. मुंशी, जो एक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और प्रख्यात राजनेता ही नहीं, बल्कि उद्भट साहित्यकार और शिक्षाविद भी थे।
प्रारंभिक जीवन
के. एम. मुंशी अर्थात कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का जन्म 30 दिसम्बर 1887 में गुजरात के भरूच में हुआ था, उनका नाम रखा गया घनश्याम व्यास, लेकिन उनकी माँ उन्हें कन्हैया कहती थीं, चूंकि पिता माणिकलाल कोर्ट में मुंशी थे, इसीलिए उन्होंने ‘मुंशी’ सरनेम लगाना प्रारंभ किया, इस तरह उनका पूरा नाम हुआ कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, हालांकि वह ‘घनश्याम व्यास’ के पेन नाम से ही लिखते थे।
के. एम. मुंशी ने अपनी बी. ए. की उच्च शिक्षा बड़ौदा कॉलेज से पास की, मुंबई विश्वविद्यालय से एलएलबी की परीक्षा पास की और मुंबई हाईकोर्ट में ही वकालत करने लगे। मुंशी अपने बड़ौदा कॉलेज के एक प्रोफेसर अरविंदो घोष से अत्यंत प्रभावित थे, जिनके प्रभाव के कारण वो कॉलेज के समय से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे थे, श्री अरविंदो जो भारत के सुप्रसिद्ध दार्शनिक थे, वह उससे पहले क्रांतिकारी भी थे, अलीपुर बम कांड में जेल भी जा चुके थे, के. एम. मुंशी ने अरबिंद घोष से ही बम बनाना सीखा था। बाद में मुंबई आकर वह एनी बेसेंट से मिले और उनके होम रूल आंदोलन से जुड़ गए, 1917 में होम रूल आंदोलन के बॉम्बे प्रेसिडेंसी के सचिव भी बने, 1920 में हुए काँग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में वह शामिल हुए, इसके साथ ही वह गांधी के प्रभाव में आए, और गांधी और सरदार पटेल के उनके नजदीकी संबंध बने।
आंदोलनों में भागीदारी
1927 में वह बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेजिस्लेटिव एसेंबली के सदस्य चुने गए, लेकिन 1930 में हुए महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रभाव में आकर उन्होंने लेजिस्लेटिव एसेंबली से इस्तीफा दे दिया, और इस आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें छः महीने की सजा भी हुई थी। 1932 में वो फिर से गिरफ़्तार हुए और उन्हें फिर से दो वर्ष की सजा हुई, 1934 में वो काँग्रेस संसदीय बोर्ड के सचिव बने,1937 में वे फिर से बॉम्बे लेजिस्लेटिव एसेंबली के सदस्य चुने गए, इसके बाद वो वहाँ के गृहमंत्री भी बने, 1940 में एक सत्याग्रह में वो फिर से गिरफ्तार हुए, 1941 में पार्टी के नीतियों से असंतुष्ट हो वह कांग्रेस से अलग हो गए, लेकिन 1946 में गांधी जी के बुलाने के बाद वह फिर कांग्रेस में शामिल हो गए। 1930-36 तक और 1947 में वो आल इंडिया वर्किंग कमेटी के सदस्य भी थे।
देश के संविधान सभा में योगदान
देश की आजादी के बाद वह संविधान सभा में शामिल हुए, संविधान सभा में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही, संविधान सभा की सबसे महत्वपूर्ण ड्राफ्टिंग कमेटी या प्रारूप समिति के सदस्य रहे, संविधान निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ अंबेडकर थे, इसके अलावा वह सलाहकार समिति और फंडामेंटल राइट्स की सबकमेटी के भी सदस्य रहे, और वह राष्ट्रध्वज अपनाने वाली समिति भी रहे। 1950 में पंडित नेहरू कैबिनेट में खाद्य और कृषि मंत्री के तौर पर शामिल हुए, 1952 से 1957 तक वह उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रहे, लेकिन धीरे-धीरे उनका कांग्रेस से मोहभंग होने लगा, पंडित नेहरू की नेतृत्व वाली पार्टी की आर्थिक नीतियों से असहमति के कारण वह पार्टी से अलग हो गए, और राजा जी के नेतृत्व वाली स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए। 1964 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा की स्थापना के लिए जो बैठक हुई, उसकी अध्यक्षता के एम मुंशी ने ही की थी, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने उसी वर्ष राजनैतिक सन्यास ले लिया।
प्रेमचंद के नाम में ‘मुंशी’ के एम मुंशी ही थे
बहुत लोग कहते हैं मुंशी प्रेमचंद के नाम में मुंशी शब्द इसीलिए लगता है, क्योंकि उनके पिता मुंशी थे, लेकिन शायद बहुत कम लोगों इस बात की जानकारी है, मुंशी प्रेमचंद के नाम में जो ‘मुंशी’ शब्द है, वह उनके पिता के वजह से नहीं, बल्कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का ही है, दरसल हुआ यह कि महात्मा गांधी के प्रभाव के दौर में ‘हंस’ नाम की एक पत्रिका निकली थी, इस पत्रिका के संपादक मंडल में प्रेमचंद और के एम मुंशी दोनों शामिल थे, इसीलिए लेखों में दोनों का नाम छपता था, चूंकि के एम मुंशी प्रेमचंद से वरिष्ठ थे, पहले कन्हैयालाल मुंशी और फिर कॉमा लगाकर प्रेमचंद छपता, कुछ इस तरह ‘ कन्हैयालाल मुंशी, प्रेमचंद’, कभी-कभी केवल ‘मुंशी, प्रेमचंद’ छपता था, लेकिन एक बार प्रिंटिंग वाले की गलती की वजह से बिना कॉमा के ‘मुंशी प्रेमचंद’ छप गया, इसके बाद पाठकों ने इसे एक व्यक्ति ही समझ लिया, और प्रेमचंद बन गए मुंशी प्रेमचंद।
साहित्य और पत्रकारिता में योगदान
के. एम. मुंशी प्रख्यात शिक्षाविद थे, 1938 में उन्होंने भारतीय विद्या भवन की नींव रखी, जिसके बाद उन्होंने कई विद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना की, वे लगभग 31 वर्षों तक भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा वह pratisthitके. एम. मुंशी प्रख्यात शिक्षाविद थे, 1938 में उन्होंने भारतीय विद्या भवन की नींव रखी, जिसके बाद उन्होंने कई विद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना की, वे लगभग 31 वर्षों तक भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा वह प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार भी रहे हैं, वह घनश्याम व्यास के नाम से लिखते थे, और गुजराती और अंग्रेजी भाषा में लिखते थे। गुजराती भाषा में उन्होंने ‘भार्गव’ नाम की पत्रिका निकाली थी, प्रेमचंद के साथ मिलकर उन्होंने ‘हंस’ नाम की पत्रिका भी निकाली थी, 1954 में वह ‘यंग इंडिया’ के संयुक्त संपादक भी रहे। उन्होंने उपन्यास, नाटक, कथा साहित्य, आत्मकथा, जीवनी और निबंध इत्यादि विधा में लगभग 127 पुस्तकें भी लिखीं, इनमें कई अत्यंत प्रसिद्ध भी रही, उनके एक उपन्यास ‘पृथ्वीवल्लभ’ पर आधारित कई फिल्में भी बन चुकी हैं, इसके अलावा गुजरात के इतिहास पर लिखी गईं उनकी तीन किताबें- ‘पाटन का प्रभुत्व, राजाधिराज और गुजरात के नाथ अत्यंत लोकप्रिय रहीं हैं, इसी तरह भगवान कृष्ण और महाभारत पर आधारित सात भागों में लिखी गई किताब ‘कृष्णवातार‘ भी अत्यंत लोकप्रिय रहीं हैं, इसके अलावा ‘जय सोमनाथ‘ और ‘भगवान परशुराम‘ उनकी अन्य प्रसिद्ध किताबें हैं। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में कई ऐतिहासिक तथ्यपरक लेख भी लिखे हैं, उनका लेखन मुखतः इतिहास और धर्म पर रहा है।
सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में योगदान
सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार की जब आती है तो एक ही नाम याद आता है ‘सरदार पटेल’ का, लेकिन शायद बहुत ही कम लोगों की इस बात की जानकारी है कि इस मंदिर के पुनर्निर्माण की रूपरेखा और योजना के. एम. मुंशी ने ही बनाई थी, सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी, सरदार पटेल के निधन के बाद भी वह लगातार मंदिर निर्माण में जुटे रहे। इसके अलावा भी जूनागढ़ और हैदराबाद रियासतों के भारत में विलय में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी। सरदार पटेल ने के एम मुंशी को हैदराबाद रियासत में राजनायिक और व्यापारिक दूत नियुक्त किया था, जहां उन्होंने भारत में विलय को लेकर बड़ी सक्रिय भूमिका निभाई थी।
के. एम. मुंशी सामाजिक सुधारों के भी पक्षधर थे, उन्होंने विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया था, अपनी पहली पत्नी के निधन के बाद खुद लीला सेठ नाम की विधवा स्त्री से विवाह किया, जो खुद भी लेखिका थीं। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृत के पुनर्जागरण के प्रतीक और अग्रदूत के रूप में के एम मुंशी ने अपना साहित्य रचा। राजनैतिक और सार्वजनिक जीवन से सन्यास के बाद भी वो साहित्य साधना करते रहे।