मखमली आवाज के बादशाह जगजीत सिंह

न्याज़िया बेग़म \ उनकी खूबी थी, ग़ज़लों में ऐसे अल्फाजो़ं को पिरोना जो आम बोलचाल की भाषा में शामिल हों, ग़ज़लों की महफिलों को संजीदगी से निकाल कर तबस्सुम में बहा ले जाना, फिर गीत हों या ग़ज़लें बीच बीच में लतीफों के ज़रिए एहसासों को बयान करने का मुख्तलिफ अंदाज़ जो हर किसी को उनका दीवाना बना देता था, वो न केवल गुलूकार मौसिकार थे, बल्कि संगीत संयोजक भी थे, उन्हें समझ थी किस तरह म्यूज़िक को अरेंज करना है, किस तरह से उसे पेश करना है कि लोग उससे आसानी से जुड़ सके, यहां तक कि किस अहसास को दिल में उतरने में कितना वक्त लगेगा तीव्र या मध्यम धुनों के साथ ये कुछ ऐसी बारीकियां थीं जो उन्हें दुनिया से जुदा करती थीं, फिर पत्नी चित्रा के साथ नज़ाकत और नफासत से कुछ मस्ती मज़ाक करते हुए गाना, जी हां ये थे हरदिल अज़ीज़ जगजीत सिंह, जिन्होंने गाने के लिए घर से बगा़वत की क्योंकि घर वाले चाहते थे कि वो सरकारी नौकरी करें, और वो अपनी ज़िद में अड़े हुए मुम्बई चले आए, यहां आए तो अपने लुक को चेंज करने की ज़रूरत महसूस हुई, जिसके कारण उन्होंने अपने बाल भी कटवा दिये, जो सिख परिवार के लड़के के लिए तो बहुत बड़ी बात थी, पर उनके पिता जी के लिए तो ऐसी ग़लती थी, जिसके लिए वो काफी वक्त तक उन्हें माफ नहीं कर पाए।

जगजीत सिंह का प्रारंभिक जीवन
जगजीत सिंह की पैदाइश 8 फरवरी 1941 को श्री गंगानगर, राजस्थान के बीकानेर राज्य में एक नामी परिवार में हुआ। उनके पिता सरदार अमर सिंह धीमान, सरकार के लोक निर्माण विभाग में एक सर्वेक्षक थे और पंजाब के रोपड़ ज़िले के दल्ला गांव के रहने वाले थे। जगजीत सिंह ने डीएवी कॉलेज जालंधर से कला की डिग्री प्राप्त करने के बाद 1961 में ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) के जालंधर स्टेशन पर गायन और संगीत रचना कार्य करके अपने करियर की शुरुआत की थी, हालांकि बचपन में पिता जी ने उन्हें, भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक दृष्टिबाधित गुरु, पंडित छगन लाल शर्मा और फिर मैहर घराने के उस्ताद जमाल खान से संगीत सिखाया था, जिन्होंने उन्हें हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन परंपरा की सभी प्रमुख शैलियों जैसे ख्याल, ध्रुपद, ठुमरी में प्रशिक्षित किया। अपनी किशोरावस्था के दौरान, वो स्टेज परफार्मेंस के साथ म्यूज़िक भी तैयार करने लगे थे, लेकिन उनके पिता अब भी, अपने बेटे से उम्मीद कर रहे थे कि वो इंजीनियर बनेंगे, पर जगजीत जी का बचपन का प्यार, यानी संगीत के प्रति उनका लगाव धीरे धीरे जुनून में तब्दील हो गया, और धीरे से उन्होंने इसे अपने करियर के लिए चुन लिया, शुरुआत में उन्हें विज्ञापन जिंगल ही गाने के लिए मिले, पर बाद में वे पार्श्व गायन में भी आगे बढ़े।

चित्रा सिंह और जगजीत सिंह

जब वो संघर्ष कर रहे थे, तब उनकी मुलाकात बंगाली मूल की गायिका चित्रा दत्ता से हुई, जो अपने पति से परेशान थीं, ऐसे में जगजीत और चित्रा एक दूसरे को पसंद करने लगे, और जगजीत जी ने हिम्मत करके उनके पति से कहा कि वो चित्रा को इस रिश्ते से आज़ाद कर दें, वो उनसे खुश नहीं हैं, और चित्रा जी के पति मान भी गए, जिसके बाद दोनों का तलाक हो गया और दिसंबर 1969 में जगजीत सिंह और चित्रा ने शादी कर ली। उसके बाद जगजीत सिंह को अकेले गाना कम अच्छा लगा, क्योंकि चित्रा भी अच्छा गाती थीं, इसलिए अपने बेटे विवेक के जन्म के बाद, दोनों ने बतौर जोड़ी भी गाना शुरू किया जो उस दौर के लिए बेहद नया था, जिसकी वजह से जल्दी कामयाबी नहीं मिली, एक बड़ी परेशानी ये भी थी, उस वक्त ग़ज़ल संगीत शैली पर मुस्लिम कलाकारों का वर्चस्व था, और विशेष रूप से पाकिस्तान के गुलूकारों का, लेकिन हिम्मत न हारते हुए उन्होंने और कई गाने बनाए, फिर 1977 में एल्बम द अनफॉरगेटेबल रिलीज़ किया, जिसने उनके लिए सफलता के नए आयाम तय किए, उम्मीद से कहीं ज़्यादा कामयाब होने वाला ये एक जोड़ी का पहला एलपी था, और रवायत से अलग भी जिसने उन्हें चमकता सितारा बना दिया।

मखमली आवाज के बादशाह थे जगजीत सिंह
इसके बाद 70 के दशक में उनके कुछ और एल्बम आए जैसे-
शिव कुमार बटालवी – बिरह दा सुल्तान, लाइव इन कॉन्सर्ट एट वेम्बली और कम अलाइव।
1980 में जगजीत सिंह “वो कागज़ की कश्ती…वो बारिश का पानी” गीत लेकर आए और छा गए, ये इस जोड़ी का पहला एल्बम था जिसमें केवल एक कवि सुदर्शन फ़ाकिर की कविताएँ थीं। फिर 80 के दशक में जगजीत सिंह की आवाज़ ने, फिल्मों में भी चार चांद लगाया जिनमें- प्रेम गीत, अर्थ और साथ-साथ, इस के अलावा 1988 में टीवी धारावाहिक मिर्जा़ ग़ालिब में, ग़ालिब के कलाम गाए जिसकी ग़ज़ल, “हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है ….” तो आज भी उनके अंदाज़ और आवाज़ के लिए याद किया जाता है, और 91वें में कहकशां के लिए आपने संगीत और आवाज़ दोनों दी। चित्रा और आपकी जुगलबंदी की बात करें “बागे विच आया करो “टप्पे और पंजाबी गीतों को हम कैसे भूल सकते हैं जो हमारे चेहरों पे मुस्कुराहट तो बिखेरते ही हैं, आज भी शादी ब्याह के मौकों पर चार चांद लगा देते हैं।

जब जगजीत सिंह की आवाज में उतरा दर्द
पर उनकी खुशियों का दौर ज़्यादा लंबा न चल सका, 1990 में उनके 20 साल के बेटे विवेक की एक सड़क हादसे में जान चली गई, फिर चित्रा की बेटी मोनिका ने 2009 में आत्महत्या कर ली इन घटनाओं के बाद चित्रा गाना नहीं गा सकीं, हालाँकि इतने दर्द से गुज़रते हुए भी जगजीत जी ने काम करना जारी रखा, अपना दर्द दिल में छुपाए वो गाते रहे, हमें मुस्कुराने की वजह देते रहे, कभी कभी आंसू भी छलक जाते तब भी उन्होंने खुद को संगीत के साथ मसरूफ रखा, लता मंगेशकर के साथ वो, “सजदा” एल्बम लेकर आए, जिसका अर्थ है “साष्टांग प्रणाम”। 10 मई 2007 को, भारत की संसद के सेंट्रल हॉल में आयोजित एक कार्यक्रम में कई राजनीतिक और राजनयिक दिग्गजों की उपस्थिति में, जगजीत सिंह ने भारतीय विद्रोह की 150 वीं वर्षगांठ मनाने के लिए बहादुर शाह ज़फ़र की प्रसिद्ध ग़ज़ल लगता नहीं है दिल मेरा प्रस्तुत की थी।
आपको बता दें कि जगजीत सिंह का 1987 का एल्बम बियॉन्ड टाइम, भारत में पहली डिजिटल रूप से रिकॉर्ड की गई रिलीज़ थी। उन्हें भारत के प्रभावशाली कलाकारों में से एक माना गया और 2003 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। 10 अक्टूबर 2011 को वो इस दुनिया ए फ़ानी को अलविदा कह गए, पर उनके चाहने वालों से वो कभी दूर नहीं होंगे, फरवरी 2014 में, भारत सरकार ने उनके सम्मान में दो डाक टिकटों का एक सेट जारी किया।


उनके जिंदगी के उतरे दर्द को बस उनकी द्वारा गाए इस ग़ज़ल से समझा जा सकता है-
मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन !
चिट्ठी न कोई संदेश जाने वो कौन सा देस जहां तुम चले गए !

आख़िर में बस यही कहना चाहेंगे कि, अश्कों को पी-पी कर मुस्कुराहटों के चराग़ रौशन करते हैं, ये हुनर उन्हीं को आता है
जो अपने फन के ज़रिए ही इबादत करते हैं।

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