EPISODE 59: पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत खेती किसानी से जुड़ी वस्तुएं

Padmshri Babulal Dahiya

हमारे यहां तकली से सूत कातने और करघे से वस्त्र बुनने के 3-4 हजार वर्ष पहले तक के प्रमाण मिलते हैं। यदि बौद्ध कालीन पत्थरों में उत्कीर्ण जातक कथाओं को देखें तो प्राचीन समय में आज जैसे कोट, पेंट ,कमीज, कुर्ता य बंडी पहनने की परम्परा नही थी। कुर्ता, पायजामा, बंडी,टोपी आदि मुस्लिम लोग भारत लाए और पतलूम, कोट, कमीज अंग्रेज। उनके आने के पहले भारतीय अधो वस्त्र के रूप में मात्र धोती पहनते थे और सिर में पगड़ी। कुछ ऐसे दृश्य अवश्य मिलते हैं जिनमें उनके कंधे में एक अगरखा भी पड़ा हुआ भी मिलता है। परन्तु सिले हुए मध्य वस्त्र किसी में नही दिखते। यही कारण था कि उस समय मात्र बुनकरों के करघे के बुने सपाट कपड़े ही उपयोग में थे। पहनने के बजाय ओढ़ने जैसा उपयोग के कारण ही कपड़ों को (ओढ़ना) कहा जाता था।

बाद में अंग्रेजों का सम्राज्य कायम होते ही उनके कपड़ा मिलों और यंत्र चलित करघों ने उन्नीसवी सदी के पहले ही बुनकरों के वस्त्र बुनाई का सारा कार्य छीन लिया । यही कारण था कि आजादी के संघर्ष में महात्मा गांधी ने उसी को अपने आंदोलन का आधार बनाया। देश तो आजाद हो गया और लोग खादी के वस्त्र पहनने भी लगे। पर बुनकरों और किसानों के बीच का विनिमय नही लौटा। फिर भी कुछ ऐसे वस्त्र थे जो गाँव में प्रचलन में थे और उन्हें बुनकर समुदाय उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराते थे। हम उन्ही वस्त्रों की जानकारी दे रहे हैं।

खोर पिछउरी

यह वस्तुतः रजाई भरने की एक पल्ली होती थी जो अंग्रेजी मिलों से बुने वस्त्रों से अधिक गर्म मानी जाती थी और गाँव के कृषक उसी का उपयोग करते थे। इसे बनाने के पहले बुनकर समुदाय चरखे से कुछ मोटा सूत कातता फिर करघे में उसकी बुनाई करता ।
इसका ऊपरी भाग खोर और नीचे का हिस्सा पिछौरी कहलाता था। परन्तु दोनों मिल कर रजाई की पल्ली कहलाने लगते थे। लेकिन अब चलन से बाहर हैं।

पिछौरी

यह बुनकरों द्वारा अपने करघे से बुना गया एक मोटा चद्दर होता था जो ओढ़ने दशाने दोनों तरह के काम में आता था। पिछौरी ठंडी में उपयोग केलिए मोटी हुआ करती थीं और वसंत व गर्मी बरसात की ऋतु के लिए पतली। इसी पिछौरी को कबीर चदरिया सम्बोधित कर के कहा था कि — (झीनी झीनी बुनी चदरिया) पर अब यह चलन से पूर्णतः बाहर है।

पुटकिहा

यह सवा हाथ लम्बा चौड़ा चौकोर करघे से बुना एक मोटा वस्त्र था जो चावल की पुटकी ( पोटली) बांधने के लिए ही बनाया जाता था। इसमें धोए हुए चावल को बांध पहले बटलोही के ऊपर रख कर गर्म किया जाता फिर छोर कर बटलोही में पकने के लिए डाल दिया जाता। चावल की पोटली बांधने में उपयोग के कारण ही शायद इसे पुटकिहा कहा जाता रहा होगा। विवाह आदि के समय चावल की पुटकी बांधने में 70- 80 के दशक तक इसका उपयोग रहा पर अब चलन से बाहर है

अंगोछा

बुनकर के बुने हुए एक और वस्तु का खेती किसानी में उपयोग था वह था अंगोछा । यह ठंडी और गर्मी दोनों में उपयोगी था। इसे अपने करघे में बुन गांव का बुनकर समुदाय किसानों को उपलब्ध कराता था पर लेन देन सीधे पैसों से होता था। यह अब भी उपयोग में है पर मिल का बुनाहुआ बाजार से।

आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में ,नई जानकारी के साथ

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