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ज़िंदगी क्या सच में एक पहेली है!

न्याज़िया

मंथन। ज़िंदगी क्या सच में एक पहेली है जिसका जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल है,जैसे – क्यों है? किसके लिए है? और अपने लिए नहीं है तो क्यों नहीं है ? क्या इनके जवाब आपके लिए भी मुश्किल हैं तो चलिए आज मिलके ढूंढते हैं ,क्यों है? तो ये समझना होगा कि जीवन कभी निरर्थक नहीं होता हम इस दुनिया में आए हैं तो हमें किसी न किसी मकसद से ही ऊपर वाले ने भेजा होगा इसलिए कोशिश करनी चाहिए कि हम किसी न किसी के काम ज़रूर आएं ,ये जीवन व्यर्थ न चला जाए ।

दूसरे सवाल की बात करें तो

अब आप जिसके लिए भी जीना चाहते हैं ज़ाहिर है उसकी ख़ुशी ही आपकी ख़ुशी हैं उसकी ख़ुशी से बढ़कर दुनिया में आपके लिए कुछ नहीं है तो क्या उसकी पहचान करना इतना मुश्किल काम है नहीं न। क्योंकि वो आपके आस पास ही है उसकी मुस्कुराहट ही आपकी ज़िंदगी है।

तीसरे सवाल की तरफ बढ़ते हैं

जिसमें खुद एक सवाल छुपा है, अपने लिए जीना भी कोई जीना है ? सोचिए क्या आप अकेले किसी भी चीज़ का आनंद ले सकते हैं ,और अगर ले सकते हैं तो कितनी देर तक शायद आप कहेंगे कि बहोत देर तक नहीं क्योंकि हम सामाजिक प्राणी कहलाते ही हैं अकेले हंसना बोलना हमारे बस की बात नहीं कुछ पल अपने साथ अकेले में बिताना एक सुखद एहसास है पर पूरी ज़िंदगी अकेले बिताने की कल्पना ही दुखद है। मतलब प्यार और किसी का साथ बहुत ज़रूरी है। कितने फिल्मी गाने हैं हमें यही सीख देते ,अपने लिए जिए तो क्या जिए तो जी ऐ दिल ज़माने के लिए. ,जीने को तो जीते हैं सभी ….,ये ज़िंदगी उसी की है ,ये दुनिया उसी की ज़माना उसका मोहब्बत में जो हो गया हो किसी का …।

हममें फर्क कैसा

दुख सुख बांटना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हम सबका जीवन पथ एक ही है इसी मार्ग पर हम सबको चलना है तो इस नाते तो हम सब हमसफर हुए सब एक दूसरे के सुख दुख से परिचित भी हुए क्योंकि ये वही सुख दुख हैं जो कभी हमारे पास तो कभी सामने वाले के पास ,ये तो आते जाते रहते हैं ,इन ग़मो में हम एक जैसे ही दुखी होते हैं और सुख में एक जैसी ही खुशियों मनाते हैं तो हममें फर्क कैसा ,फर्क होता भी है तो बस हमारे उसे बाहरी तौर पर अभिव्यक्त करने के तरीकों का ,भावनाएं तो सबकी एक जैसी ही होती हैं और वही सबसे महत्वपूर्ण हैं तो कभी किसी ग़मज़दा को थोड़ी खुशियां दे के देखना तो बनता है वैसे भी अपने लिए जीने वाले को कौन याद रखता है लेकिन दूसरों के लिए जीने वाले को लोग कभी नहीं भूलते।

शिकवे गिले तो उम्मीद हैं ज़िंदगी को और बेहतर बनाने की इनके बिना तो वैसे भी ज़िंदगी अधूरी है क्योंकि ये भी तो अपनों से होते हैं। आख़िर में हम कह सकते हैं कि ज़िंदगी एक अनबूझ पहेली नहीं एक कहानी है, जिसकी शुरुआत तो आपके बस में नहीं लेकिन अंत आप गढ़ सकते हैं, इसे आप अपने हिसाब से खूबसूरत अंजाम तक पहुंचा सकते हैं अपनी कहानी अपने हाथों से लिख सकते हैं। ग़ौर ज़रूर करिएगा इस बात पर फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में धन्यवाद

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