मंथन। क्या रिश्ते कागज़ी होते हैं, क्या किसी को छोड़ना भूलना कागज़ को फाड़ देने जितना आसान होता है नहीं न! शायद ये बहुत मुश्किल काम है और उतना ही मुश्किल है ,ये जानते हुए भी कि उन्हें हमारी क़द्र नहीं है उनके साथ रहना फिर कैसे जिया जाए क्योंकि अगर हम अच्छे दिल के मालिक हैं तो हमारे लिए किसी को दिल से निकालना भी मुमकिन नहीं ,भले ही हम उनके दिल में हों न हों और रिश्ते मिटाए भी तो नहीं मिटते उनका नाम हमेशा हमारे साथ जुड़ा रहता है फिर चाहे वो कोई भी रिश्ता हो दुनिया कहीं न कहीं हमें याद दिला देती है कि उस इंसान से हमारा क्या रिश्ता है।
दिल साफ है तो लगाव होना लाज़मी है
फिर उनके साथ रहते – रहते कुछ हमें उनकी आदत भी पड़ जाती है और अपनापन लगना तो लाज़मी है जिसकी वजह से हम बार बार सब भूल कर उनके पास चले जाते हैं जिसका वो फायदा उठाते हैं , इसे हमारी कमज़ोरी समझते हैं। इसलिए रिश्तों को बचाने के लिए थोड़ा झुकना या समझौते करना तो ठीक है पर वो ज़ुल्म सहना ठीक नहीं जिसका ज़ख्म नासूर बन जाए।
अक्सर उम्मीदें ही रिश्ते बनाती और तोड़ती हैं
इंसान की ज़िंदगी तमन्नाओं से भरी हुई होती है , जिसमें एक दूसरे को जोड़ती हुई हर दिल की अपनी अलग ख्वाहिशें और चाहते भी होती हैं ,पर सब पूरी नहीं होती क्योंकि इन्हें पूरा करने की हसरत उस दिल में हम सी नहीं होती,जिससे हम जुड़े हैं ।
इसलिए थोड़ा उसे भी समझने की कोशिश करिए इंसानियत के नाते ही सही कि आख़िर वो आपका साथ क्यों नहीं देना चाहता शायद हम उसकी उम्मीद पर ही खरे न उतरते हों और इसलिए वो हमारे साथ खुश नहीं रह पा रहा हो।
जो रिश्ते हम बनाते हैं क्या वो टिकते हैं
आज जब वैवाहिक संबंध भी नहीं टिकते,जब रिश्ते जोड़ना और तोड़ना गुड्डे-गुड़िया के खेल जितना आसान हो गया तब भी क्या हम रिश्ते तोड़ने के बाद ,कागज़ी कार्रवाई पूरी कर लेने के बाद भी क्या किसी को भूल पाते हैं ,क्या उसके दिए ग़म भी भूल पाना मुमकिन है ? हां शायद मुमकिन तो है अगर कोई उन ज़ख्मों पर मरहम लगा दे जो हमारे ग़मों का सबब हैं।
कहना-तुमसे मिलकर हमने जाना
निष्कर्ष के तौर पर हम ये कह सकते हैं कि अगर कोई आपका साथ नहीं देना चाहता तो उससे ज़बरदस्ती क्या करना साथ न दे पाने का सीधा मतलब है कि वो आपसे प्यार नहीं करता और किसी भी रिश्ते को तभी चलाया जाना चाहिए जब उसमें प्यार हो अगर नहीं है तो वो बेमानी है खोखला है और जो खोखला है उसके जुड़े होने से न होने से कोई फर्क हमें नहीं पड़ना चाहिए तो अगर उसका नाम हमसे जुड़ा भी है कभी न कभी उसका ज़िक्र भी हो जाता है तब भी हमें कमज़ोर नहीं पड़ना है ,हम उससे जुड़े इसे अपना भाग्य या ऐसी ग़लती समझना ही ठीक है जिससे हम सीख ले चुके हैं, तभी हम आगे बढ़ पाएंगे खुशहाल ज़िंदगी जी पाएंगे उसे दर किनार करके जो हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बनना ही नहीं चाहता।
तो ख़ुद भी आज़ाद रहिए किसी बेमानी रिश्ते में बंधने का ढोंग मत करिए और दूसरे को भी बांधने की कोशिश न करिए,जो आपसे अलग भी हो गया उसे अपना दुश्मन न समझिए क्योंकि वो भी मजबूर है अपने सपनों अपनी तमन्नाओं से जो आपसे मेल नहीं खाते, इसमें आपकी या उसकी तरफ से सिर्फ कोशिश की जा सकती थी ताल मेल बिठाने की और कुछ नहीं ,ये सोचकर ही हम सच्ची ख़ुशी पा सकते हैं। ग़ौर करिएगा इस बात पर भी फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में धन्यवाद।