न्याज़िया
मंथन। जब हम कुछ अच्छा काम करते हैं तो दिल में ही सही पर ये कामना करते हैं कि कोई हमारी तारीफ करें और कोई सम्मान हमें मिल जाए पर आपको नहीं लगता कि हमारा अच्छा काम एक न एक दिन हमें सम्मान दिला ही देता है तो फिर क्यों निस्वार्थ बनकर हम किसी अच्छे काम को नहीं कर पाते।
अर्थहीन हो जाता है कोई अच्छा काम भी
जबकि ऐसा भी होता है कि अपने किसी अच्छे काम का ढिंढोरा पीट कर या किसी के लिए किए काम के बाद एहसान जता कर या फिर अपने काम के बदले कोई आशा करके हम अपने इन अच्छे कामों को भी अर्थहीन बना देते हैं क्योंकि जब हमने कुछ अच्छा किया और उसका शो ऑफ कर दिया या किसी के लिए कुछ किया हो और उसको एहसान जाता रहें हों तो आपका कोई भी अच्छा काम बेमानी हो जाएगा क्योंकि जिसका भला हुआ भी है वो भी अपनी बेइज़्ज़ती महसूस करता है फिर इससे भी आगे अगर हमने अपने अच्छे काम के बदले ,उसका मोल ले लिया तो ये तो सौदा हुआ और बिज़नेस में बिना मतलब कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता। दूसरी तरफ कोई भी अच्छा काम हमें केवल संतुष्टि ही नहीं देता है कहीं न कहीं हमें पुण्य भी दिलाता है ,तो ऐसे काम दिल से निस्वार्थ प्रेम के साथ किए जाए तो ही सार्थक होते हैं ।
निस्वार्थ कर्म
वैसे भी कहा जाता है कर्म किए जा फल की चिंता मत कर क्योंकि फल की आशा हमें पथ भ्रष्ट करती है लोभ और लालच की तरफ ले जाती है ,सम्मान के लालच में हम अपना धैर्य खो देते हैं और उस मार्ग पे चल देते हैं जो जल्दी से जल्दी या कुछ ज़्यादा किए भी हमें सम्मान दिला सके ,जो निस्वार्थ भाव से कुछ अच्छा करने वाले नहीं करते ।
सम्मान दुनिया दे देती है लेकिन आत्म सुख हमें ही खोजना पड़ता है
सम्मान की चाह रखना व्यर्थ है लेकिन ये तय है कि इस पथ पर चलते हुए आपको सम्मान मिल ही जाते हैं मगर जब तक आपको इनकी भी ज़रूरत नहीं रह जाती आपका रास्ता एक दम साफ आपको दिखाई देता है जिस पर आपको सिर्फ बढ़ते जाना है और जो इस मोह – माया का त्याग कर अपनी प्रवृत्ति ही ऐसी बना लेते हैं उन्हें जीवन के सच्चे सुख की प्राप्ति होती है वो ही संसार का भला कर पाते हैं।
आत्मसुख केवल जनहित में ही है
अच्छा जिससे कुछ अच्छा हो और बुरा मतलब जिससे बुरा हो
ये एक सीधी सी परिभाषा है अच्छे – बुरे की ,यानी फल के आधार पर ही इनकी विवेचना की जाती है जो हमें अपनी आदत में शुमार करनी है तो क्यों न वो चुने जिससे सब अच्छा हो और उस सम्मान की तरफ न जाए जो केवल दिखावटी हो बल्कि वो चुनें जिसका परिणाम आंखों के साथ मन को भी सुकून दे। तो ग़ौर ज़रूर करिएगा इस बात पर फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में धन्यवाद।