क्या ज़िंदगी से मायूस हो जाना सही है

न्याज़िया
मंथन। जब किसी मुश्किल का हल न समझ आए, ग़मों की अंधेरी रात ढलने का नाम ही न ले तो क्या ज़िंदगी से मायूस हो जाना, रुक जाना सही है, नहीं न! तो कैसे दिल को बहलाए? ऐसा क्या करें कि हमें खुशियों का पता मिल जाए क्योंकि हालात बदलना हर बार मुमकिन नहीं होता ,कुछ हालात, हमारे जीने के ढंग और सलीके की वजह से हमारे साथ जुड़ जाते हैं ,ये अक्सर हमारे उस ग़लत चुनाव का भी नतीजा होते हैं जो हम बिना , सोचे समझे कर लेते हैं या कभी कभी उस चुनाव के वक़्त हालात ऐसे बन जाते हैं कि हमें मजबूरी में ऐसे इंतखाब करने पड़ते हैं पर मान लीजिए ऐसी ग़लती हो ही जाए तो क्या उसे भूल के आगे निकल जाना अच्छा है, तो शायद हां क्योंकि उसे भूलेंगे तो खुशियों की नई राह दिखाई देगी और वक़्त धीरे – धीरे उस ज़ख्म पर भी मरहम लगा ही देगा जो हमारे लिए लाइलाज हो गया था या जिसके लिए हम सही मरहम तलाश ही नहीं कर पा रहे थे, फिर हालात भी तो हमेशा एक से नहीं रहते क्योंकि परिवर्तन ही समय का नियम है।

हर कोई वक्त के हाथों मजबूर

जिसकी ज़द में हर शय है और केवल हम नहीं ,हर कोई वक्त के हाथों मजबूर होता है और यही है ,जो हमारे हालात भी बदलने का माद्दा रखता है ,अच्छा और बुरा ,वक़्त के ही दो पहलू हैं ,जिनकी वजह से कभी हम ग़म की बदली में घिर जाते हैं तो कभी ये वक़्त कुछ नए और ऐसे हालात भी हमारे सामने लाकर रख देता है जो हमें खुशियों की राह दिखा देते हैं, ब शर्ते ,हमारे अंदर ताक़त हो इन ग़मों से लड़ने की एक उम्मीद की किरण ढूंढने की, इसलिए थोड़ा सा साहस और धैर्य रखते हुए अगर हम अपना काम पूरी लगन से करते रहें तो ये शिद्दत एक दिन हमें एक ऊंचे मकाम पर ज़रूर पहुंचा देगी,

ग़मों के छटेगे बादल

ग़मों की बदली छट जाएगी आसमान साफ होगा और सुखों का सूरज हमारे सामने होगा जिसे देखकर हम कह सकेंगे जो हुआ अच्छा हुआ ,वो नहीं तो, यही सही कुछ तो अच्छा ज़िंदगी ने हमारे नाम किया ,वो भी शायद इस लिए कि हम थक हार कर बैठ नहीं गए बढ़ते रहे, लगातार हिम्मत नहीं हारी। ग़ौर करिएगा इस बात पर भी फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में , धन्यवाद।

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