भारत में विचाराधीन कैदियों को मताधिकार से वंचित रखने के कानून कितने प्रासंगिक ~डॉ. रामानुज पाठक

Ramanuj Pathak

आलेख डॉ. रामानुज पाठक| देश में 18वीं लोकसभा के लिए 7 चरणों में संपन्न होने वाले आम चुनाव की मतदान प्रक्रिया अब अंतिम चरण में हैं।हाल ही में चल रहे 18वीं लोकसभा के चुनाव के मद्देनज़र, देश भर की जेलों में बंद चार लाख से अधिक विचाराधीन कैदी व्यापक कानूनी प्रतिबंध के कारण अपने मताधिकार का प्रयोग करने में असमर्थ हैं।विचाराधीन कैदी वह व्यक्ति होता है जिस पर वर्तमान में मुकदमा चल रहा होता है या जो मुकदमे की प्रतीक्षा करते हुए रिमांड में कैद होता है या वह व्यक्ति जिस पर न्यायालय में मुकदमा चल रहा होता है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 ( आर पी ए एक्ट 1951) जेल में बंद व्यक्तियों के लिये मतदान पर प्रतिबंध लगाता है, भले ही वे दोषी ठहराए गए हों या मुकदमे की प्रतीक्षा में हों। विधि आयोग की 78वीं रिपोर्ट में ‘विचाराधीन कैदी’ की परिभाषा में उस व्यक्ति को भी शामिल किया गया है जो जाँच के दौरान न्यायिक अभिरक्षा में होता है। भारत में अपराध, 2022 रपट के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग 5 लाख से अधिक व्यक्ति,अपने कारावास के कारण वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों में अपने मताधिकार का प्रयोग करने में असमर्थ रहें हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, वर्ष 2022 में भारत की जेलों में 4,34,302 विचाराधीन कैदी थे, जो जेल में बंद कुल कैदियों की संख्या 5,73,220 का 76फीसद थे।ऐसे समय में जब किसी निर्वाचित जनप्रतिनिधि को महज चुनाव प्रचार करने के लिए अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया जाता है वहीं विचाराधीन कैदियों को मतदान से रोका क्यों जाता है?यह शायद विधि का छात्र ही बेहतर ढंग से बता सकता है। विचाराधीन कैदी के मताधिकार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62(5) है।लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62(5)के अनुसार
कारावास या निर्वासन की सज़ा के तहत या पुलिस की वैध अभिरक्षा में जेल में बंद किसी व्यक्ति को किसी भी चुनाव में मतदान करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।मतदान से प्रतिबंधित होने के बावजूद, जिस व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में है, वह मतदान करेगा।

मतदान पर प्रतिबंध किसी मौजूदा कानून के तहत निवारक निरोध में रखे गए व्यक्ति पर लागू नहीं होता है।
इस प्रावधान को सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखा है, जिसमें संसाधनों की कमी और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को चुनावी परिदृश्य से दूर रखने की आवश्यकता जैसे कारणों का उल्लेख किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को संविधान की ‘आधारभूत संरचना’ के भाग के रूप में मान्यता देता है, लेकिन यह मतदान के अधिकार (अनुच्छेद 326) और निर्वाचित होने को मौलिक अधिकारों के बजाय वैधानिक अधिकार (संवैधानिक अधिकार) में अंतर करता है, जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 जैसे कानूनों द्वारा लगाए गए नियमों के अधीन है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 326 वयस्क मताधिकार का प्रावधान करता है। इसके अनुसार, 18 वर्ष से अधिक की आयु वाले प्रत्येक नागरिक को वोट देने का अधिकार है, जब तक कि उसे अनिवासी, मानसिक अस्वस्थता, अपराध या भ्रष्ट आचरण के आधार पर अयोग्य न ठहराया जाए। आरपीए 1951 की धारा 8 किसी व्यक्ति को केवल कुछ अपराधों के लिये दोषी ठहराए जाने पर ही चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित करती है, न कि केवल आरोप लगाए जाने पर।


सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक आरोपों वाले या झूठे शपथ-पत्र दाखिल करने वालों को अयोग्य ठहराने की याचिका खारिज कर दी है, जिसमें कहा गया है कि केवल विधायिका ही आर पी ए 1951 में परिवर्तन कर सकती है।
भारत निर्वाचन आयोग कुछ परिस्थितियों में अयोग्यता की अवधि को परिवर्तित कर सकता है।एक अयोग्य सांसद या विधायक तब भी चुनाव लड़ सकता है जब यदि उच्च न्यायालय में अपील पर उसकी दोषसिद्धि पर रोक लगा दी जाती है।अंग्रेज़ी ज़ब्ती अधिनियम, 1870 ने ही कैदियों को मताधिकार से वंचित करने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तैयार की थी। इसने राजद्रोह या गुंडागर्दी के दोषी व्यक्तियों को अयोग्य घोषित कर दिया था।

इसके पीछे तर्क यह था कि एक बार जब किसी को ऐसे गंभीर अपराधों के लिये दोषी ठहराया जाता है, तो वह मताधिकार सहित अपने अन्य अधिकारों से भी वंचित हो जाता है। वहीं भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत परिवहन, दंडात्मक दासता या कारावास की सज़ा काट रहे व्यक्तियों को मतदान करने से रोक दिया गया था। हालाँकि, आर पी ए1951 ने इस तरह की मताधिकार से वंचित होने को परिभाषित करने के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया था। इसमें निर्दिष्ट किया गया है कि जेल में बंद व्यक्ति, कारावास या आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे हैं या अन्यथा विधिपूर्ण पुलिस अभिरक्षा (कस्टडी) में निरोधित हैं, मतदान के लिये अयोग्य हैं। यह प्रावधान केवल निवारक हिरासत में रखे गए लोगों को निष्काषित करता है। वास्तव में बड़ा प्रश्न यह है कि क्या विचाराधीन कैदियों के पास मताधिकार होना चाहिये?


विचाराधीन कैदियों को मतदान की अनुमति देने के पक्ष में संविधान के जानकार कई तर्क देते हैं ,जैसे निर्दोषता की धारणा कहती है कि अपराध सिद्ध होने तक विचाराधीन कैदियों को निर्दोष माना जाता है। उन्हें मताधिकार से वंचित करने को दोषसिद्धि से दंडात्मक कार्रवाई के रूप में देखा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति केवल हिरासत की स्थिति के आधार पर मताधिकार से वंचित करने को निर्दोषता की धारणा का उल्लंघन मानती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों को वोट देने से रोकना उन्हें दो बार सज़ा देने के समान माना है।दूसरा पक्ष में तर्क देते हुए संविधान विशेषज्ञ प्रतिनिधित्व और राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं उनका मानना है कि विचाराधीन कैदियों को मतदान करने की अनुमति यह सुनिश्चित करती है कि उनके हितों और दृष्टिकोणों का राजनीतिक प्रक्रिया में प्रतिनिधित्व किया जाता है, जिसमें जेल की स्थिति एवं आपराधिक न्याय प्रणाली को प्रभावित करने वाली नीतियाँ भी शामिल हैं।वहीं विचाराधीन कैदियों को मतदान की अनुमति देने के विपक्ष में संविधान के जानकार तर्क देते हुए कहते हैं कि,विचाराधीन कैदियों को मतदान की अनुमति देने से मतदाताओं को डराने-धमकाने या चुनावी हस्तक्षेप से संबंधित चिंताएँ बढ़ सकती हैं, विशेषकर गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में विचाराधीन कैदियों को मताधिकार सार्वजनिक सुरक्षा संबंधी चिंताएँ मानी गई हैं।
दूसरी चिंता जताते हुए संविधान विशेषज्ञ कहते हैं कि जेल के वातावरण में विचाराधीन कैदियों के लिये मतदान की सुविधा चुनाव अधिकारियों के लिये तार्किक और प्रशासनिक चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकती है, जैसे मतपत्र की गोपनीयता सुनिश्चित करना और प्रपीड़न को रोकना।

कैदियों ने सामाजिक व्यवस्था का उल्लंघन किया है और स्वेच्छा से स्वयं को सामाजिक व्यवस्था से दूर रखा है।अतः
सामाजिक व्यवस्था पर समझौता नहीं किया जा सकता और विचाराधीन कैदियों को मताधिकार से वंचित ही रखना चाहिए। कुछ भी कहा जाय आखिर मसला विचाराधीन कैदियों को मताधिकार से वंचित करने के रूप में देखा जा सकता है, विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले समूहों के लिये, जिन्हें परीक्षण-पूर्व हिरासत में असमान रूप से प्रतिनिधित्व किया जा सकता है।
विचाराधीन कैदी अस्थायी हिरासत की स्थिति में होता है,और मतदान के अधिकार संभावित रूप से बरी होने या सज़ा पूर्ण होने पर बहाल किये जा सकते हैं।

कुछ आलोचकों का तर्क है कि विचाराधीन कैदियों को मताधिकार से वंचित करना भेदभावपूर्ण है और समानता के सिद्धांत (अनुच्छेद 14) का उल्लंघन है। दक्षिण अफ्रीका, यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस, जर्मनी, ग्रीस और कनाडा जैसे देशों के विपरीत, प्रतिबंध में अपराध की प्रकृति या सज़ा की अवधि के आधार पर उचित वर्गीकरण का अभाव है।
इसके अतिरिक्त, विचाराधीन कैदियों को मतदान करने की अनुमति न देने से ज़मानत पर छूटे दोषियों, जो मतदान कर सकते हैं और उन विचाराधीन कैदियों, जो मतदान नहीं कर सकते हैं, के बीच अंतर उत्पन्न होता है, जिससे अतार्किक भेदभाव होता है।
जबकि कुछ लोगों का तर्क है कि मतदान सहित अन्य अधिकारों का हनन, आपराधिक कार्यवाही में शामिल होने के परिणामस्वरूप होता है और आपराधिक व्यवहार के विरुद्ध निवारक के रूप में कार्य कर सकता है।


भारत में मतदान के अधिकार के संबंध में कानूनी पूर्वाधिकार बहुत कुछ कह चुके हैं जैसे, इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण मामला, 1975 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव भारत के संविधान की ‘बुनियादी संरचना’ का एक हिस्सा हैं और ऐसा कोई भी कानून या नीति जो इस सिद्धांत का उल्लंघन करेगी, उसे रद्द किया जा सकता है।
प्रवीण कुमार चौधरी बनाम चुनाव आयोग और अन्य मामले में निर्णय देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा था कि मतदान का अधिकार न तो संवैधानिक है और न ही मौलिक, बल्कि यह केवल वैधानिक अधिकार है।
न्यायालय ने धारा 62 (5) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए पुष्टि की है कि कैदियों को वोट देने का अधिकार नहीं है।
पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज़ (पी यू सी एल) बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस, 2003 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मतदान का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत प्रदान किया गया एक संवैधानिक अधिकार है। लेकिन मतदान के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया गया है।

मतपत्र के माध्यम से चुनाव करने का अधिकार वास्तव में संविधान के अनुच्छेद 19(1) (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक भाग है। अनुकूल चंद्र प्रधान, अधिवक्ता बनाम भारत संघ एवं अन्य मामला, 1997 में न्यायालय ने आर पी ए की धारा 62(5) की संवैधानिकता को बरकरार रखा, जो कैदियों को मताधिकार से वंचित करती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने तीन मुख्य औचित्यों का हवाला दिया है:पहला,कैदी अपने आचरण के कारण कुछ स्वतंत्रताएँ खो देते हैं।दूसरा,कैदियों के मतदान के लिये बढ़ती सुरक्षा आवश्यकताओं के कारण तार्किक चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।तीसरा,आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को चुनावी प्रक्रिया से बाहर करना उचित ही है।लेकिन विचाराधीन कैदियों के मताधिकार के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय को पुनर्विचार की आवश्कता है।निष्कर्ष और सुझाव यह है कि जैसे-जैसे चुनावी प्रणालियाँ बदलती हैं और समावेशिता बढ़ती है वैसे-वैसे जेल में बंद कैदियों के बीच राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये वैकल्पिक रणनीतियों, जैसे मोबाइल वोटिंग इकाइयाँ या अनुपस्थित मतपत्र (अब्सेंटी बैलेट्स) को ध्यान में रखना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
कैदियों के लिये मतदान के अधिकार के महत्त्व एवं पुनर्वास तथा पुनः एकीकरण के लक्ष्य को देखते हुए, कैदियों को अत्यधिक हाशिये पर धकेलने के बजाय निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सार्थक रूप से भाग लेने के अवसर देने पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
मतदान के अधिकार के संदर्भ में दोषी ठहराए गए कैदियों और मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे कैदियों के बीच अंतर किया जाना चाहिये।

भारतीय संविधान में मतदान को एक मौलिक कर्त्तव्य (फंडामेंटल ड्यूटी) बनाने और बदले में मतदान को एक मौलिक अधिकार बनाने के लिये स्वर्ण सिंह समिति, 1976 की सिफारिश को शामिल किया जाना चाहिये।बहरहाल भारत में विचाराधीन कैदियों को मताधिकार से वंचित रखने के कानून पर भारतीय संसद,भारत के सर्वोच्च न्यायालय और भारत के निर्वाचन आयोग को मिलकर पुनर्विचार करना चाहिए ।

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