Holi 2025 | रीवा और विंध्यक्षेत्र में होली का पर्व कैसे मनाया जाता है

Holi In Rewa: होली हिंदुओं का एक प्रमुख पर्व होता है, जो प्रत्येक वर्ष बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है, यह पर्व फाल्गुन शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है, जब होलिका दहन किया जाता है और उसके अगले ही दिन प्रतिपदा को धुरेड़ी का पर्व मनाया जाता है। लोग इस दिन सारे गिले-शिकवे भूलकर एक-दूसरे को रंग-गुलाल लगाते हैं, और गले मिलते हैं। होली पर्व से जुड़ी कई पौराणिक कथाएँ आती हैं। होली का पर्व रीवा और विंध्यक्षेत्र में भी बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है।

बघेलखंड में होलीपर्व

बघेलखंड में होलीपर्व बहुत धूम-धाम से मनाया जाता है, वैसे तो फगुआरों द्वारा होली के फाग गीत गाने महीने भर गाए जाते हैं, लेकिन फिर भी होली का पर्व मूलतः पूर्णिमा से लेकर रंगपंचमी तक मनाया जाता है। सबसे पहले होलिका दहन का दिन होता है, इस दिन सूखी लकड़ियाँ और घाँस-फूस को एक जगह इकट्ठा किया जाता है, जिस जगह होली जलाई जानी होती है, वहाँ पहले रेंड़ा(रतनजोत) के पेड़ की कोई शाखा गाड़ दी जाती है, और उसके चारों तरफ सूखी लकड़ियाँ और घाँस-फूस को एक जगह इकट्ठा करके रख दिया जाता है, और फिर रात को जब गाँव-मुहल्ले के सब लोग खाना खा लेते हैं, तब होली जलाई जाती है। लोग होली को तापने जाते हैं, जिसमें गोबर से बने छोटे-छोटे उपले, जिन्हें बल्ला कहा जाता है, उन्हें होलिका में समर्पित किया जाता है, यह घरों में बनाए जाते हैं। इसके साथ ही राई, नमक और चोकरा(गेहूं के आटे से निकलता है) को अपने पूरे शरीर से सात बार उतार के, होलिका की परिक्रमा करते हुए, उसमें डाल दिया जाता है। होलिका को देवी मानकर उससे अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना की जाती है, कई लोग गेहूं के बाल और चने के पौधों को भी होलिका को समर्पित करते हैं।

धुरेड़ी का दिन

होली के दूसरे दिन धुरेड़ी होती है, जिसे स्थानीय भाषा में फगुआ भी बोला जाता है, उस दिन बघेलखंड के ज्यादातर घरों में भगवान जगन्नाथ को गुड़वाले रोट का प्रसाद चढ़ाया जाता है, यह परंपरा संभवतः रीवा राजपरिवार के कारण ही गाँवों और क्षेत्रों में प्रचलित हुआ है, रीवा के शासक वैष्णव परंपरा से दीक्षित होते थे, 17 वीं शताब्दी में यहाँ के महाराज भाव सिंह जी थी, वह भगवान जगन्नाथ के परमभक्त थे, उन्होंने पुरी की यात्रा की थी और भगवान जगन्नाथ के विग्रह रीवा, मुकुंदपुर और कोटर में स्थापित करवाए थे, जिसके बाद भगवान को प्रत्येक वर्ष होली उत्सव के समय महाप्रसाद चढ़ाया जाता है, संभवतः इसीलिए यह इस क्षेत्र में भी प्रचलित हो गया।

फिर इस दिन घरों में बहुत सारी मिठाइयां और पकवान बनते हैं, कुशली(गुझिया), पपरी, मौहरी इत्यादि, इसीलिए पहले के समय में इन क्षेत्रों में धुरेड़ी के दिन फाग नहीं खेला जाता था, बल्कि उसके अगले दिन होली खेली जाती थी, फिर सप्ताह भर लोग एक-दूसरे के यहाँ फगुआ जोहारने जाते थे।

बघेली फाग गीत

फाग गीत होली के महीने में गाया जाने वाला एक गीत होता है, जो अवध, पूर्वाञ्चल, ब्रज और बुंदेलखंड इत्यादि क्षेत्रों में बहुत जोर-शोर से गाया जाता है, बघेली फाग गीत की बहुत ज्यादा साम्यता अवधी गीतों से है, इसे तीन रागों बुन्देली, बघेली और बैसवारा में गया जाता है, फगुआ के गीत गाते समय मृदंग, ढोलक और नगरिया इत्यादि वाद्य यंत्रों के साथ इसे गाया जाता है, फगुआ स्त्री और पुरुषों दोनों द्वारा गाया जाता है। यहाँ के फाग गीतों में सीता-राम, राधा-कृष्ण और शिव-पार्वती का जिक्र आता है, नायक और नायिका का प्रेम और विरह का भी जिक आता है, इसके अलावा हंसी-मजाक, चुहलबाजी और मनुहार भी इन गीतों में प्राप्त होता है। यहाँ के फाग गीतों में राजा-महाराजाओं का भी जिक्र भी है, सबसे ज्यादा जिक्र बांधवेश महाराज गुलाब सिंह का होता है, एक उदाहरण देखिए –

बांधवपति महाराज गुलाब सिंह रीमा वीराना कई गें

हाथी रोबै हथिखाने, घोड़ा रोबै घुड़सारे, अऊ पिंजरा मा उया तोंता रोबै, के देई चना कइ दार, गुलाब सिंह रीमा वीराना कई गें

यह फाग गीत तब रचा गया था जब ब्रिटिश सरकार ने साजिश के तहत महाराज को रीवा की गद्दी से हटा दिया था और रीवा आने का निषेध कर दिया था, रीवा महाराज ने रीवा में गाँधी और कांग्रेस से प्रभावित हो बहुत सामाजिक सुधार किये थे, बाद में मुंबई में एक दुर्घटनावश उनकी मृत्यु हो गई थी, एक लोकप्रिय महाराज को उनकी प्रजा ने लोकगीतों के माध्यम से याद करते हैं।

बघेलखंड में होली का पर्व रंगपंचमी तक मनाया जाता था, महीने भर फाग गीत गाए जाते थे, लेकिन समय के साथ सबकुछ धीरे-धीरे खत्म होने लगा, इन परंपराओं और रस्मों को संरक्षण की जरूरत है।

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