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आशाएं और हम…

न्याज़िया

मंथन। कहते हैं उम्मीद पे दुनिया क़ायम है हां शायद हम उम्मीद से बंधे हुए हैं इन्हीं के सहारे जीते हैं और इन्हें के टूटने पर ज़ख्मी हो जाते हैं पर ये उम्मीदें किससे की जा रहीं हैं ये भी मायने रखता है क्योंकि खुद से बंधी आशाएं तो हम फिर भी पूरी कर लेते हैं और अगर नहीं तो खुद को तसल्ली देने का कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं लेकिन जब हमें किसी और से उम्मीदें होती हैं तो उनके टूटने पर हमें बहोत तकलीफ़ होती हैं शायद इसलिए कि उस वक़्त वो हमारा इकलौता सहारा होता है कोई और ऑप्शन नहीं होता हमारे पास।

आशा के साथ जुड़ी सांत्वना

फिर क्यों न हम हर उम्मीद के साथ एक ऐसा रास्ता पहले से खोज के रखें जो अगर हम उस उम्मीद तक न भी पहुंचे तो हमें न उम्मीद न होने दे,हम ये खुद से या उस अपने से ये कह सकें कि आज नहीं तो कल कर देना,इतना नहीं तो इतना कर देना ,एक उम्मीद टूट जाने से सब कुछ खत्म नहीं हो जाता या कोई अपना ग़ैर नहीं हो जाता ,ये मानना ज़रूरी है कि अगर वो आपकी उम्मीदों पे खरा उतरने की कोशिश कर रहा है तो वो आपका अपना ही है।

आध्यात्म देता है शक्ति

ख़ुद पे यक़ीन रखकर अगर हम उस विधाता पर भी थोड़ा भरोसा रखेंगे तो दिल टूटने से बच जाएगा , हम इसको विधि का विधान मान सकेंगे और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ आगे बढ़ने का दूसरा दरवाज़ा ढूंढ लेंगे क्योंकि कहते हैं कि अगर कुछ हमारे मन का नहीं होता तो वो विधाता के मन का होता है वो एक दरवाज़ा बंद करता है तो कई और दरवाज़े हमारे भले के लिए खोल देता है , और हम उसकी बनाई ऐसी कृति हैं जिससे उसको भी प्यार है ।

आशाएं जीवन का श्रृंगार हैं

आखिर में हम ये कह सकते हैं कि हां उम्मीदें ही हमें ज़िंदा रखती हैं इसलिए उम्मीदें तो रखना ही चाहिए पर किसी सांत्वना के साथ कोई आखिरी उम्मीद हो भी तो वो हमें इस क़दर न तोड़ दे कि हम फिर आगे न बढ़ सकें ,कई जगह हम मजबूर हो सकते हैं क्योंकि हर इंसान का अपना एक दायरा होता है जिसे उसके हालात बनाते हैं जिससे आगे बढ़के अपनी उम्मीदें पूरी करने की बस कोशिश की जा सकती हैं,ये याद रखते हुए कि आशाएं ही जीवन का आधार हैं। तो ग़ौर ज़रूर करिएगा इस बात पर फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में धन्यवाद।

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