History Of Vindhya Part 1| विंध्य क्षेत्र का इतिहास – भाग 1

History Of Vindhya In Hindi | विंध्य क्षेत्र मध्यप्रदेश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित है। इसे बघेलखण्ड भी कहते हैं। इस क्षेत्र में पाए गए प्रारंभिक, मध्य और उत्तर पाषाणयुगीन औजारों से यह सिद्ध हो जाता है कि यह क्षेत्र प्रागैतिहासिक लोगों का निवास स्थान था। इस क्षेत्र को आदिमानव की क्रीड़ा-स्थली होने का गौरव भी प्राप्त है। इस क्षेत्र के शैलाश्रयों में प्राप्त होने वाली आदिमानवों के विभिन्न क्रियाकलापों की आकृतियाँ इसकी पुष्टि भी करते हैं। कथा आती है महर्षि अगस्त्य यहीं से होकर दक्षिण गए थे। विंध्य पर्वत जो भारत के मध्य में स्थित है, उसे अपनी ऊंचाई पर अत्यंत दंभ था, उसने एक बार सूर्य के प्रकाश को ही ढक लिया था, वह झुकने को तैयार नहीं था। प्रकृति में इससे असंतुलन उत्पन्न हो गया और उत्तर से दक्षिण जाने का मार्ग भी बाधित हो गया।

तब लोककल्याण के लिए महर्षि अगस्त्य जो उसके गुरु थे वह आए और विंध्य से आगे जाने और फिर वापस आने का मार्ग माँगा, अपने गुरु के सम्मान में विंध्य झुक गया और महर्षि पार दक्षिण चले गए, लेकिन जाते हुए विंध्य को आदेश दिया, जब तक वह वापस न आए विंध्य झुका ही रहे। महर्षि फिर कभी लौट कर नहीं आए, मान्यता है विंध्य अभी भी झुककर अपने गुरु के आने का इंतजार कर रहा है। यह माना जाता है विंध्यपर्वत जहाँ झुका था वह स्थान अब झुकेही कहलाता है। जो कि मध्यप्रदेश के मैहर जिले में आता है। मान्यता है त्रेता युग में भगवान राम अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण को साथ लेकर इसी मार्ग से दंडकारण्य गए थे। रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में इस क्षेत्र है जिक्र मिलता है। महाजनपद काल में इस क्षेत्र का कुछ हिस्सा वत्स महाजनपद में आता था और कुछ चेदि महाजनपद में आता था।

Mirza Galib Ke Kisse | मिर्ज़ा ग़ालिब और उनके क़िस्से

आइये इतिहास के विभिन्न कालखंडों में विंध्य के इतिहास पर हम प्रकाश डालते हैं –

1 . मौर्यकाल मौर्यकाल में यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत ही आता था। वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपनी पुस्तक पाणिनिकालीन भारत में यह लिखा है कि, दक्षिणापथ का जो मार्ग विंध्य के वनों से गुजरता था, उसका नाम कांतारपथ था। मौर्यकाल में ख़तिलवार, अमिलकोनी, देउर-कोठार, केउटी, इटहा और भरहुत आदि प्रमुख स्थल थे। इसमें इटहा नगरीय सभ्यता का प्रमुख केंद्र था। सम्राट अशोक के समय में निर्मित भरहुत और देउर-कोठार के स्तूप भी इसकी पुष्टि करते हैं।

2 . शुंगकाल – मौर्यवंश के अंतिम राजा दसरथ की हत्या करके सेनानी पुष्यमित्र मगध के सिंहासन पर बैठा। इस क्षेत्र पर शुंग राजाओं के आधिपत्य की सूचना भरहुत से प्राप्त शिलालेखों से होती है। प्रथम भरहुत स्तंभ विदिशा के रेवितिमित्र की पत्नी चापादेवी तथा द्वितीय स्तंभ विदिशा की वशिष्ठी द्वारा दान किया गया था, जो वेणिमित्र की पत्नी थी। ये मित्र नामांत सम्भवतः विदिशा के राजपरिवार से सम्बंधित थे, जिसका प्रतिनिधि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र था। स्तूप के पूर्वी तोरण से राजा धनभूति का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, इस लेख में धनभूति खुद को अगरजु का पुत्र और विश्वदेव का पौत्र कहता है। वह सम्भवतः शुंगों का करदाता सामंत था। इस अभिलेख से यह प्रकट होता है कि यह नक्काशीदार संरचना धनभूति ने ही निर्मित करवाई थी। कनिंघम के अनुसार तो अन्य तीन तोरण भी उसके द्वारा ही निर्मित करवाए गए होंगे। स्तूप की आंतरिक वेदिका में उसकी पत्नी नागरक्षिता तथा उसके पुत्र वृद्धपाल के नाम का भी उल्लेख है।

3 . मौर्योत्तर काल के अन्य राजवंश – इस क्षेत्र से विभिन्न कुषाण शासकों के प्राप्त सिक्के यहाँ कुषाण प्रभाव की पुष्टि करते हैं। इन सिक्कों की संख्या लगभग 757 बताई गई है। इसी तरह कुछ विद्वान यहाँ सातवाहनों के शासन का जिक्र भी करते हैं। हालाँकि हमारे पास सिक्के और अभिलेखों का आभाव है पर दक्षिण कौशल पर सातवाहन शासकों की उपस्थिति के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है। लेकिन हमारे पास मघ वंश से सम्बंधित कई पुरातात्विक साक्ष्य हैं। मघवंश जिनकी प्रारंभिक राजधानी बाँधवगढ़ और बाद में कौशांबी थी। इतिहासकारों ने पुराणों में वर्णित मेघवंश से इसकी साम्यता की है। पुराणों के अनुसार वे दक्षिण कौशल के स्वामी थे। यहाँ बाँधवगढ़ से ब्राम्ही लिपि के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जो राजा वशिष्ठीपुत्र भीमसेन, कौत्सीपुत्र पोतिसिरी, कौशिकीपुत्र भद्रदेव और गौतमीपुत्र शिवमघ के हैं। जिनकी पहचान मघ वंश के शासकों के तौर पर की गई है। डॉ के. पी. जायसवाल के अनुसार भारशिव नाग भी यहीं से होते हुए काशी जाकर उन्होंने दस अश्वमेघ यज्ञ संपन्न किए थे। आगे जायसवाल महोदय वाकाटकों का मूलनिवास भी विंध्य के ओरछा के आस-पास ही मानते हैं।

4 . गुप्तकाल – चौथी शताब्दी में उत्तरभारत पर गुप्त शासकों का आधिपत्य हो गया। प्रयाग के स्तम्भ-लेख के अनुसार सम्राट समुद्रगुप्त दक्षिण के 12 राजाओं को युद्ध में पराजित करता हुए सुदूर कांची तक दिग्विजय की थी। उसने दक्षिण के विजय अभियान की शुरुआत कौशल के राजा महेंद्र को पराजित करते हुए की थी। इतिहासकरों ने कौशल की पहचान उत्तरी छत्तीसगढ़ के रायपुर-बिलासपुर के क्षेत्र से की है। सम्राट समुद्रगुप्त अपने दिग्विजय के लिए इन्हीं क्षेत्र से गुजरे होंगे ऐसा इतिहासकार मानते हैं। परिब्राजक महाराज संक्षोभ तथा उनके पिता महाराज हस्तिन के खोह अनुदान लेखों से पता चलता है, महाराज हस्तिन डाहल तथा 18 आटविकों पर शासन किया करता था। इन आटविक राज्यों की सही पहचान तो नहीं हो पाई है। लेकिन इतिहासकार इन्हें विंध्य क्षेत्र में ही स्थित मानते हैं। ये परिब्राजक महाराज गुप्तवंश के सम्राटों के करद सामंत थे। प्रयाग लेख से समुद्रगुप्त के आटविक राज्यों पर भी शासन की पुष्टि होती है। भूमरा और नचना-कुठार के मंदिर भी गुप्तकाल में ही निर्मित हैं। रीवा जिले के सुपिया से गुप्त शासक स्कंदगुप्त का एक अभिलेख भी प्राप्त हुआ है।

5 . गुप्तोत्तर काल – गुप्तकाल के पतन के दौर में यहाँ पांडुवंश के राजाओं का उभार हुआ। इनका शासन क्षेत्र परिब्राजक राजाओं के पूर्वोत्तर क्षेत्र में था। इस वंश के एक राजा उदयन का शिलालेख कालिंजर में पाया गया है, जिसके अनुसार वह 5वीं सदी के अंत में शासन कर रहा था। उसका प्रपौत्र तिवरदेव दक्षिणकौशल पर शासन कर रहा था। एक पांडुवंशी राजा के अनुदान ताम्रपट्ट रीवा पठार से भी प्राप्त हुआ है, जिसमें चार राजाओं का जिक्र है। इसमें प्रथम दो की कोई शाही उपाधि नहीं है लेकिन अंतिम दो, नागबल और इन्द्रबल का उल्लेख न केवल महाराज के रूप में है, बल्कि उन्हें परममहेश्वर तथा परमब्राम्हण कहा गया है। इतिहासकार मानते हैं हूणों के आक्रमण और गुप्तों के पतन के दौर में ये शासक आंशिक रूप से स्वतंत्र हो गए थे। बाद में सम्भवतः पुष्यभूति वंश के सम्राट हर्ष का शासन भी विंध्यक्षेत्र में था, इस बात के पुष्टि के लिए विद्वान बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित नाम के ग्रंथ का उदाहरण देते हैं। जिसके अनुसार महाराज हर्ष अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढता हुआ विंध्याटवी के वनों में आया था।

6 . पूर्वमध्यकाल (राजपूतकाल) हर्ष की मृत्यु के बाद और देश में तुर्क शासन स्थापित होने से पहले के समय को पूर्वमध्यकाल कहा गया है। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न राजवंशों के शासन के कारण स्मिथ ने इसे राजपूत काल भी कहा है। उस समय में विंध्य क्षेत्र मुख्यतः त्रिपुरी के कल्चुरि शासकों के अधीन था। कलचुरियों के परवर्ती काल में जेजाकभुक्ति के चंदेल शासकों का नियंत्रण भी इस क्षेत्र में था।

NO DETENTION POLICY: 5वीं और 8वीं के छात्रों पर भी बोर्ड परीक्षा वाली सख्ती?

(i) कलचुरिवंश – उस समय में विंध्य क्षेत्र त्रिपुरी के कल्चुरि शासकों के अधीन था। यहाँ कल्चुरिकालीन बहुत से भग्नावेश पाए जाते हैं। जिनमें कई मंदिर, पाषाण मूर्तियां और कलाकृतियां हैं। जो यहाँ यत्र-तत्र बिखरी हैं और बहुतायत में पाई जाती है। रीवा से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुरगी गांव से कलचुरिकालीन नगर और दुर्ग के अवशेष भी प्राप्त होते हैं। कल्चुरियों का आधिपत्य प्रयाग-बनारस उसके आस-पास के क्षेत्रों में भी था, ऐसा उनके अभिलेखों से पुष्टि होती है। इसके अलावा कल्चुरियों ने पूर्व में पालों के मगध क्षेत्र तक धावे किए थे। इसीलिए रीवापठार पर स्थित गुरगी दुर्ग का रणनीतिक महत्व रहा होगा। इस दुर्ग का निर्माण सम्भवतः त्रिपुरी के कलचुरि शासक लक्ष्मीकर्ण ने करवाया था। उसने त्रिकलिंगाधिपति और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। वह शतसमर युद्धों का विजेता था, उसके गुरगी से प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार तो उसने सुदूर दक्षिण में चोलों के क्षेत्रों तक धावे मारे थे। यहाँ से कई कलचुरि शासकों के अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं। महसांव का शिव मंदिर, वैद्यनाथ का मंदिर, चंद्रेह का शिवमंदिर और मठ, अमरकंटक का कर्णमेरु मंदिर कलचुरिकालीन स्थापत्य का सर्वोत्तम उदाहरण हैं। 12वीं शताब्दी के मध्य से ही इन क्षेत्रों से कलचुरियों का पतन होने लगा था।

(ii) चंदेलवंश – 12वीं शताब्दी के मध्य जब कलचुरियों का जब पतन होने लगा तब जेजाकभुक्ति के चंदेल शासकों ने इस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। चंदेल और कलचुरी राजाओं का संघर्ष वैसे भी अत्यंत पहले से होता आ रहा था और सतत जारी भी था। 1129 से 1153 ईस्वी तक शासन करने वाले चंदेल राजा मदनवर्मा ने सम्भवतः चेदि (त्रिपुरी) के कलचुरीवंश के राजा को पराजित किया था। यह पराजित होने वाला राजा गयाकर्ण देव था या उसका पुत्र नरसिंघ देव यह तो तय नहीं है, लेकिन चंदेलों ने रीवा पठार के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार जरूर कर लिया था। इस चंदेल राजा के लगभग 48 सिक्के त्योंथर तहसील के पनवार ग्राम से प्राप्त हुए हैं। लेकिन नरसिंह देव के 1158-1159 ईस्वी के आल्हाघाट अभिलेख से यह ज्ञात होता है यह क्षेत्र पुनः कलचुरियों के अधिकार में आ गया था। अंतिम ज्ञात कलचुरी शासक विजय सिंह के रीवा के एक लेख के अनुसार ककरेड़ी का महाराणक मलय सिंह उसका सामंत था। लेकिन चंदेल वंश के राजा त्रैलोक्यवर्मन के 1212ईस्वी के रीवा-घुरेंटी पट्ट के लेख से ज्ञात होता है, चन्देलों ने अब कलचुरियो को हराकर विंध्य का लगभग पूरा उत्तरी क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया था। इसी पट्ट के अनुसार ककरेड़ी का महाराणक मलयसिंह जो पहले कलचुरियों का सामंत था। वह चेदि के इस शासक के प्रति अपनी निष्ठा त्याग कर, विजेता राजा त्रैलोक्यवर्मन के प्रति निष्ठावान बन गया था। त्रैलोक्यवर्मन परमार्दीदेव का पुत्र था, इसका शासन कैमोर पर्वत के उपत्यका से लेकर सोन नदी के तटीय भाग तक था।

क्रमशः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *