Sharda Peeth Temple | पीओके स्थित शारदापीठ मंदिर का इतिहास

Sharda Peeth Ka Itihas: संसद में बजट सत्र के दौरान एमपी कांग्रेस नेता और राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने सरकार से मांग की है, जैसे करतारपुर कॉरिडोर का निर्माण हुआ है, वैसे ही केंद्र सरकार पाकिस्तान सरकार से बात करके शारदा कॉरिडोर का निर्माण करवाए, जो बॉर्डर के उस पार पीओके में स्थित है, कश्मीरी पंडित वहाँ जाना चाहते हैं, पर यह 75 साल से यह बंद है और हम वहाँ दर्शन के लिए नहीं जा सकते हैं। दरसल उन्होंने यह मांग कश्मीरी पंडितों की समस्यायों पर बात करते हुए कही, उन्होंने कहा कि 90 प्रतिशत कश्मीरी पंडित कश्मीर से बाहर रहते हैं, वह वापस कश्मीर लौटना भी चाहते हैं, लेकिन पुनर्वास और सुरक्षा का उचित समाधान होना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि मनमोहन सिंह के समय इसके कुछ प्रयास किए गए थे।

पीओके में स्थित है शारदा पीठ

शारदा पीठ कश्मीर के नीलम घाटी में एलओसी के निकट स्थित एक प्राचीन मंदिर और शिक्षा का केंद्र था, जो ज्ञान, कला और संगीत की देवी शारदा, अर्थात देवी सरस्वती को समर्पित है। मंदिर कश्मीरी स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है, इस पीठ की स्थापना कब हुई, यह निश्चित तौर पर तो ठीक-ठाक नहीं बताया जा सकता है, कुछ विद्वान इस विद्यापीठ को अशोक के समय का बताते हैं, पर संभवतः इसका निर्माण कश्मीर के महापराक्रमी शासक लालितादित्य मुक्तापीड (724CE से 760CE) के समय में करवाया गया था।

शारदा पीठ का जिक्र

शारदा पीठ का सबसे पहला जिक्र नीलमत पुराण में हुआ है, नीलमत पुराण का रचनाकाल विद्वान 6 वीं शताब्दी से लेकर 8 वीं शताब्दी के मध्य तक मानते हैं। फारसी लेखक अल-बरूनी ने भी शारदा पीठ के बारे में लिखा, उसके अनुसार यहाँ देवी शारदा की लकड़ी की मूर्ति स्थापित थी। हालांकि अल-बरूनी कभी कश्मीर गया नहीं था, बल्कि उसने सुनी सुनाई बातें ही लिखी हैं। 11 वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध कश्मीरी कवि बिल्हण ने शारदापीठ का जिक्र किया है। इसी तरह कल्हण की रजतरंगिणी और जोनराज कृत द्वितीय रजतरंगिणी में शारदापीठ का जिक्र सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल के रूप में हुआ है। 16 वीं शताब्दी में अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल की आइन-ए-अकबरी में भी शारदा पीठ का जिक्र है।

शारदा पीठ का महत्व

शारदा पीठ कश्मीरी पंडितों की आस्था का प्रमुख केंद्र रहा है, यह कश्मीर में शाक्तमत के सुप्रसिद्ध केंद्रों में से एक है, शारदा पीठ को 18 महाशक्ति पीठ में से एक माना जाता है। रजतरंगिणी को आधार माने तो यह माना जा सकता है, बतौर तीर्थ इसका विकास 8 वीं शताब्दी से पहले ही हो गया था। शक्तिपीठ के साथ ही यह बहुत बड़ा विद्या का केंद्र था, जिसमें बहुत बड़ा पुस्तकालय भी था, जिसके खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं। यहाँ अध्ययन के लिए लोग दूर-दूर से आते थे। पश्चिमोत्तर प्रांतों में (पंजाब,कश्मीर) लेखन के लिए सिद्ध-मात्रिक नाम की एक लिपि का प्रयोग किया जाता था, शारदा पीठ या शारदा मंडल में प्रयोग के कारण इस लिपि की प्रसिद्धि पूरे देशभर में हो गई, जिसके बाद इसे शारदा लिपि कहा जाने लगा, पंजाब के क्षेत्र में प्रयोग की जाने वाली “गुरुमुखी” का विकास शारदा लिपि से ही हुआ है। कश्मीर प्राचीन समय से ही शैव्य और शाक्त परंपरा का देश रहा है, शारदा पीठ में शंकराचार्य और रामानुज दोनों विद्वानों के जाने का जिक्र है, इसीलिए यह माना जा सकता है, इसकी प्रसिद्धि देशभर में थी।

शारदा पीठ की स्थिति

इतिहास में शारदा पीठ को कई बार क्षति उठानी पड़ी, जिसका मुख्यतः कारण भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ थीं, इसके अलावा इसे कई बार आक्रमणों के दौरान भी क्षति पहुंची, मुग़ल और अफ़गानों के समय नीलम वैली में एक बंबा ट्राइब नाम की मुस्लिम डाइनस्टी रूल किया करती थी, जिसके समय में यहाँ के खस्ताहाल थे, लेकिन 19 वीं शताब्दी में जब यहाँ डोगरा राजपूतों का शासन आया, उन्होंने इस मंदिर का पुनः सांस्कृतिक पुनर्निर्माण किया, लेकिन 1947 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के समय हुए काबाइली आक्रमणों के बाद यह पाकिस्तान के कब्जे में चला गया, तब से यह पीओके में ही है, और बहुत ही खस्ताहाल में है, लेकिन समय-समय पर इसे हिंदुओं के लिए फिर से शुरू होने की बात होती रहती है।

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