Saheb Salam | बघेलखंड में क्यों कहते हैं “साहब सलाम”

Saheb Salam Ka Itihas Hindi Mein: देशभर में विभिन्न भाषाओं में और विभिन्न संप्रदायों में अभिवादन के लिए, भिन्न-भिन्न शब्द प्रचलित हैं। जैसे- “नमस्ते, आदाब, सतश्रीकाल, वडक्कम” इत्यादि, लेकिन उत्तर भारत में अभिवादन के लिए सर्वाधिक प्रचलित है राम-राम और राम जी से ही संबंधित अन्य अभिवादन। हमारे विंध्य और बघेलखंड में भी, अभिवादन के लिए जय राम जी की, अत्यंत प्रसिद्ध है। लेकिन इसके साथ ही प्रचलित है ये अनोखा अभिवादन “साहब सलाम”।

कहाँ से आया साहब सलाम

साहब सलाम को साधारण तय पढ़ने से प्रतीत होता है, यहाँ किसी साहब को सलाम किया जा रहा है, इसीलिए कई लोग भ्रमवश, इस सम्बोधन को सामंतवाद का प्रतीक मानते हैं, लेकिन आपकों ये जानकर आश्चर्य होगा कि ये तो विशुद्ध अध्यात्म का प्रतीक है और वास्तविकता में इसका अर्थ बहुत गूढ़ है। इसी तरह फारसी से आए सलाम शब्द के कारण लोग कई लोग इसे इस्लाम से जोड़ते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को भारतीय इतिहास और संस्कृति का ज्ञान नहीं है, क्योंकि भारत और फ़ारस के संबंध इस्लामिक युग के पहले से हैं। तो आइए जानते हैं, “साहब सलाम” शब्द का अर्थ और उसके इतिहास के बारे में।

देश में इस्लामिक शासन आने के बाद, भारत में कई धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक बदलाव हुए। दरअसल यहाँ की सामान्य हिंदू जनता मुस्लिम शासकों के अत्याचारों और हिंदुओं में प्रचलित जातिप्रथा, भेदभाव और कर्मकांडों से त्रस्त थी। हिंदू समाज की इसी दयनीय स्थिति का फायदा मिला इस्लामिक सूफीवाद को, जो देश में उस समय फल-फूल रहा था, उसके एकेश्वरवाद के सिद्धांत ने यहाँ के लोगों को कुछ प्रभावित किया, इसके साथ ही दक्षिण से उठने वाली ईश्वर की सगुन उपासना भी धीरे-धीरे उत्तरभारत को प्रभावित कर रही थी, जिसके बाद देशभर में एक भक्ति आंदोलन उठ खड़ा हुआ और कई संतों का उदय हुआ। इसमें प्रमुख थे रैदास, नानक, कबीर, तुलसी, मीरा और जायसी। कबीर निर्गुण भक्ति के उपासक थे और उनकी बानियाँ और साखियाँ प्रसिद्ध है। कबीर के जन्म, जीवन और उनके समय के बारे में हमारे पास ज्यादा तथ्यपूर्ण जानकारियाँ नहीं हैं, सिवाय इस बात के, कि वह काशी के जुलाहे थे, लेकिन कबीर ने अपने समय को अत्यंत प्रभावित किया था, इसमें कोई दो राय नहीं। उनसे प्रभावित होने वालों में रंक से लेकर राजा सब शामिल थे।

कबीर के शिष्य से आई थी परंपरा

कबीर से प्रभावित होने वाले एक ऐसे ही व्यक्ति थे, सेठ धर्मदास, जो मान्यताओं के अनुसार कबीर के शिष्य थे, हालांकि वह कबीर के शिष्य थे पुख्ता तौर पर ये नहीं कहा जा सकता है, लेकिन वह प्रभावित कबीर से ही थे, यह सत्य है। बाद की कथाओं के अनुसार सेठ धर्मदास बांधवगढ़ के धनी वैश्य परिवार से ताल्लुक रखते थे, लेकिन कबीर की शिक्षाओं से प्रभावित होकर उन्होंने उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया,और कबीर परंपरा को घूम-घूम कर प्रचारित करने लगे। कबीर के देहांत के बाद कबीर की गद्दी के उत्तराधिकारी सेठ धर्मदास ही रहे हैं। बांधवगढ़ पर उस समय बघेलावंश के राजा वीरभानु का शासन था, जो धर्मदास के समकालीन थे। कहा जाता है महाराज वीरभानु भी कबीर से प्रभावित रहे हैं, उन्होंने मगहर में उनकी समाधि का भी निर्माण करवाया था।

कैसे शुरू हुआ साहब सलाम

कथा है एक बार महात्मा धर्मदास भ्रमण करते हुए बांधवगढ़ पधारे, महाराज वीरभानु अपने दरबार में सामंतों सहित बैठे थे, सेठ धर्मदास ने उनको देखते ही, दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा “साहब सलाम”, यह सुनकर महाराज भौंचक रह गए और गद्दी से उठकर महात्मा धर्मदास से बोले, आप मुझे लज्जित ना करें, आप एक संत हैं और मैं एक राजा, आप ने मुझे साहब कहकर सलाम बोला, यह सही नहीं है. प्रणाम मुझे आपको कहना चाहिए।

कबीर परंपरा से आया साहब सलाम

संत धर्मदास मुस्कुराते हुए बोले, महाराज आप गलत समझ रहे हैं, सलाम मैंने आपको नहीं, आपके अंदर बैठे साहब अर्थात ईश्वर को किया है। हमारे सद्गुरु कबीर भी ईश्वर को साहब कहते थे। महाराज वीरभानु अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसी समय दरबार में यह घोषणा की, हम सभी लोग एक-दूसरे का अभिवादन अब से साहब-सलाम कहकर करेंगे। तभी से यहाँ साहब सलाम की एक परंपरा चल निकली जो अभी तक चल रही है। दरसल कबीरपंथी अभी भी जब कभी एक-दूसरे से मिलते हैं, तो एक-दूसरे को अभिवादन स्वरूप साहब बंदगी कहते हैं। तो यह उसी की ही तरह है साहब-सलाम। हालांकि कुछ लोग इस कथा को महाराज वीरभानु के पुत्र महाराज रामचंद्र से भी जोड़ते हैं। बाद में कबीर परंपरा के लोगों द्वारा बांधवगढ़ और रीवा में कबीर गद्दी की स्थापना भी की गई थी।

महाराज विश्वनाथ सिंह ने लिखी कबीर पर टीका

हालांकि रीवा के बघेला नरेश सगुण ईश्वर के उपासक थे, लेकिन फिर भी उन्होंने निर्गुण ईश्वर के मत को साथ में स्वीकार किया। जैसा हमने पहले भी बताया था, मगहर में कबीर के समाधि स्थल का निर्माण रीवा के बघेला राजाओं ने ही करवाया था। हालांकि महाराज विश्वनाथ सिंह और उनके पुत्र रघुराज सिंह के समय में यहाँ वैष्णव धर्म ने अत्यंत जोर पकड़ा और दरबार में शायद साहब सलाम की प्रथा खत्म हो गई, लेकिन लोकमानस में यह परंपरा अभी विद्यमान है। मुख्यतः यहाँ के ठाकुर समुदाय में एक-दूसरे से मिलने पर साहब-सलाम का ही अभिवादन किया जाता है। हालांकि महाराज विश्वनाथ सिंह परम रामोपासक थे, लेकिन उन्होंने कबीर के बीजक पर ‘पाखंडखंडिनी टीका’ लिखी, जो अपने आप में अनुपम ग्रंथ है और महाराज व्यंकट रमण सिंह के समय प्रकाशित हुई थी।

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