रीवा का इतिहास भाग- 2 | रीवा के नामकरण की कहानी

Rewa Ke Naam Ka Itihas Hindi Mein: पिछले लेख में हमने रीवा नगर के बसने की कहानी देखी थी। आज बात करते हैं उस सवाल पर, जो हर इतिहास-प्रेमी को रोमांचित करता है, रीवा का नाम आखिर कैसे पड़ा? क्या वाकई जैसे कि आजकल माना जाता है, इसका संबंध नर्मदा नदी से है? या इसके पीछे छुपी है कोई पुरानी स्मृति, या कोई भूली हुई पहचान? तो आइए आज विश्लेषण करते हैं, रीवा के नामकरण के बारे में।

क्या रीवा का नाम नर्मदा के कारण पड़ा

आज सबसे प्रचलित मान्यता है कि रीवा का नाम नर्मदा नदी के कारण पड़ा। पुराणों में नर्मदा को “रेवा” कहा गया है।
लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि रेवा अर्थात नर्मदा, रीवा रियासत के दक्षिणी छोर अमरकंटक से निकलती हुए एक पतली सी जलधारा के रूप में केवल 40 किलोमीटर बहती थी। तो क्या सिर्फ इतना सा संबंध, किसी शहर का नाम तय करने के लिए काफी है?

भाषाओं के कारण बदलता रहा रीमाँ का नाम

इतिहास की ओर अगर नजर डालें तो पता चलता है कि बघेला राजा विक्रमादित्य के आगमन से पहले भी, इस क्षेत्र को “रीमाँ” या “रीमाँ मंडी” कहा जाता था। इसकी पुष्टि फारसी ग्रंथों से भी होती है कि राजा विक्रमादित्य को बांधवगढ़ के उत्तरी क्षेत्रों में रीमाँ-मुकुंदपुर नाम की जागीर मिली थी, तो यह तो तय है कि इसका नामकरण उन्होंने नहीं किया था। फारसी ग्रंथों में “रीमाँ” को “रीवां” कहा गया। जब अंग्रेज यहाँ आए, तो उस दौर में फारसी ही भारत की राजकाज की भाषा हुआ करती थी, अंग्रेजों ने फारसी के रीवां को अंग्रेज़ी में लिखा Rewa, अब चूंकि भारतीय भाषाओं के शब्दों में कई बार स्वर होते हैं, जबकि अंग्रेजी भाषा में ऐसा नहीं होता, इसीलिए अंग्रेजी भाषा के वक्ताओं को कई बार शब्द उच्चारित करने में मुश्किल होता था, इसीलिए उन्होंने इसे रेवा उच्चारित किया। इसीलिए रेवा शब्द ब्रिटिशकाल में चलन में आया।

सती लेखों में रीमाँ

जबकि रीवा के सुप्रसिद्ध विद्वान कुंवर रविरंजन सिंह की किताब “रीवा तब और अब” के अनुसार रीमाँ शब्द पहले से भी प्रचलित रहा है और मध्यकालीन कुछ सती लेखों में आया है। इसके अलावा हम सबने अपने घर के बुजुर्गों और सयानों को अभी भी रीवा की जगह रीमां कहते ही सुना होगा।
कुछ विद्वानों का मानना है कि रीवा शब्द का मूल “रेवापत्तला” या “रेवापत्तन” से है, “पत्तन” या “पत्तला” पूर्वमध्यकाल में एक प्रशासनिक इकाई हुआ करती थी, उदाहरणस्वरूप जैसे आज के जिले। एक पत्तन के अंदर 10, 20, 50 या 100 ग्रामों के समूह होते थे। कल्चुरियों के अभिलेखों में रेवापत्तला, जाऊलीपत्तला, धनवाहीपत्तल और नवपत्तल समेत कई पत्तनों का जिक्र आया है। लेकिन दिक्कत यह है, रेवापत्तला कहाँ था, यह अभिलेख हमें स्पष्ट तौर पर नहीं बताते हैं।

गुरगी-रेहुँता का ऐतिहासिक महत्व

तो आखिर रीमाँ शब्द की व्युत्पत्ति हुई कैसे? यह सवाल तो अनसुलझा ही रहा। तो आइए हम चलते हैं रीवा पठार के प्राचीन नगर गुरगी की ओर, जो आज के रीवा शहर से लगभग बीस किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में है। यहाँ आज भी एक दुर्ग के अवशेष मिलते हैं, जिसे रेउता, रेहुता या रेहुँता कहा जाता है। कहा जाता है कि 11वीं शताब्दी में त्रिपुरी के कल्चुरि वंश के राजा लक्ष्मीकर्ण ने यहाँ दुर्ग का निर्माण करवाया था, क्योंकि प्रतिहारों के पतन के बाद कल्चुरि शासक त्रिपुरी के साथ ही प्रयाग और काशी के क्षेत्रों में भी शासन किया करते थे। राजा लक्ष्मीकर्ण को शत समरवीर माना जाता है, उसने प्रयाग के पूर्व दिशा की तरफ मगध और गौड़ में पाल शासकों के विरुद्ध भी कई सैनिक अभियान किए थे। इसीलिए रीवा पठार का यह क्षेत्र रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण था और त्रिपुरी, काशी और प्रयाग के एकदम मध्य में स्थित था।

कनिंघम ने भी की थी गुरगी की यात्रा


इसके साथ ही हमें एक और बात भी पता चलती है, सुप्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ने गुरगी की यात्रा की थी और यहाँ के स्थापत्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। अपनी किताब “रिपोर्ट ऑफ ए टूर इन बुंदेलखंड एंड रीवा” में वह एक और भी बहुत ही महत्वपूर्ण बात लिखते हैं- इस नगर के पास ही महसांव में पान के बरेज हैं, जहाँ पान की खेती होती है। पुराने समय के सभी बड़े हिंदू नगर अपनी पान के बगीचों के लिए प्रसिद्ध रहें हैं, पूर्वमध्यकाल में भारत का सबसे बड़ा नगर कन्नौज इसका उदाहरण है। इसके साथ ही कनिंघम बताते हैं इस क्षेत्र में बहुत सारे तालाब हैं, जंगल हैं और साथ ही साथ अत्यंत उपजाऊ जमीन भी है, जहाँ खूब खेती की जाती है। इसिलिए रणनीतिक के साथ-साथ इस क्षेत्र का आर्थिक महत्व भी था।

रेहुँता से रीमां


तो बहुत संभावना है, कि रीमा शब्द के व्युत्पत्ति के पीछे इस रेहुँता नाम के दुर्ग की याद है। संस्कृत में रेवा शब्द का अर्थ केवल नर्मदा नदी से नहीं है। बल्कि रेवा का अर्थ तो उस चंचल जलधारा से भी है जो सदैव बहती रहे। इस रेहुँता दुर्ग से करीब 1 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पूर्व दिशा पर ही बिछिया नदी बहती है, इसीलिए बहुत संभव है कि बिछिया नदी को ही रेवा कहा गया होगा, और उसके पास के क्षेत्र को रेवापत्तला। यही रेवापत्तला या रेवापत्तन ही जनजातियों की देशज भाषा में रेहुँता और फिर रीमाँ हो गया।

इस बात की संभावना इसलिए भी है कि कल्चुरि और चंदेल राजाओं के पतन के बाद यह क्षेत्र नो मेंस लैंड जैसा हो गया, यानि की किसी भी राजा का शासन यहाँ नहीं था। गहोरा और बांधवगढ़ पर शासन कर रहे, बघेला राजाओं की नजर भी इस क्षेत्र में बहुत देर से पड़ी। इसलिए वक्त के साथ ही लोगों की याद से रेवापत्तन का विस्मृत हो जाना और अपभ्रंश के रूप में रेहुँता या रीमाँ को याद रखना कोई आश्चर्य नहीं है।

रीमां से रीवा की यात्रा

इसीलिए शब्दों की इस यात्रा में रेवापत्तन से बना रेहुँता, और रेहुँता ही देशज भाषा में हुआ रीमां, आगे चलकर रीमां फारसी में बन गया रीवां और अंग्रेजी में इसे लिखा गया रेवा और फिर धीरे-धीरे हो गया रीवा। तो रीवा के नामकरण की यात्रा कोई एक सीधी रेखा नहीं है, बल्कि वह तो यहाँ के इतिहास, भूगोल, भाषा और संस्कृति की मिली-जुली कहानी है और इसी में बसी है हमारे रीवा की असली पहचान।

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