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रीवा का इतिहास भाग-1 | रीवा शहर के बसने की कहानी

Rewa Ka Itihas Hindi Mein: समय अपनी गति से अनवरत चलता रहता है, वह किसी के लिए नहीं रुकता है। समय के निरंतर चलने का ही साक्षी होता है इतिहास। इतिहास जो हमारे अतीत से हमें रुबरु करवाता है। तो इतिहास में आज बात इक नगर के बसने की, जिसे रीवा कहा जाता है। रीवा जो आज मध्यप्रदेश के सबसे तेजी से उभरते हुए शहरों में से एक है। ऊंची-ऊंची बिल्डिंग्स, चौड़ी सड़कें, एयरपोर्ट और फ्लाईओवर आज इस शहर के विकास में चार चांद लगा रहे हैं। लेकिन क्या आप को पता है 500 साल पहले रीवा कैसा था? यह कब बसा और इसे किसने बसाया, तो आइए चलते हैं रीवा के इतिहास की यात्रा पर।

रीवा शहर को बसाने का श्रेय दिया जाता है बघेला वंश के 22वें राजा विक्रमादित्य को, जिन्होंने रीवा को 1618 में अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। उससे पहले बघेला राजाओं की राजधानी बांधवगढ़ और गहोरा थी। राजा विक्रमादित्य के रीवा आने से पहले ही लमानों की यहाँ बीहर, बिछिया और झिरिया नदी के बीच इस क्षेत्र में बसाहट थी और इसे रीमाँमंडी के नाम से जाना जाता था।

मध्यकाल में रीवा क्षेत्र की भू-राजनैतिक स्थिति

मध्यकाल में आज के पूरे रीवापठार क्षेत्र में कोई भी नगर या गढ़ नहीं थे। इसका कारण था देश में तुर्कों का आगमन, हिंदू राजे-रजवाड़े सुरक्षात्मक और रणनीतिक कारणों से ऊंचे पहाड़ियों में बने दुर्गों में रहा करते थे। इसीलिए उस समय यहाँ पूरे क्षेत्र में किसी बड़े नगर की बसाहट नहीं मिलती है। बल्कि कालिंजर, चुनार और बांधवगढ़ इत्यादि बड़े और सुदृढ़ दुर्ग मिलते हैं। हालांकि ऐसा नहीं था नगर यहाँ नहीं बसे थे, रीवा से 15-20 किलोमीटर दूर पूर्व दिशा पर स्थित गुरगी में प्राचीन नगर के अवशेष प्राप्त होते हैं। लेकिन वह कल्चुरि युग की बात है।

पठार में स्थित यह रीवा नगर का क्षेत्र लगभग 500 साल पहले प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर था, दूर-दूर तक फैले घास के मैदान और वन प्रांतर यहाँ फैले थे। जिनमें महुआ, जामुन, छिउला, पलाश और अमलताश के सदाबहार वृक्ष लहराते रहते थे, तब इन क्षेत्रों में ज्यादातर कोल जनजाति के लोग ही रहते थे। जो शिकार, कृषि और वनोपज पर आश्रित थे।

रीवा क्षेत्र में लमानों का आना

उस समय नमक बड़ी कीमती और दुर्लभ वस्तु मानी जाती थी, राजा हो या रंक नमक किसी के लिए सुलभ नहीं था। नमक जिसे संस्कृत में लवण और देशज भाषाओं में लोन या नोन कहा जाता है। इसका व्यापार लमाना जाति के लोग किया करते थे। जो सिंध, राजपुताना और गुजरात से नमक लाते थे और इन क्षेत्रों में बेचते थे। बेचने से तात्पर्य केवल पैसे से बस बेचना नहीं है, बल्कि प्राचीन समय में प्रचलित विपरण प्रणाली से है। जिसमें नगद पैसे की जगह वस्तुओं का विनिमय होता था।

लमानों के लिए उपयुक्त था यह क्षेत्र

इन्हीं लंबी-लंबी यात्राओं के दौरान लमाने जब इन क्षेत्रों में आते तो तीन नदियों के मध्य स्थित इस भूमि पर ठहरते और सुस्ताते थे। यह रीवा का क्षेत्र तब बिहार-बिछिया और झिरिया नदियों के जलधारा से विप्लित रहता था। घाँस के मैदान और ऊंचे छायादार वृक्षों से यह क्षेत्र आच्छादित रहता था। लमानों के लिए यह क्षेत्र उपयुक्त था क्योंकि जानवरों के लिए यहाँ घाँस, छाया और पानी खूब था। तीन नादियों के द्वीप नुमा भूमि पर स्थित होने के कारण यह सुरक्षित भी था और आस-पास के जनजातीय लोगों से अनाज और वनोपज की चीजें भी मिल जाती थीं। इसीलिए लमाने यहाँ जो एक बार रुके, तो रुकते ही गए। चूंकि लमाना घुमक्कड़ प्रवृत्ति के लोग थे, देशभर में भ्रमण और देसावरी करते रहते थे। इसीलिए वह धीरे-धीरे नमक के साथ ही देशभर से और भी कई चीजें लाते और यहाँ से अनाज और वनोपज की चीजें ले जाते। लमानों के आने-जाने के कारण नमक और गुड़ जैसी चीजों के जरूरत की चीजें लेने के लिए यहाँ लोग आने लगे और धीरे-धीरे इसने छोटी सी बजारिया का रूप धारण कर लिया और नमक और गुड़ की मंडी के रूप में प्रसिद्ध हो गया और इसे रीमाँ मंडी के नाम से जाना जाने लगा।

मड़फा बनाते थे लमाने

रीवा के प्रसिद्ध विद्वान कुंवर रविरंजन सिंह की किताब ‘रीवा तब और अब’ के अनुसार, “यायावर प्रकृति के लमानों ने धीरे-धीरे यहाँ अपने लिए आवास और अपने देवताओं के लिए देवालय बनवाना भी शुरू कर दिया। लमानों द्वारा निर्मित देवालय दो मंजिला हुआ करते थे, जिन्हें मड़फा कहा जाता था। लेकिन लमानें देवालयों की दूसरी मंजिल में जाने के लिए सीढ़ियाँ नहीं बनवाते थे। क्योंकि लमाने यहाँ गुप्तशब्द युक्त बीजक छुपा कर रखते थे। बीजक में अंकित हुआ करते थे उनके खजानों के नक्शे, जिन तक पहुँचने के लिए इन बीजकों को सुलझाना पड़ता था। रीवा के सुप्रसिद्ध महामृत्युंजय शिवलिंग की स्थापना भी इन्हीं लमानों ने मड़फा बना के की थी, बाद में राजा भाव सिंह के जमाने में गुंबदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया गया था।

अफ़गान-मुग़ल संघर्ष में बघेलों की भूमिका

1539-40 की बात है मुग़ल बादशाह हुमायूँ और अफ़गान शेरशाह सूरी के मध्य बिहार के बक्सर के निकट चौसा के मैदानों में संघर्ष हो रहा था। जिसमें अफगानों ने मुग़लों को करारी शिकस्त दी, मुग़ल बादशाह हुमायूँ अपनी जान बचाने के लिए बढ़ी हुई गंगा नदी में कूद गया और एक भिश्ती की मदद से अपनी जान बचा सका। लेकिन शेरशाह सूरी की सेना हुमायूँ के पीछे पड़ी ही रहीं, तब भागते हुए हुमायूँ की मदद की गहोरा के बघेला राजा वीरभानु ने, उन्होंने गंगा पार करने के लिए नावों का इंतजाम करवाया, खाने-पीने का प्रबंध किया गया और आगे की यात्रा के लिए घोड़े भी उपलब्ध करवाए। इसकी पुष्टि गुलबदन बेगम कृति हुमायूँनामा से भी होती है।

शेरशाह सूरी द्वारा गहोरा के राजा वीरभानु की घेराबंदी

चूंकि राजा वीरभानु ने चौसा के युद्ध से भाग रहे हुमायूँ को अरैल घाट में गंगा नदी पार करने में मदद की थी और उसे उसके परिवार के साथ उसे शरण भी दी थी। इसीलिए वीरभानु से खार खाए शेरशाह ने दिल्ली में खुद स्थापित करने, हुमायूँ को फारस खदेड़ने और मारवाड़ के राजा मालदेव को पराजित करने के बाद वह गहोरा की तरफ बढ़ा। गहोरा में खुद को असुरक्षित जानकर वीरभानु ने निकट ही चंदेलों के अजेय दुर्ग कालिंजर में शरण ली। लेकिन शेरशाह ने वहाँ भी वीरभानु का पीछा ना छोड़ा, कालिंजर पर भी शेरशाह की आक्रमण का जान वीरभानु अपने परिवार सहित सुदूर दक्षिण स्थित बांधवगढ़ के दुर्ग में चले गए। वीरभानु को आश्रय देने वाले चंदेल राजा कीर्तिसिंह के विरुद्ध कालिंजर पर घेरा डालने के बाद, उसने अपने पुत्र सलीमशाह को बघेल राजा का दमन करने के लिए भेजा।

इस्लामशाह सूरी द्वारा बीहर-बिछिया के तट पर किले की नींव रखना

कालिंजर से चलकर सलीमशाह रीवा पठार के क्षेत्रों में आया। यहाँ पर उसे रीमा मंडी के बारे में पता चला, जहाँ लमानों और अन्य व्यापारियों ने पठार के मध्य में होने, नदियों द्वारा सुरक्षित होने के कारण इसे विपरण केंद्र बना रखा था। चूंकि यह स्थान बघेलों के दोनों नगरों बांधवगढ़ और गहोरा के मध्य स्थित था, इसीलिए सलीमशाह ने इस स्थान को उपयुक्त जान एक गढ़ी का निर्माण करवाया और यहीं रहने लगा। इसी बीच कलिंजर में एक दुर्घटना घटी, जिसके बाद शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु का सुनकर सलीम शाह दिल्ली की तरफ चला गया और इस्लाम शाह नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। और वह फिर कभी लौट कर नहीं आया। यहाँ पर पहले की ही तरह लमाने और व्यापारी आते रहे और मंडी चलती रही, लेकिन फिर भी स्थायी निवास किसी ने नहीं बनाया।

बघेला राजाओं के राजनैतिक अस्थिरता का दौर

अब इधर इस घटना के कुछ 50 साल बीते होंगे यहाँ पर बघेला वंश के राजा रामचन्द्र शासन कर रहे थे, लेकिन 1592 में राजा रामचंद्र की बांधवगढ़ में मृत्यु हो गई। युवराज वीरभद्र तब मुग़ल राजधानी फतेहपुर सीकरी में थे। पिता की मृत्यु का समाचार सुन वीरभद्र वहाँ से बांधवगढ़ की तरफ चले। लेकिन रास्ते में ही बरौंधा के पास सोन नदी को पार करते समय उनकी पालकी टूट गई, जिसके कारण उन्हें बहुत ही गंभीर चोटें आईं। बांधवगढ़ पहुँच कर उन्होंने किसी तरह राज-काज संभाला लेकिन चोटें घातक थी, इसीलिए 1593 में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के समय उनके दो पुत्र थे। पहले थे विक्रमादित्य या विक्रमाजीत जिनका जन्म बीकानेर वाली राठौरिन रानी से हुआ था। जबकि दूसरे थे जुरजोधन या दुर्योधन जिनका जन्म राजा वीरभद्र की भितरहाई एक मुसलमान स्त्री से हुआ था। दुर्योधन, विक्रमादित्य से बड़े थे। लेकिन हिन्दुओं के धार्मिक नियमों के अनुसार राजा के वैध संतान नहीं थे। लेकिन कुछ लोग फिर भी स्वार्थवश उन्हें राजा बनाना चाहते थे।

मुग़लों द्वारा बांधवगढ़ दुर्ग की घेराबंदी

इसीलिए राजपूत सरदारों ने जल्दी से राज्य के बुजुर्ग और संरक्षक यमुनीभान के नेतृत्व में विक्रमादित्य को अपना राजा घोषित कर दिया। लेकिन उस समय के नियमों के अनुसार राजा बनने से पहले बादशाह की अनुमति लेना आवश्यक होता था, जो नहीं ली गई थी। इसीलिए मुग़ल बादशाह अकबर ने इस कृत्य को बघेलों का विद्रोह मानते हुए, त्रिपुरदास खत्री जिसका नाम कहीं-कहीं पात्रदास भी मिलता है, उसके नेतृत्व में एक फौज बांधवगढ़ अभियान पर भेजी। त्रिपुरदास ने बांधवगढ़ दुर्ग की घेराबंदी डाल दी और 8 माह 5 दिनों के बाद यह दुर्ग मुग़लों के अधिकार में हो गया। अकबर ने इस्माइल खान नाम के एक मुग़ल सरदार को बांधवगढ़ भेज कर विक्रमादित्य को फतेहपुर बुलवा लिया और त्रिपुरदास खत्री को बांधवगढ़ का प्रशासक नियुक्त कर दिया। फतेहपुर में रहते हुए विक्रमादित्य को बंधन में महसूस करते, इसीलिए वह वहाँ से निकल भागे, जिसके कारण उन्हें मुग़लों द्वारा बागी घोषित कर दिया गया। अकबर को जाने क्या सूझी उसने 1602 में दुर्योधन को बांधवगढ़ का राजा बना दिया।

राजा विक्रमादित्य को रीवां-मुकुंदपुर की जागीर मिलना

लेकिन जैसा कि राजपूतों और हिंदुओं में प्रथा थी, विजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को राजा नहीं माना जाता था, इसीलिए दुर्योधन को भी यहाँ राजा नहीं माना गया, जिसके बाद फिर से मुग़लों का प्रशासन बांधवगढ़ में स्थापित हो गया और दुर्योधन उधर सिकरी में ही बस गए। इधर 1605 में अकबर के देहांत के बाद जहांगीर बादशाह बने, विक्रमादित्य चूंकि बीकानेर के भांजे थे और उनका ब्याह आमेर के मिर्जा राजा मान सिंह की लड़की से हुआ था, इसीलिए उनकी सिफारिशों पर विक्रमादित्य को बांधवगढ़ तो नहीं दिया गया। लेकिन उत्तरी क्षेत्रों में स्थित रीमा-मुकुंदपुर की 18 परगनों की जागीर दे दी गई। बहुत संभव था विक्रमादित्य ने मुकुंदपुर को अपने निवास के लिए चुना, इसकी पुष्टि राजस्थानी भाषा के कतिपय ग्रंथों से भी होती है।

राजा विक्रमादित्य का विद्रोह

फतेहपुर से आने के बाद विक्रमादित्य ने मुकुंदपुर को अपना निवास बनाया। लेकिन उनके मन में बांधवगढ़ का राज्य ना मिलना और हमेशा मन में सालता रहता था। इसीलिए उन्होंने बांधवगढ़ पर अधिकार करने का निश्चय किया और बांधवगढ़ पर चढ़ाई कर दी। विक्रमादित्य के विद्रोह की खबर जब जहांगीर को लगी, तो उसने महा सिंह कछवाहा को विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। महा सिंह बांधवगढ़ पर कब्जे में सफल रहे, जिसके बाद जहांगीर ने विक्रमादित्य की रीमाँ-मुकुंदपुर की जागीर, महा सिंह कछवाहा को दे दी।

राजा विक्रमादित्य द्वारा रीवा को राजधानी बनाना

लेकिन कुछ समय बाद विक्रमादित्य शहजादे खुर्रम के माध्यम से मुग़ल दरबार में उपस्थित हुए, जिसके बाद रीमा-मुकुंदपुर की जागीर फिर से विक्रमादित्य को दे दी गई। इस बात की पुष्टि जहांगीर द्वारा रचित तुजुक-ए-जहांगीरी से भी होती है, जिसमें जहांगीर ने लिखा है- “आज रीवां का राजा आया और उसका कसूर माफ हुआ”, यह बात है 1617 की। रीमाँ-मुकुंदपुर जागीर को फिर से प्राप्त कर लेने के बाद विक्रमादित्य ने इस मुकुंदपुर की जगह रीवा को अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया। रीवा जो तब रीमाँ मंडी के नाम से जाना जाता था।

रीवा शहर की बसाहट प्रारंभ हुई

जैसे कि हम पहले भी बता चुके है शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह ने यहाँ एक किले की नींव डाली थी और कुछ माह रहा भी था। लेकिन इस बात को लगभग 60 साल बीत चुके थे। रीवा तब रीमाँ मंडी के नाम का एक संरक्षित गाँव था। विक्रमादित्य ने सलीमशाह द्वारा तामीर करवाई गई गढ़ी को विस्तृत करवाया और अपने निवास के लिए बनवाया। सुरक्षा की दृष्टि से पूर्व और उत्तर दिशा की तरफ परकोटे का निर्माण करवाया गया। उनके साथ आए हुए लोगों ने भी परकोटे के आस-पास अपने निवास के लिए स्थान बनाया, जिसके कारण इस मंडी ने एक नगर का रूप धरना प्रारंभ कर दिया। इस तरह बहुत सालों बाद इतिहास में पहली बार रीवा स्थायी तौर पर बसा। जिसे बसाये जाने का श्रेय राजा विक्रमादित्य को जाता है।

इसीलिए यह कहा जा सकता है, इस रीवा नाम की स्थान की खोज की घुमक्कड़ लमानों ने, जबकि यहाँ किले की नींव डाली इस्लामशाह ने और फिर 1618 में राजा विक्रमादित्य ने किले का विस्तार करवाया, लोगों को बसाया। जिसके बाद ही रीवा ने एक नगर का स्वरूप लेना प्रारंभ किया।

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