History of Modern Calendar In Hindi | साल 2024 खत्म होने को है, कुछ ही दिनों में वर्ष 2025 लग जाएगा। दुनिया भर में नए साल की शुरुआत होने वाली है, 25 दिसंबर को क्रिसमस और 31 दिसंबर की रात 12 बजे के बाद 1 जनवरी के दिन से नए वर्ष की औपचारिक शुरुआत हो जाएगी। दुनिया भर में इस दिन का स्वागत हर्षोल्लास के साथ किया जाता है।
हमारे देश में भी नववर्ष के स्वागत के लिए कई जगह सार्वजिक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। लेकिन हमारे यहाँ भारत के सोशल मीडिया में हर वर्ष, वही पुरानी और अंतहीन बहस चालू हो जाती है, कुछ लोगों के अनुसार यह नववर्ष हम भारतीयों का नहीं है।
उनके अनुसार यह अंग्रेजों का नववर्ष है। भारतीयों का नववर्ष तो चैत्र महीने शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को होता है। लेकिन आज भारत समेत विश्वभर में ग्रेगोरियन (जूलियन) कैलेंडर ही बहुतायत में प्रयोग किया जाता है।
इसका कारण जानने के लिए हम इसका इसके संक्षिप्त इतिहास इतिहास को देखते हैं –
दुनिया भर में गणना के लिए विभिन्न कैलेंडर प्रयोग किये जाते रहे हैं। विद्वानों के अनुसार भारत में तो लगभग 36 तरह के सम्वत प्रयोग किये जाते थे। जिनमें शक सम्वत और विक्रम सम्वत प्रमुख है। हालांकि अब ये ज्यादातर चलन से बाहर हो चुके हैं।
तुर्क और मुगलकाल में हिजरी सम्वत भी उपयोग किया जाता था। हालांकि अभी भी हिंदू विक्रम सम्वत के अनुसार और पूरे विश्व भर के मुस्लिम हिजरी सम्वत के अनुसार ही अपने त्यौहार मनाते हैं।
आज़ाद भारत में शक सम्वत को ज्यादा सटीक मानते हुए उसे अपना राष्ट्र्रीय पंचांग माना गया है। लेकिन आज विश्वभर में जो कैलेंडर सर्वाधिक प्रयोग हो रहा है, और गणना का मानक है वह ग्रेगोरियन कैलेंडर है।
1582ईस्वी में पोप ग्रेगरी 13वें ने यूरोप में प्रचलित प्राचीन जूलियन कैलेंडर को मॉडिफाई करके एक नए कैलेंडर को बनाया था, पॉप ग्रेगरी के नाम से ही इसे ग्रेगोरियन कैलेंडर कहा जाता है। यह कैलेंडर 12 महीने और 365 दिन का होता है, जिसमें प्रत्येक चार साल बाद एक लीप वर्ष आता है।
Mauganj में फिर अड़े BJP विधायक, भारी पुलिस बल के बीच तीन घरों को प्रशासन ने कराया खाली, जानिए पूरी घटना
पहले जूलियन कैलेंडर 10 महीने का होता था। लेकिन रोम के एक शासक नुमा पॉलियस ने इसे संशोधित किया और दो महीने जनवरी और फरवरी इसमें जोड़े। पहले फरवरी 12वां महीना माना जाता था। लेकिन जूलियस सीजर ने इसे संशोधित कर जनवरी को पहला महीना घोषित कर दिया।
इस कैलेंडर के पहले महीने जनवरी का नाम प्राचीन रोमन सभ्यता के एक दो मुहँ वाले पौराणिक पात्र जनुस पर रखा गया था। यह प्रारंभ का देवता माना जाता था और प्राचीन रोम निवासी इसकी प्रतिमा अपने घर के प्रवेश द्वार पर लगाते थे। जनवरी को पहला महीना बनाने के पीछे भी यही अवधारणा थी।
जूलियन गणना के अनुसार सौर वर्ष 364 1/4 दिन का होता था। हर चार साल में एक लीप डे का उद्देश्य कैलेंडर और मौसमों के बीच सामंजस्य स्थापित करना था। लेकिन माप में थोड़ी सी अशुध्दि के कारण कैलेंडर की तिथियाँ लगभग हर शताब्दी में एक दिन पीछे चली जाती थीं। पोप ग्रेगरी के समय तक कुल 14 दिन पीछे चले गए थे।
उन्होंने अपनी सुधारों का आधार ईसाई धर्म के पुनरोत्थान पर रखा था। 325ईस्वी में हुई निकेया की परिषद में यह सहमति बनी थी कि, ईस्टर जिसे ईसाई अपना सबसे महत्वपूर्ण पर्व मानते थे, वह इक़्वीनॉक्स के बाद पहली पूर्णिमा के बाद पहले रविवार को मनाया जाएगा।
इक़्वीनॉक्स वह समय होता है जब सूर्य एकदम भूमध्य रेखा के सीध में होता है, जिसके कारण रात और दिन एक बराबर होते हैं। इक़्वीनॉक्स जो उस समय के हिसाब से 11 मार्च को पड़ता था, उसको दस दिन बढाकर 21 मार्च कर दिया गया था।
चूंकि पोप ग्रेगरी ने जिस दिन यह मानक बनाया था उस दिन 4 ऑक्टूबर था, इस हिसाब से कैलेंडर को 10 दिन बढ़ा दिया गया और उसके अगले दिन 15 ऑक्टूबर का दिन माना गया था। इक़्वीनॉक्स की यह स्थिति यह स्थिति वर्ष में दो बार 21 मार्च और 23 सितम्बर को आती है।
अब जानते हैं कि लीप वर्ष क्या होता है ? यह अवधारणा इस तथ्य से उपजी है कि पृथ्वी सूर्य के एक चक्कर लगाने में पूरे 365 दिन 6 घंटे का समय लगाती है, इस 6 घंटे के आंशिक समय को समायोजित करने के लिए हर चार वर्ष बाद एक लीप ईयर आता है जिसमें फरवरी 29 दिन की होती है। कोई भी वर्ष तब तक लीप ईयर नहीं होते जब तक वह शताब्दी वर्ष, 400 से पूर्णतः विभाजित ना हो जाए। 2024 लीप ईयर है, उसके बाद 2028, 2032, 2036 और 2040 में लीप ईयर होगा।
Rewa जिले के उमरी गांव में हाईवे पर भारी वाहन की चपेट में आने से शख्स की मौत, शिनाख्त में जुटी पुलिस
पोप ग्रेगरी द्वारा संशोधित इस कैलेंडर को शुरुआत में कैथोलिक देशों में ही अपनाया गया था। कुछ प्रोटेस्टेंट देशों ने इसे अपनाने में हिचकिचाहट या आपत्ति जताई। उनको लगता था यह कैलेंडर उन्हें कैथोलिक पंथ में ले आने की साजिश है। यहाँ तक की ब्रिटेन में भी क्वीन एलिज़ाबेथ प्रथम और उनकी कॉउंसिल ने इसे अपने देश में लागू करने के विचार को, चर्च के प्रतिनिधियों के विरोध को देखते हुए त्याग देना ही श्रेयस्कर समझा।
अंततः ब्रिटेन ने 1752 में यह कैलेंडर अपनाया, इसलिए जहाँ-जहाँ उसका औपनिवेशिक शासन था, वहाँ ये कैलेंडर चलने लगे। चूँकि भारत भी ब्रिटिश उपनिवेश था तो यहाँ भी इसी कैलेंडर का प्रयोग होने लगा।
जापान ने 1873 में, चीन ने 1912 में, सोवियत संघ ने 1918 में, ग्रीस ने 1923 में तथा इसी तरह विश्व भर के दूसरे देशों ने भी जो यूरोपीय देशों के उपनिवेश थे या उनके प्रभाव में थे, धीरे-धीरे इस पंचांग को स्वीकार कर लिया। तो निश्चित तौर यही कैलेंडर पूरे विश्व भर में मान्य हो गया।
यूरोपियंस ने जहाँ ये कैलेंडर बनाया, तो गणना करने वाले आधुनिक 1 से लेकर 9 तक अंक अरबों से प्राप्त किया और अरबों ने यह पद्धति हम भारतीयों से प्राप्त की थी। इसीलिए इन्हें हिंद-अरेबिक गणना पद्धति भी कहते हैं।
यूरोप के लोग जिस रोमन नंबर को यूज़ किया करते थे, उसमें सात अक्षर I, V, X, L, C, D, और M थे जिनके मान क्रमशः 1, 5, 10, 50, 100, 500 और 1000 थे। ये रोमन अंक लिखने में बहुत लंबे चौड़े और याद करने में बहुत कठिन थे।
जबकि हिन्द-अरेबिक अंक बहुत सटीक और सरल थे। ये विश्वभर की संस्कृतियों और सभ्यताओं के बीच के ज्ञान-विज्ञान का प्रसार था। अगर हमने दुनिया की दूसरी सभ्यताओं से कुछ प्राप्त किया है, तो उन्हें कुछ दिया भी है। इसीलिए हमारे लिए श्रेयस्कर यही है, ना हम अपनी संस्कृति को भूले और साथ ही याद रखें अपने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा को भी।