History Of Holi: हिरण्यकश्यप के भाई के वध से जुड़ा है होली का त्यौहार

होली का इतिहास: ये कहानी, आज से लाखों वर्ष पहले की है। यह कहानी उस युग की है जब शृष्टि में पाप और पापियों के लिए कोई जगह नहीं थी। या यूँ कहें कि पाप करने वाले इस युग में थे ही नहीं। जिसे हम सतयुग कहते हैं। सतयुग में देवता, मनुष्य और राक्षस सभी एक साथ शांति से रहते थे। तब राक्षसों में भी धर्म का कोई विरोध नहीं था, वो भी ईश्वर को पूजते थे, हवन करते थे। मगर इस धर्म के साम्राज्य में तब अधर्म की शुरुआत हुई जब ब्रह्मा के मानसपुत्र ऋषि कश्यप और उनकी धर्मपत्नी दिति को दो अत्यंत शक्तिशाली असुर संताने हुईं। एक था हिरण्याक्ष और दूसरा हिरण्यकश्यप।

दोनों असुर भाइयों को अपनी शक्ति का बहुत घमंड था। दोनों भाई अहंकार में इस कदर अंधे हो चुके थे कि इन्होने देवताओं को चुनौती देना शुरू कर दिया था। ये कहा जा सकता है कि देवताओं से असुरों के बीच शुरू हुई क्षत्रुता का कारण यही दोनों भाई थे। हिरण्याक्ष दैत्यों का राजा था, और देवताओं से शत्रुता रखता था। देवता भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते थे इसी लिए हिरण्याक्ष उनसे धृणा करता था।

एक बार हिरण्याक्ष ने खुद भगवान विष्णु से भी ज्यादा शक्तिशाली प्रदर्शित करने के लिए अपनी माया से पृथ्वी को समंदर में डुबो दिया, उसने पृथ्वी को अस्त व्यस्त कर दिया। उसे भी ब्रह्मा से यह वरदान प्राप्त था कि कोई देवता, मन्युष्य या असुर उसे मार नहीं सकता। इसी घमंड में चूर हिरण्याक्ष ने विष्णु को युद्ध के लिए चुनौती दी। हिरण्याक्ष का वध करने और सृष्टि को उसके प्रकोप से बाहर निकालने के लिए नारायण ने वराह अवतार लिया। दोनों के बीच हजारो वर्षों तक युद्ध चला और अंततः वही हुआ जो विधि का विधान था। वराह अवतार ने हिरण्याक्ष का वध कर इस सृष्टि को बचा लिया। मगर यह युद्ध थमा नहीं। अपने सगे भाई का वध होने के बाद हिरण्यकश्यप ने विष्णु को अपना शत्रु मान लिया। उसके अंदर बदले की आग सदियों तक जलती रही। उसने उन राक्षसों को भी अपनी तरफ खींच लिया जो धर्म के पथ पर चलते थे और एक विशाल, शक्तिशाली असुर साम्राज्य का राजा बन गया।

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प्रह्लाद विष्णु भक्त कैसे बने

हिरण्यकश्यप को भगवान विष्णु के नाम से भी चिढ़ थी। उसकी पत्नी कयाधु जो की एक असुर राजकुमारी थी। जब देवताओं के बीच असुरों का युद्ध छिड़ा तब कयाधु गर्भवती थीं, उन्हें देवताओं ने बंदी बना लिया था। तब नारद मुनि ने उन्हें बचाया और अपने आश्रम में शरण दी। नारद जी ने कयाधु को श्रीहरि विष्णु की महिमा सुनाई। युद्ध समाप्त हुआ, कयाधु अपने महल वापस लौटीं और उन्होंने एक पुत्र को जन्म GIVEN जिसका नाम था ‘प्रह्लाद’।

प्रह्लाद थे तो दानव पुत्र मगर वे विष्णुभक्त भी थे। जब नारद जी ने उनकी माता कयाधु को श्रीहरि विष्णु की महिमा सुनाई तब गर्भ से प्रह्लाद ने भी उसे सुना था और वे जन्म से पहले ही नारायण की भक्ति में लीन हो गए थे। हालांकि प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप को इसका आभास तब हुआ जब प्रह्लाद असुरों के गुरु, शुक्राचार्य के गुरुकुल से शिक्षा लेकर वापस अपने महल लौटे थे। तब हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र से पूछा – पुत्र तुमने सबसे उत्तम शिक्षा क्या सीखी? तब प्रह्लाद ने उत्तर देते हुए कहा- पिताश्री! संसार में सबसे श्रेष्ठ है श्रीहरि विष्णु की भक्ति। उन्हीं की शरण में जाना चाहिए।

यह सुनते ही हिरण्यकश्यप का रक्त उबाल मारने लगा, उसकी आंखें क्रोध में जलने लगीं। उसने इसका भी दोष विष्णु को देना शुरू कर दिया। हिरण्यकश्यप ने ऐसी कोई तरकीब न छोड़ी जिससे उसका पुत्र विष्णु भक्ति से दूर हो जाए मगर हर प्रयास विफल रहा। जब असुरराज यह समझ गया कि अब प्रह्लाद से विष्णु को अलग नहीं किया जा सकता तब उसने अपने ही पुत्र की जान लेने की योजना बनाई। उसने एक बार प्रह्लाद को हाथियों से कुचलवाने की कोशिश की मगर प्रह्लाद बच गए। उसने अपने पुत्र को विषधर नागों से डसवाया मगर प्रह्लाद का बाल भी बांका न हुआ। उसने उस नन्हे भक्त को ऊंची पहाड़ियों से गिराने का प्रयास किया। विष पिला कर मारने की कोशिश की मगर वो हर बार नाकाम रहा। उसे यह बात मंजूर न थी कि जिस विष्णु को वह अपना शत्रु मानता है उसका पुत्र उन्हीं की भक्ति करता है। उस हर हाल में अपने पुत्र की जान लेनी थी।

इसके लिए उसने अपनी बहन होलिका से मदद मांगी। होलिका को भगवान ब्रह्मा ने एक ऐसा वरदानी वस्त्र दिया था जो अग्निरोधी था यानी उसे जलाया नहीं जा सकता था। हिरण्यकश्यप ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठे, और वह दिव्य वस्त्र धारण कर ले ताकि प्रह्लाद उस अग्नि में जल जाए और होलिका को आंच तक न आए मगर हुआ इसका ठीक उलट। जैसे होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठी, भगवान विष्णु की कृपा से तेज हवा चली और वह वस्त्र उड़कर प्रह्लाद के ऊपर आ गया। परिणामस्वरूप, प्रह्लाद सुरक्षित रहे और होलिका जलकर भस्म हो गई। होलिका को अपने दिव्य वस्त्र पर घमंड था, लेकिन उसने इसका उपयोग अधर्म के लिए किया, इसलिए वह नष्ट हो गई।

रंगों वाली होली क्यों मनाई जाती है

जब यह घटना हुई तब फाल्गुन मास की पूर्णिमा थी। इसी लिए लाखों वर्षों से सनातनी बुराई पर अच्छाई की जीत का त्यौहार धूमधाम से मनाते हैं जिसे होली कहते हैं। लेकिन होलिका दहन के बाद अगले दिन मनाई जाने वाली रंगों की होली जिसे धुलेंडी कहते हैं। इसका नाता प्रह्लाद या होलिका से नहीं बल्कि भगवान श्री कृष्ण और माँ राधा से जुड़ा है। श्रीकृष्ण ने पहली बार राधा और गोपियों के साथ रंगों की होली खेली थी, जिससे यह परंपरा शुरू हुई। कालांतर में ये दोनों परंपराएँ एक साथ जुड़ गईं, इसलिए होलिका दहन के अगले दिन रंगों से होली खेली जाती है।

हिरण्यकश्यप का अंत

अब हम वापस सतयुग की उस घटना पर लौटते हैं जब प्रह्लाद होलिका के प्रकोप से बच निकले। पहले अपने भाई हिरण्याक्ष और उसके बाद होलिका के मारे जाने से हिरण्यकश्यप के सीने में जल रही प्रतिशोध की ज्वाला, ज्वालामुखी बन गई। उसने निरंतर प्रह्लाद को मनाने और मारने की कोशिश जारी रखी। एक दिन उसने विष्णु के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया। उसने प्रह्लाद की श्रद्धा को खत्म करने के लिए पूछा- बताओ कहाँ है विष्णु? तो प्रह्लाद ने कहा, नारायण हर जगह हैं। तब क्रोधित हो उठे राक्षसराज ने एक स्तंभ की तरह अपनी उंगली दिखाते हुए कहा- क्या इस स्तंभ में भी है तुम्हारा भगवान!!!!! प्रह्लाद ने कहा हां यहां भी मेरे ईश्वर हैं। तब हिरण्यकश्यप ने गदा उठाया और उस स्तंभ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। लेकिन जैसे ही उसने टूटे हुए स्तंभ की तरफ देखा वहां साक्षात् विष्णु अवतार नरसिंह खड़े थे।

मगर हिरण्यकश्यप इस घमंड में चूर था कि उसे ब्रह्मा ने ऐसा वरदान दिया है जिससे उसे न तो कोई मनुष्य मार सकता है न दानव न देवता। न अस्त्र से न शस्त्र से, न अंदर न बाहर। न धरती में न आसमान में। इसी लिए उसने नरसिंह को भी चुनौती दे दी। तब अतिक्रोधी नरसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप को अपनी भुजाओं में उठा लिया और महल की दहलीज में बैठकर, उसे अपनी गोद में रखकर अपने नाखूनों से उसका पेट फाड़ डाला। विष्णु अवतार नरसिंह के सामने ना तो हिरण्यकश्यप की आसुरी शक्तियां काम आईं, न ही वो वरदान और ना ही उसका घमंड। भगवान नरसिंह की संरचना ऐसी थी कि वे न तो पूर्णतः मनुष्य थे, न राक्षस न ही पूर्णतः देवता। वे आधे मनुष्य, आधे सिंह थे जिनमें भगवान विष्णु की शक्ति थी। उन्होंने असुरराज को आकाश या पाताल में नहीं बल्कि दोनों के बीच अपनी जंघों में रखकर मारा। किसी अस्त्र या शस्त्र से नहीं अपने नाखूनों से उसका वध किया और इसी के साथ न सिर्फ हिरण्यकश्यप बल्कि उसका अत्याचारी शासन समाप्त हो गया। देवताओं ने प्रह्लाद को राजगद्दी सौंप दी जिन्होंने धर्म, सत्य और भक्ति पर आधारित राज्य चलाया।

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