Holi Festival | होली का इतिहास और उसकी मान्यताएं

Holi ka itihas: होली का पर्व और त्यौहार भारत में सदियों से मनाया जा रहा है, कई सारी धार्मिक, पौराणिक और किंवदंतियाँ इससे जुड़ी हुई हैं। होली का त्यौहार पूर्णिमा के दिन होता है, होली का पर्व बुराई पर अच्छाई के जीत का प्रतीक माना जाता है।होली हिंदुओं के साथ ही जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी खेली जाती है, यहाँ तक की मुग़ल बादशाहों द्वारा भी होली बहुत धूम-धाम से मनाई जाती थी। आइये जानते हैं होली का इतिहास और उसकी मान्यताएं।

होली की वैदिक परंपरा

होली के त्यौहार को मनाने की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है, पहले इसे विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुःख समृद्धि के लिए मनाया जाता था। वैदिक काल में इस पर्व को नवत्रैष्टि पर्व कहा जाता था, उस समय खेत में गेहूं, चना और जौ इत्यादि की फसल अधपकी होती थी, अधपके अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने का विधान था, चूँकि अन्न को होला कहा जाता था, इसीलिए इस पर्व का नाम होलिका पड़ा। जैमनीय संहिता सहित कई प्राचीन ग्रंथों में इस कथा का जिक्र है।

होली से जुड़ी पौराणिक कथाएं

वैसे होली से जुड़ी पौराणिक कथाएँ हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध है हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद की कहानी, जिसमें भागवत भक्त होने के कारण असुरराज हिरण्यकश्यप अपने पुत्र का वध करना चाहता है, बहुत प्रयास के बाद भी जब वह उसे नहीं मार पाता तो, अपनी बहन होलिका से मदद मांगता है, जिसे ब्रम्हा जी का वरदान होता है अग्नि उसे नहीं जला सकती है, इसी वरदान के अहंकार में होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश कर जाती है, भगवान विष्णु के आशीर्वाद से प्रह्लाद बच जाते हैं और होलिका अग्नि में भस्म हो जाती है। ऐसी ही एक मिलती जुलती कथा राक्षसी ढूंढी की है जो राजा पृथु के समय में थी, जो अबोध बालकों को खा जाती थी, उसे भी देवताओं से किसी के हाथों और ना किसी अस्त्र-शस्त्र से मारे जाने का वरदान था, जिसके कारण वह ऐसा करती थी, उसके अत्याचार से त्रस्त होकर एकदिन राजा पृथु ने अपने पुरोहित से इसका निवारण करने के लिए कहते हैं।
कहते हैं पुरोहित ने एक समाधान निकाला उसे मारा नहीं जा सकता है, पर डरा कर भगाया जा सकता है। इसीलिए नगर के सब लोगों ने अपने हाथों में जलते हुए लकड़ी लेकर एक जगह इकठ्ठा हो गए, और जैसे ही राक्षसी आई, उसके चारों तरफ जोर जोर से मंत्र पढ़ते हुए चारों तरफ घूमने लगे, बच्चे शोरगुल करने लगे, ढूंढी को किसी के हाथों अस्त्र-शस्त्र से ना मरने का वरदान प्राप्त होता है, आग से ना मरने का नहीं, इसीलिए वह डर के भाग जाती है और तभी से यह पर्व मनाया जाने लगा।

होली में राधा-कृष्ण

इसी तरह की एक कथा पूतना राक्षसी से भी जुड़ी है, जो कंस द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को मारने के लिए भेजी जाती है, लेकिन बालकृष्ण द्वारा उसके वध के बाद, नंदगांव में लोगों ने होलिका उत्सव मनाया। होली का पर्व भगवान श्रीकृष्ण और राधा से भी जुड़ी हुई हैं, कई संस्कृत ग्रंथों और हिंदी साहित्य के साहित्यकारों की रचनाओं में भी राधा-कृष्ण की होली का बड़ा मनोहरी वर्णन है। इन्हीं रचनाओं को आधार बनाकर 18वीं शताब्दी के राजपूत दरबार के चित्रकारों ने बड़े मनमोहक चित्र बनाए।

कामदेव की कथा


होली से जुड़ी कथाओं में से एक कथा भगवान महादेव शिव द्वारा रतिपति कामदेव को भस्म करने को लेकर भी है, जब सती के जाने के बाद महादेव शिव महायोगी की अवस्था में पहुँच गए, तारकासुर नामका एक राक्षस ब्रम्हा जी के वरदान के बाद अत्यंत अभिमानी हो गया था, क्योंकि उसे शिवपुत्र के हाथों से मारे जाने का वरदान था, और शिव तो वर्षों से समाधि में लीन थे, इधर पर्वतराज हिमालय की कन्या हेमा पार्वती, शिव को पतिरूप में पाने के लिए तपस्यारत थीं, देवताओं ने भगवान शिव को समाधि की अवस्था से जागृत करने के लिए, कामदेव को भेजा, कामदेव अपनी पत्नी रति और प्रिय मित्रों बसंत और चैत्र के साथ भगवान शिव की तपस्या भंग करने पहुंचे, उन्होंने भगवान शिव को जगाने का अथक प्रयास किया और अंत में उनकी तपस्या भंग ही कर दी, अपनी भंग तपस्या से क्रोधित भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र द्वारा कामदेव को भस्म कर दिया, लेकिन रति के विलाप से द्रवित होकर काम को अनंग रूप में जीवनदान दिया। कई मान्यताओं के अनुसार कामदेव के जीवित होने की ख़ुशी में रंगों का यह पर्व मनाया जाता है।

बौद्ध, जैन और सिख धर्म में होली

हिंदू ही नहीं भारतीय परम्परा से सम्बंधित अन्य तीन धर्मों जैन, बौद्ध और सिखों में भी होली का पर्व मनाया जाता है।
जैन धर्म में होली का पर्व भगवान ऋषभदेव के मोक्ष और भगवान महावीर के जन्म से सम्बंधित करके मनाया जाता है, इस दिन जैनी लोग अपने तीर्थंकरों की पूजा करते हैं, धार्मिक गीत गाते हैं, लेकिन जैन धर्म की होली में गीले रंगों का प्रयोग नहीं किया जाता है, बल्कि सूखे रंगों से होली खेली जाती है।
बौद्ध धर्म की मान्यता के अनुसार भगवान बुद्ध, बुद्धत्व को प्राप्त होने के बाद पहली बार अपने घर कपिलवस्तु गए, जहाँ लोगों ने उनका स्वागत किया गया, चूँकि तब फाल्गुन का महीना था, तो यह फाल्गुन उत्सव बन गया है।
सिख धर्म में होली के दिन होला मोहल्ला का त्यौहार मनाया जाता है, यह त्यौहार तीन दिन तक मनाया जाता है, होला मोहल्ला का त्यौहार मनाए जाने की शुरुआत गुरु गोविंदसिंह जी ने की थी। मान्यता है गोविंदसिंह जी ने यह पर्व योद्धाओं में वीरता और साहस बढ़ाने के लिए किया था, जिसमें सिख दो गुटों में बंटकर नकली युद्ध इत्यादि करते थे, महाराजा रंजीत सिंह के समय में भी होली सिखों द्वारा बहुत धूम-धाम से खेली जाती थी, रणजीत सिंह भी अपने दरबारियों के साथ होली खेलते थे।

मुग़लों की होली

होली तो प्रेम का त्यौहार है, अमीर खुसरो, मीर, नजीर अकबराबादी इत्यादि मुस्लिम कवियों की रचनाओं में होली का खूब जिक्र है। मुग़ल शासक भी होली खेलते थे, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ इत्यादि के समय होली मुगलों द्वारा बहुत धूम-धाम से मनाई जाती थी, जिसमें मुग़ल शासक अपनी बेगमों के साथ शामिल हुआ करते थे, अकबर और जहांगीर के कई चित्र होली खेलते हुए प्राप्त होते हैं, जहांगीर अपने तुजुक-ए-जहांगिरी में भी होली का जिक्र करता है। शाहजहाँ के समय में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था। हालांकि औरंगजेब के समय इस उत्सव पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन उसके बाद यह उत्सव फिर से प्रारम्भ हो गया था, मुहम्मद शाह रंगीला और और बहादुरशाह जफ़र द्वारा भी होली धूम-धाम से खेली जाती थी, बहादुर शाह तो फाग गीत भी रचते हैं-
“क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी
देखो कुंवरजी दूंगी गारी”

मुग़लों के अलावा अवध के नवाब भी होली का त्यौहार बड़े धूम-धाम से मनाते थे, मीर-तकी-मीर के शायरियों में अवध के नवाब वजीर आसफुद्दौला द्वारा होली खेलने का जिक्र आया है, अवध का अंतिम नवाब वाजिद अली शाह तो होली पर एक ठुमरी भी रचते हैं-
“मोरे कान्हा जो आए पलट के, अबकी होली मैं खेलूंगी डट के”

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