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गिलगित-बाल्टिस्तान का इतिहास: पाकिस्तान है कि मानता ही नहीं!

HISTORY OF GILGIT AND BALTISTAN

HISTORY OF GILGIT AND BALTISTAN

अगर भारत की सबसे ऊंची चोटी गूगल में सर्च करेंगे तो K2 का नाम आता है। फिर यही गूगल K2 को पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगिट–बाल्टिस्तान में बताएं तो दिमाक चकरा जाता करता है।

बात जब कश्मीर की होती है तो गिलगित–बाल्टिस्तान को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में बताया जाता है. और जब दुनिया की सबसे ऊंची चोटी K2 को पाकिस्तान में होना बताया जाता है तो बुद्धि ही गरम हो जाती है. होना भी चाहिए लेकिन गुस्सा आने से पहले पाकिस्तान-कश्मीर और गिलगित–बाल्टिस्तान के इतिहास का थोड़ा नॉलेज भी होना चाहिए। आज हम गिलगित–बाल्टिस्तान के इतिहास के कुछ ऐसे पहलुओं के बारे में बात करेंगे और इन पहलुओं की मदद से जानने की कोशिश करेंगे कश्मीर और गिलगित–बाल्टिस्तान की कहानी थोड़ा अलग है. कैसे? तो आइए जानते हैं.

पहले क्रोनोलॉजी समझते हैं, 1839 में महाराजा रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) की मृत्यु के बाद से उत्तर पश्चिम में सिखों का साम्राज्य सिकुड़ता चला गया. 1845 के एंग्लो–सिख युद्ध हुआ अंग्रेजों की विजय हुई. जीत की वजह से 1846 में लाहौर ट्रीटी पर दस्तखत हुए. इसके अनुसार कश्मीर अंग्रेजों के कब्जे में चला गया. लेकिन अंग्रेज इस पहाड़ी और ठंडे इलाके में अपना पैसा और समय दोनों नहीं देना चाहते थे. लिहाजा अंग्रेजों ने वही पुराना रवाया अपनाया जो बाकी के हुकूमतों के साथ आजमाया करते थे. कुछ ही समय बाद कश्मीर और गिलगित–बाल्टिस्तान का इलाका 75 लाख रुपए लेकर महाराजा गुलाब सिंह (Maharaja Gulab Singh ) के हवाले कर दिया। इसके बावजूद अंग्रेज अपने पोलिटिकल रेप्रेसेंटेटिव की मदद से इलाके में बाहर से नजर बनाए रखा इसी दौरान रशिया सेंट्रल एशिया में पहुंच बढ़ाने की फिराक में था. जिसका रास्ता गिलगित–बाल्टिस्तान से होकर गुजरता था. अंग्रेज किसी भी सूरत में ऐसा नहीं होने देना चाहते थे. लिहाज़ा 1877 में गिलगित के उत्तरी इलाकों को जोड़कर एक नाम दिया ”गिलगित एजेंसी”

गिलगित स्काउट्स की कहानी

Story of Gilgit Scouts: वर्ष 1913 में अंग्रेजों ने इस इलाके की देख-रेख के लिए पैरामिलिट्री फोर्स (Paramilitary forces) बनाई इसमें लोकल लोगों को शामिल किया। फोर्स का नाम रखा गिलगित स्काउट’ जिसकी कमान ब्रिटिश अफसर के हाथ में थी. गिलगित स्काउट नाम याद रखिएगा क्योंकि इस कहानी में मुख्य भूमिका इसी की है।

वर्ष 1935 में दूसरे विश्व युद्ध के आसार दिख रहे थे, लिहाजा अंग्रेजों ने गिलगित को महाराजा हरि सिंह से 60 साल के लिए लीज में लिया तब से इलाका ”फ्रंटियर एजेन्सी’‘ के नाम से जाना जाने लगा.

फिर आया 1947 का समय अंग्रेजों को भारत से भागना था. अंग्रेजों को क्या फर्क पड़ता था कश्मीर कहां जाएगा? क्योंकि सभी रियासतों को आजादी थी कि वह किसे चुने। कश्मीर हरि सिंह(Hari Singh) की रियासत थी, वैसे तो फैसला महाराजा को करना था, लेकिन जैसे कि पहले भी बताया है कि गिलगित का इलाका हरि सिंह के कब्जे में तो था नहीं अंग्रेजों ने लीज पर उठाया हुआ था। इसलिए इस एरिया को ब्रिटिश प्रशासन को किसी न किसी के हाथों में सौंपना था. भारत और पाकिस्तान की रस्साकशी से बचने के लिए अंग्रेजों ने यह तय किया कि गिलगित का यह इलाका हरि सिंह को दे देंगे इसके लिए बाकायदा 1 अगस्त की तारीख भी तय की गई.

गिलगित प्रशासन को अपने हाथों में लेने के लिए हरी सिंह ने घनसारा सिंह (Ghansara Singh) को गिलगित के गवर्नर नियुक्ति किये गए. जब गवर्नर घनसारा सिंह गिलगित पहुंचे तो, उन्होंने देखा कि यहां तो अलग खेल चल रहा है. वहां के नौकरशाह मुंह फुल बैठे थे. उन्होंने कहा कि जब तक उनकी सैलरी नहीं बढ़ाई जाती वह किसी भी हुक्म की तालीम नहीं करेंगे. ऐसे में घनसारा सिंह ने श्रीनगर को कई संदेश भेजें कि गिलगित में तो अलग खिचड़ी पक रही है. यहां के हालात तो काबू से बाहर जा रहे हैं. तब कश्मीर स्टेट फोर्स के स्टाफ हुआ करते थे जनरल एच.एल स्कॉट,(General H.L. Scott) वो भी घनसारा सिंह के साथ गिलगित पहुंचे थे.

राजा हरि सिंह का कश्मीर संघर्ष

1 अगस्त का समय आया और चला भी गया, कहां बेचारे हरि सिंह गिलगित की आस लगाए बैठे थे, अब लग रहा था कि कश्मीर की गद्दी भी उनके हाथों से चली जाएगी. एच एल स्कॉट श्रीनगर पहुंचे हरी सिंह को गिलगित की हालत से रूबरू करवाने तो राजा ने उनकी बात को तबज्जो ही नहीं दिया. असल में हरि सिंह कंफ्यूजआए थे कि किसकी तरफ जाएं. सबसे आसान ऑप्शन था भारत या पाकिस्तान दोनों में से किसी को न चुने जिससे उनकी रियासत बरकरार रहे.

पाकिस्तान में तो विलय होना नहीं चाहते थे भारत के नरम रवैया देख कर उनका विचार करने का काफी समय मिल गया. उधर घनसार सिंह अपने काम को बखूबी अंजाम दे रहे थे. गिलगित में अपनी पैठ जमाने के लिए कबीलों से कॉन्ट्रैक्ट किया, मगर देने के लिए उनके पास कुछ ना था, न ही पैसे और न ही कोई रसूख. गिलगित के 75% इलाके पर स्काउट का कब्जा ऊपर से था. कुल मिलाकर कहें तो बारूद का ढेर तैयार था सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत थी।

चिंगारी गिरने में ज्यादा देर नहीं लगी. ज्यादातर अंग्रेज भारत-पाकिस्तान छोड़ घर निकलने को तैयार थे, लेकिन विलियम ब्राउन पर देशभक्ति का नशा चढ़ा था. वह भी पाकिस्तान के सपोर्ट में, उसने यह ठान लिया था कि जब तक पाकिस्तान में गिलगित को नहीं मिला देता गिलगित से जाऊगा नहीं. अक्टूबर माह आते-आते हरि सिंह का फैंस ‘फेस द ट्रुथ’ मोमेंट आ चुका था.पाकिस्तान को हरी सिंह से कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन उनका भरोसा शेख अब्दुल्ला को लेकर था कि कश्मीर की आवाम को पाकिस्तान के पक्ष में मिला लेंगे, लेकीन शेख अब्दुल्ला कभी भारत के पक्ष में नजर आते तो कभी आजाद कश्मीर के.

ऑपरेशन गुलमर्ग

कबीलाइयों का कश्मीर पर हमला: यह देखते हुए 22 अक्टूबर के दिन पाकिस्तान ने कश्मीर में ऑपरेशन गुलमर्ग की शुरुआत कर दी। लारी से 200 से 300 की संख्या में आए काबिलाइयों ने जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया. वो लोग श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे हरि सिंह की फौज के सिपाही भी हमलावरों के साथ मिले थे. काबिलाइयों ने ऐलान किया कि 26 अक्टूबर तक श्रीनगर फतेह कर वहां की मस्जिद पर ईद पर जश्न मनाएंगे.

जब बाजी हाथ से निकलते दिखाई दी तो आनंन-फानन में 26 अक्टूबर की रात हरि सिंह ने दिल्ली से मदद मांगी. स्थिति को भापते हुए अगली सुबह माउंटबेटन की अध्यक्षता में डिफेंस कमेटी की बैठक हुई और तय हुआ कि वीके मेनन कश्मीर जाएंगे. कश्मीर पहुंचते ही उन्होंने राजा हरि सिंह से मुलाकात की. अब तक राजा के पास कोई और रास्ता नहीं बचा था और वह फौरन भारत में विलय होने को तैयार हो गए. 26 अक्टूबर 1947 को राजा हरि सिंह ने इंट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन (instrument of accession) पर साइन किया. जिसके बाद आधिकारिक रूप से अब कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया. फिर मदद के लिए हरि सिंह ने गवर्नर जनरल को पत्र लिखा और अपील की हम तत्काल एक अंतिम सरकार की गठन करना चाहते हैं.

गिलगिट में क्या हुआ?

Story Of Gilgit-Baltistan: यह तो हुआ कश्मीर का हाल इसके बाद कैसे पाकिस्तान बैक फुट में आया कैसे LOC बनी यह तो हम सब जानते हैं, लेकिन इस दरमियान गिलगित में कुछ और ही खेल चल रहा था. वहां अब तक पाकिस्तान की एंट्री हो चुकी थी. कश्मीर में भारत की एंट्री होते ही विलियम ब्राउन को अंदेशा हो गया कि, अब अगर कुछ ना किया गया तो भारत गिलगित तक पहुंच जाएगा. 31 अक्टूबर की रात वहां 100 से ज्यादा गिलगित स्काउट्स ( Gilgit Scouts) को लेकर पंहुचा और घेर लिया। उसने गवर्नर से सरेंडर करने को बोला लेकिन वह यही नहीं रुका उसने कश्मीर लाइट इन्फैंट्री (Kashmir Light Infantry) डिवीजन के सिख सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.

इसके ठीक चार दिन बाद गिलगित में पाकिस्तान का झंडा फहराया जा रहा था. यह सब कराया धराया ब्राउन का था. लेकिन यहां की आवाम को बता रहा था. पाकिस्तान तो यही चाहता था, वह यह हरगिज़ नहीं चाहता था कि इसमें उनका हाथ दिखे इतना ही नहीं पाकिस्तान आज भी इसे अवाम का विद्रोह कहता आया है, जबकि बिलीयन ब्राउन ने अपनी किताब (THE GILGIT REBELLION) में साफ तौर पर लिखते हैं कि गिलगित में जो हुआ वह पाकिस्तान के इशारे में हुआ इसमें गिलगित के स्काउट का हाथ था. वर्ष 1948 में ब्राउन ने गिलगित स्काउट की कमान असलम खान को दे दि. असलम खान वही था जो कबीलाई लड़कों का नेतृत्व कश्मीर में करता था. इसके अगले कुछ महीने बाद पाकिस्तान ने अपनी सेना भेज कर गिलगित में पूरी तरह कब्जा कर लिया। पाकिस्तान आज भी इसे कश्मीर का हिस्सा न कह कर Northern Areas बुलाता है. तब से पाकिस्तान K2 को अपनी चोटी बताता रहता है, और हम किताबों और गूगल में इस पर पढ़ाई करते रहते हैं।

पाकिस्तान को दिक्कत क्या है?

पाकिस्तान इस मामले में दूधमुंहा बच्चों वाली बात करता है. जिन्नापुर कहता है कि राजा हरि सिंह जनता द्वारा तो चुने नहीं गए थे तो ऐसे में गिलगित पर उनका हक कैसे? इस लॉजिक के हिसाब से जितनी भी रियासतों ने पाकिस्तान को चुना उन रियासतों के शासक चुनाव द्वारा तो चुने नहीं गए थे. तो इस हिसाब से किसी भी रियासत में पाकिस्तान का हक कैसे हुआ? हैं न बच्चों वाली बात! पाकिस्तान को कोई बताये वह दौर ही ऐसा था तब जिसकी लाठी उसकी भैंस हुआ करती थी. गिलगित को अंग्रेजों ने लिया था वह भी लीज पर, जिसको उन्होंने लौटा भी दिया बाकायदा पूरी कलम–दवात और पोथी-पत्रा के साथ लिखकर.

ऐसे में नियम कानून तो यही कहते हैं कि गिलगित और बाल्टिस्तान का निर्णय राजा हरि सिंह को करना था, और दस्तावेज भी इसके गवाही देते हैं कि राजा ने गिलगित का विलय भारत में होना चुना था. अब भाई साहब जिसका कोई ईमान और धर्म ही ना हो उसको कौन समझाए। अब दस्तखत वाले मामले में पाकिस्तान कहता है कि राजा हरि सिंह से दबाव में हस्ताक्षर कराया गया था। अब आप लोग ही बताओ कि सेना आने से पहले अगर हस्ताक्षर हो चुका था, तो दबाव कैसा? खैर पाकिस्तान को समझाना हमारे और आपके बस की बात नहीं है. हमने तो आपके सामने इतिहास पेश किया है.

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